इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 1991 के एक पत्नी हत्या मामले में दायर 1996 की आपराधिक अपील पर एक विभाजित फैसला (split verdict) सुनाया है। क्रिमिनल अपील संख्या 787 ऑफ 1996 में, न्यायमूर्ति सलिल कुमार राय और न्यायमूर्ति संदीप जैन की खंडपीठ ने अपीलकर्ता शैलेन्द्र कुमार मिश्रा की दोषसिद्धि पर परस्पर विरोधी मत व्यक्त किए।
यह अपील निचली अदालत (सेशन ट्रायल सं. 225/1992) के 26.4.1996 के फैसले के खिलाफ दायर की गई थी, जिसमें अपीलकर्ता को अपनी पत्नी सुनीता देवी की हत्या के लिए भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 302 के तहत दोषी ठहराते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी।
न्यायमूर्ति सलिल कुमार राय ने अपीलकर्ता को बरी करते हुए अपील को स्वीकार कर लिया। इसके विपरीत, न्यायमूर्ति संदीप जैन ने निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखते हुए अपील खारिज कर दी।
दोनों माननीय न्यायाधीशों के बीच असहमति के कारण, बेंच ने दंड प्रक्रिया संहिता (Cr.P.C.) की धारा 392 के तहत मामले के रिकॉर्ड को अंतिम निर्णय के लिए एक तीसरे न्यायाधीश को नामित करने हेतु माननीय मुख्य न्यायाधीश के समक्ष रखने का आदेश दिया।
अभियोजन पक्ष का मामला
अभियोजन पक्ष का मामला यह था कि मृतका सुनीता देवी की पहली शादी अपीलकर्ता के बड़े भाई विजय शंकर मिश्रा से हुई थी, जो वायु सेना में थे और एक हवाई दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई थी। इस शादी से मृतका के दो बेटे, अजय और अभय (PW-5) थे। पति की मृत्यु के बाद, मृतका को वायु सेना से 2,00,000/- रुपये मिले थे।
इसके बाद, मृतका ने अपीलकर्ता शैलेन्द्र कुमार मिश्रा से शादी की, जिससे उनकी एक बेटी सोनी (PW-4) हुई। अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया कि अपीलकर्ता लगातार मृतका से उसके पैसे और जमीन-जायदाद अपने नाम करने की मांग करता था, जिससे मृतका इनकार करती थी और इस कारण उनके वैवाहिक संबंध तनावपूर्ण थे।
आरोप के अनुसार, 26.07.1991 को शाम लगभग 4:45 बजे, अपीलकर्ता ने फिर से पैसे की मांग की। जब मृतका ने इनकार किया, तो अपीलकर्ता ने यह कहते हुए उसे गोली मार दी कि वह पैसे से इनकार करने के कारण उसे खत्म कर रहा है।
इस मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) मृतका के भाई विजय कृष्ण त्रिपाठी (PW-1) द्वारा दर्ज कराई गई थी। FIR में दावा किया गया था कि PW-1 और उसके चचेरे भाई मिथिलेश ने गोली की आवाज सुनी, घर की ओर भागे और अपीलकर्ता को भागते हुए देखा। यह भी दावा किया गया कि अस्पताल ले जाते समय रास्ते में मृतका ने PW-1 को पूरी घटना बताई थी। मृतका के बच्चों, सोनी (PW-4) और अभय (PW-5), को घटना का चश्मदीद गवाह बनाया गया था।
बचाव पक्ष का तर्क
अपीलकर्ता का बचाव यह था कि गोली “मृतका और अपीलकर्ता के बीच हाथापाई” के दौरान गलती से चली थी। बचाव पक्ष ने दलील दी कि सूचक (PW-1) का साला, प्रदीप, अपीलकर्ता की अनुपस्थिति में मृतका से मिलने आता था।
बचाव पक्ष के अनुसार, घटना के दिन प्रदीप के इन्हीं दौरों को लेकर झगड़ा हुआ था। अपीलकर्ता “प्रदीप से हिसाब चुकता करने” के लिए बाहर जा रहा था, जब मृतका ने उसे रोकने की कोशिश की, जिससे हाथापाई हुई और बंदूक गलती से चल गई।
