इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में डॉक्टर राजेश कुमार श्रीवास्तव और अधिवक्ता रमेश कुमार श्रीवास्तव के खिलाफ चल रही आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया है। न्यायमूर्ति श्री प्रकाश सिंह ने यह फैसला 10 अप्रैल 2025 को सीआरपीसी की धारा 482 के तहत दायर याचिका पर सुनाया। न्यायालय ने माना कि मुकदमा दुर्भावनापूर्ण और द्वेषपूर्ण इरादे से शुरू किया गया था।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला एक प्राथमिकी (FIR) से जुड़ा है, जो 8 फरवरी 2007 को शीला गुप्ता नामक महिला द्वारा दर्ज कराई गई थी। आरोप लगाया गया था कि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, मलीहाबाद में डॉ. राजेश कुमार श्रीवास्तव द्वारा की गई सर्जरी में लापरवाही बरती गई, जिससे कैंसर जैसी स्थिति उत्पन्न हुई। इसके बाद, जब वादी धरना दे रही थी, तो आरोपियों ने कथित तौर पर उसे मोटरसाइकिल से टक्कर मार दी और गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी दी, जिससे उसके बाएं हाथ की कोहनी में फ्रैक्चर हो गया।
इस मामले में 18 दिसंबर 2007 को आरोपपत्र दाखिल किया गया और भारतीय दंड संहिता की धारा 325 और 506 के तहत आरोप तय किए गए। मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, लखनऊ ने 19 दिसंबर 2007 और 22 जुलाई 2013 को समन जारी किए थे।
याचिकाकर्ताओं की ओर से दलीलें
याचिकाकर्ताओं की ओर से अधिवक्ता संजय कुमार श्रीवास्तव ने तर्क दिया कि एफआईआर लगभग दो महीने की विलंब के बाद बिना किसी स्पष्ट कारण के दर्ज की गई, और आरोपपत्र जल्दबाजी में बिना समुचित जांच के दाखिल किया गया। उन्होंने यह भी कहा कि अभियोजन पक्ष के गवाहों में कोई भी प्रत्यक्षदर्शी नहीं था, और सभी गवाह केवल सुनी-सुनाई बातों पर आधारित थे।
याचिकाकर्ताओं ने निम्न तथ्यों को प्रस्तुत किया:
- डॉ. राजेश कुमार श्रीवास्तव कथित घटना के दिन पीएचसी मलीहाबाद में इमरजेंसी और पल्स पोलियो ड्यूटी पर थे।
- रमेश कुमार श्रीवास्तव इलाहाबाद हाईकोर्ट में मौजूद थे, जहां उनके कई मुकदमे सूचीबद्ध थे, जिसे चार अधिवक्ताओं के हलफनामों द्वारा सिद्ध किया गया।
- उप मुख्य चिकित्साधिकारी डॉ. एम. के. गुप्ता द्वारा की गई एक विभागीय जांच (दिनांक 29 अगस्त 2006) में डॉ. राजेश कुमार श्रीवास्तव की किसी भी प्रकार की चिकित्सकीय लापरवाही नहीं पाई गई।
- याचिकाकर्ताओं का कहना था कि वादी द्वारा मुआवजा न मिलने के बाद झूठा मुकदमा दर्ज कराया गया ताकि उन्हें व्यक्तिगत रंजिश और असफल वसूली प्रयास के कारण फंसाया जा सके।
राज्य की ओर से दलीलें
अपर सरकारी अधिवक्ता ने तर्क दिया कि एफआईआर में याचिकाकर्ताओं का नाम है और दो बार जांच कराई गई—पहले एक अधिकारी द्वारा और फिर याचिकाकर्ताओं के अनुरोध पर दूसरे अधिकारी द्वारा। उन्होंने कहा कि आरोपपत्र और समन आदेश उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर जारी किए गए।
अदालत का विश्लेषण
न्यायालय ने कहा कि विभागीय जांच में डॉ. राजेश कुमार श्रीवास्तव को दोषमुक्त पाया गया और चिकित्सकीय लापरवाही निजी अस्पताल से संबंधित थी, न कि सरकारी केंद्र से। न्यायमूर्ति सिंह ने लिखा:
“यह समझ से परे है कि किस कारण और उद्देश्य से याचिकाकर्ता ऐसा अपराध करने का इरादा रखते होंगे।”
अदालत ने यह भी पाया कि कोई भी सार्वजनिक प्रत्यक्षदर्शी अभियोजन के दावों का समर्थन नहीं करता है, और जो गवाह प्रस्तुत किए गए, वे घटनास्थल पर मौजूद नहीं थे। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया:
“अभ्यर्थी संख्या 2 दिनांक 14-01-2007 से 15-01-2007 तक ड्यूटी पर थे और तत्पश्चात पल्स पोलियो ड्यूटी पर… यह तथ्य राज्य-प्रतिवादी की ओर से दायर प्रत्युत्तर हलफनामे में कहीं भी खंडन नहीं किया गया है।”
वकील याचिकाकर्ता के संदर्भ में कोर्ट ने कहा:
“अभ्यर्थी संख्या 1 दिनांक 15-01-2007 को उच्च न्यायालय में उपस्थित थे… यह तथ्य जांच अधिकारी एवं न्यायालय दोनों द्वारा अनदेखा किया गया।”
हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय State of Haryana vs. Bhajan Lal (AIR 1992 SC 604) का हवाला देते हुए कहा कि यह मामला स्पष्ट रूप से दुर्भावनापूर्ण मुकदमेबाजी की श्रेणी (7) में आता है:
“प्रथम सूचना रिपोर्ट दुर्भावनापूर्ण और द्वेषपूर्ण इरादे से दर्ज की गई है… और यह भजनलाल मामले में निर्धारित सिद्धांतों के अंतर्गत आता है।”
निर्णय
अदालत ने कहा कि इस मामले में मुकदमे की निरंतरता न्याय की अवमानना और कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग होगी। अतः न्यायालय ने दिनांक 19.12.2007 और 22.07.2013 के समन आदेश, 18.12.2007 का आरोपपत्र और थाना कोतवाली हजरतगंज, लखनऊ के केस क्राइम नंबर 77/2007 की संपूर्ण आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया।
सीआरपीसी की धारा 482 के अंतर्गत याचिका को स्वीकार कर लिया गया।