Cr.P.C. की धारा 313 के तहत अपने बयान में, अपीलकर्ता ने पैसे मांगने के आरोपों से इनकार करते हुए कहा कि उसकी अपनी आमदनी थी। उसने दोहराया कि गोली प्रदीप को लेकर हुई हाथापाई में गलती से चली थी। उसने यह भी दावा किया कि वह अपनी पत्नी को अस्पताल ले जाने के लिए रिक्शा लेने भागा था, लेकिन जब वह लौटा, तो उसने PW-1 और अन्य लोगों की भीड़ देखी, जिन्होंने उस पर चिल्लाना शुरू कर दिया और उसका पीछा किया, जिससे वह डरकर भाग गया।
न्यायमूर्ति सलिल कुमार राय का विश्लेषण (बरी करने का आधार)
न्यायमूर्ति सलिल कुमार राय ने निचली अदालत के फैसले से असहमति जताते हुए अपीलकर्ता को बरी कर दिया, जिसके मुख्य कारण निम्नलिखित थे:
- सूचक (PW-1) की गवाही पर: न्यायमूर्ति राय ने निचली अदालत के इस आकलन से सहमति जताई कि PW-1 “अपीलकर्ता से दुश्मनी रखता था और घटना का चश्मदीद गवाह नहीं था।” उन्होंने कहा कि PW-1 का “मृतका की संपत्तियों में वित्तीय हित” था और वह एक “हितबद्ध गवाह” (interested witness) था। उसकी गवाही में “महत्वपूर्ण सुधार” पाए गए, क्योंकि अपीलकर्ता को निशाना बनाते और गोली चलाते देखने का उसका दावा न तो FIR में था और न ही जांच अधिकारी (PW-7) को दिए बयान में।
- बाल गवाहों (PW-4 और PW-5) पर: फैसले में कहा गया कि घटना के समय दोनों गवाह “बहुत कम उम्र” (6.5 और 11 वर्ष) के थे और उन्होंने साढ़े चार साल बाद गवाही दी। न्यायमूर्ति राय ने उनकी गवाही में भी “प्रमुख सुधार” देखे, जो PW-1 के सुधारे हुए दावों की पुष्टि करते थे। यह देखते हुए कि घटना के बाद PW-4 और PW-5, सूचक PW-1 के संरक्षण में रह रहे थे, न्यायमूर्ति राय ने माना, “इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि PW-4 और PW-5 को PW-1 और उसके परिवार द्वारा सिखाया-पढ़ाया गया हो।”
- अपीलकर्ता के 313 के बयान पर: न्यायमूर्ति राय ने कहा कि अपीलकर्ता के बयान को समग्रता में पढ़ा जाना चाहिए। “दोष स्वीकार करने वाले हिस्से (inculpatory part) को स्पष्टीकरण वाले हिस्से (exculpatory part) को नजरअंदाज करते हुए स्वीकार नहीं किया जा सकता।” नारायण सिंह बनाम पंजाब राज्य मामले का हवाला देते हुए, यह माना गया कि “एक बयान को या तो पूरा इस्तेमाल किया जाना चाहिए या बिल्कुल नहीं।”
- बचाव के स्पष्टीकरण पर: प्रदीप के संबंध में बचाव पक्ष के स्पष्टीकरण को “विश्वसनीय” माना गया। न्यायमूर्ति राय ने उल्लेख किया कि निचली अदालत ने स्वयं यह माना था कि “प्रदीप और मृतका के बीच अवैध संबंधों की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता” और PW-4 व PW-5 ने “PW-1 के सिखाने पर” प्रदीप के आने की बात छिपाई थी।
- मकसद और पूर्व-योजना (Motive & Premeditation) पर: न्यायमूर्ति राय ने पाया कि अभियोजन पक्ष मकसद को “साबित नहीं कर पाया”, क्योंकि 2,00,000/- रुपये का कोई दस्तावेजी सबूत पेश नहीं किया गया था। बंदूक लोड करने को भी पूर्व-योजना का सबूत नहीं माना गया, क्योंकि PW-5 की गवाही के अनुसार, अपीलकर्ता अक्सर अपनी सुरक्षा के लिए गांव जाते समय बंदूक ले जाता था।
- महत्वपूर्ण गवाहों को पेश न करना: अभियोजन पक्ष द्वारा मिथिलेश और पड़ोसियों (जो अपीलकर्ता के बाद के आचरण पर गवाही दे सकते थे) जैसे महत्वपूर्ण गवाहों से पूछताछ न करना, “अभियोजन के लिए घातक” (fatal to the prosecution) माना गया।
- निष्कर्ष: न्यायमूर्ति राय ने निष्कर्ष निकाला कि सबूतों के आधार पर “दो विचार संभव हैं,” और “अभियुक्त संदेह के लाभ (benefit of doubt) का हकदार है।”
न्यायमूर्ति संदीप जैन का विश्लेषण (सजा बरकरार रखने का आधार)
न्यायमूर्ति संदीप जैन ने न्यायमूर्ति राय के तर्कों से असहमति जताते हुए निचली अदालत की सजा को बरकरार रखा, जिसके मुख्य आधार निम्नलिखित थे:
- सूचक (PW-1) की गवाही पर: न्यायमूर्ति जैन इस बात पर सहमत हुए कि PW-1 का यह दावा “संदिग्ध” है कि मृतका ने उसे कोई बयान दिया था या उसने “अभियुक्त को गोली मारते हुए देखा था।”
- बाल गवाहों (PW-4 और PW-5) पर: इसके विपरीत, न्यायमूर्ति जैन ने बाल गवाहों की गवाही को “विश्वसनीय” पाया। उन्होंने माना कि उनकी गवाही से यह “सिद्ध” होता है कि अपीलकर्ता ने संपत्ति की मांग के बाद, “अपनी बंदूक की नली अपनी पत्नी की छाती की ओर की और लगभग एक कदम की दूरी से गोली चला दी।” उन्होंने पाया कि इस चश्मदीद गवाही की पुष्टि अपीलकर्ता के धारा 313 के बयान में दिए गए उस “इकबालिया बयान” से होती है कि गोली उसी की बंदूक से चली थी।
- बचाव के स्पष्टीकरण (प्रदीप) पर: न्यायमूर्ति जैन ने इस बचाव को पूरी तरह खारिज कर दिया। उन्होंने कहा, “दोनों चश्मदीद गवाहों… ने स्पष्ट रूप से इनकार किया कि प्रदीप उनके घर आता था।” उन्होंने माना कि “रिकॉर्ड पर ऐसा कोई सबूत नहीं है” जो अवैध संबंधों को साबित करे। “इसे साबित करने का भार अभियुक्त पर था, जिसे वह पूरा नहीं कर पाया।”
- आकस्मिक गोलीबारी पर: इस स्पष्टीकरण को भी यह कहते हुए खारिज कर दिया गया कि “ऑटॉप्सी के दौरान मृतका के हाथों या उंगलियों पर हाथापाई या संघर्ष के कोई निशान नहीं पाए गए।”
- मकसद पर: न्यायमूर्ति जैन ने मकसद को “सिद्ध” पाया। उन्होंने कहा कि अभियुक्त ने स्वीकार किया कि संपत्तियां सुनीता के नाम थीं, और उन्हें हस्तांतरित करने से इनकार करना ही “टकराव का असली कारण” था।
- पूर्व-योजना पर: इसे भी “सिद्ध” माना गया। न्यायमूर्ति जैन ने इस तथ्य पर जोर दिया कि अपीलकर्ता ने मृतका के पानी लेकर लौटने से पहले ही बंदूक लोड कर ली थी। यह “प्रदर्शित करता है कि वह तंग आ चुका था” और “उसने अंततः अपना मन बना लिया था।” उन्होंने निष्कर्ष निकाला, “बंदूक लोड करना ही यह साबित करता है कि अभियुक्त ने उस दिन मामला निपटाने का मन बना लिया था… यह पूर्व-योजना साबित करता है कि अभियुक्त सुनीता को मारना चाहता था।”
- अपीलकर्ता के बचाव पर: न्यायमूर्ति जैन ने टिप्पणी की, “यह भी स्पष्ट है कि अभियुक्त एक वकील है, जिसने धारा 313 CrPC के तहत बहुत ही कुशलता से अपना बचाव तैयार किया है, जिसमें कोई दम नहीं है और यह विश्वसनीय चश्मदीद सबूतों से बचने के लिए बाद में सोची गई कहानी है।”
- निष्कर्ष: न्यायमूर्ति जैन ने माना कि यह साबित करने का भार अभियुक्त पर था कि उसका मामला IPC की धारा 300 के अपवादों (Exceptions) (जैसे गंभीर और अचानक उकसावे) के अंतर्गत आता है, जिसे वह “पूरी तरह विफल” रहा। उन्होंने निष्कर्ष निकाला, “यह संदेह से परे साबित होता है कि अभियुक्त ने संपत्ति हस्तांतरित करने से इनकार करने पर जानबूझकर उसकी हत्या की।”
अंतिम आदेश
(न्यायालय द्वारा) “अपील में अंतिम आदेश और उसके कारणों के संबंध में हमारे बीच असहमति है। उपरोक्त के मद्देनजर, मामले के रिकॉर्ड को Cr.P.C. की धारा 392 के तहत नामांकन के लिए माननीय मुख्य न्यायाधीश के समक्ष रखा जाए।”




