जजों पर निराधार भ्रष्टाचार के आरोप लगाने वाले याची पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने लगाया ₹2,000 का जुर्माना

न्यायपालिका को बदनाम करने की कोशिशों पर कड़ी फटकार लगाते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने एक याची को आपराधिक अवमानना का दोषी करार दिया है। इस याची ने कार्यरत न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के बेबुनियाद आरोप लगाए थे। कोर्ट ने उस पर ₹2,000 का जुर्माना लगाया है। यह फैसला 24 मार्च 2025 को अवमानना आवेदन (अपराधिक) संख्या 1202/2016, राज्य बनाम देवेंद्र कुमार दीक्षित में सुनाया गया।

जस्टिस बृज राज सिंह और जस्टिस विवेक चौधरी की डिवीजन बेंच ने लखनऊ निवासी देवेंद्र कुमार दीक्षित द्वारा दायर शिकायत पर सख्त आपत्ति जताई, जिसमें उन्होंने अपने रिट याचिका खारिज होने के पीछे जजों द्वारा रिश्वत लेने का आरोप लगाया था।

मामला: जजों के खिलाफ शिकायत

यह विवाद 30 अप्रैल 2016 को लिखे गए एक पत्र से शुरू हुआ, जिसे दीक्षित ने भारत के राष्ट्रपति को भेजा था। इसमें उन्होंने आरोप लगाया कि उनकी रिट याचिका (संख्या 7137 (एम/बी)/2016) इसलिए खारिज हुई क्योंकि जजों ने वरिष्ठ अधिवक्ता के माध्यम से घूस ली थी, और यह सब कुछ “भ्रष्ट और देशद्रोही” सरकारी अधिकारियों की मिलीभगत से हुआ।

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यह पत्र हाईकोर्ट तक पहुँचा, और तत्कालीन कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश ने इसे प्रथम दृष्टया आपत्तिजनक मानते हुए 9 जून 2016 को आपराधिक अवमानना की कार्यवाही शुरू करने की सिफारिश की। इसके बाद 19 अक्टूबर 2016 को अवमानना नोटिस जारी किया गया।

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मुख्य कानूनी मुद्दा

मामले का मूल कानूनी प्रश्न यह था कि क्या बिना किसी सबूत के, लिखित शिकायत में हाईकोर्ट के न्यायाधीशों पर लगाए गए अपमानजनक आरोप Contempt of Courts Act, 1971 की धारा 2(c)(i) के अंतर्गत आपराधिक अवमानना की श्रेणी में आते हैं?

धारा 2(c)(i) के अनुसार, कोई भी ऐसा प्रकाशन (मौखिक या लिखित) जो न्यायपालिका की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचाए या पहुँचाने की प्रवृत्ति रखे, आपराधिक अवमानना माना जाता है।

कोर्ट की टिप्पणियां और निर्णय

कोर्ट ने अपने विस्तृत फैसले में कहा:

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“शिकायत की सामग्री स्पष्ट रूप से आपराधिक अवमानना के दायरे में आती है। आरोपी ने न्यायालय की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाई है, जो न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप के समान है।”

कोर्ट ने प्रशांत भूषण मामला [(2021) 1 SCC 745] का हवाला देते हुए दोहराया कि संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के अंतर्गत न्यायसंगत आलोचना तो स्वीकार्य है, लेकिन न्यायपालिका को बदनाम करने की सोची-समझी कोशिशें बर्दाश्त नहीं की जा सकतीं।

शमशेर सिंह बेदी बनाम पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट (1996) और टी. दीन दयाल बनाम आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट (1997) जैसे मामलों का उल्लेख करते हुए कोर्ट ने पाया कि दीक्षित का पत्र पूरी तरह से बेबुनियाद था और इसका उद्देश्य सिर्फ न्यायपालिका के कामकाज पर अविश्वास फैलाना था।

कोर्ट ने यह भी दर्ज किया कि दीक्षित ने कार्यवाही के दौरान न तो माफी मांगी और न ही अपने आरोपों को वापस लिया। उलटे, उन्होंने बार-बार राष्ट्रपति भवन से कवरिंग लेटर की कॉपी की मांग की, जबकि स्वयं यह स्वीकार किया कि शिकायत उन्हीं ने भेजी थी।

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कोर्ट ने आरोपी को आपराधिक अवमानना का दोषी तो पाया, लेकिन सजा सुनाते समय नरमी बरती और कहा:

“उनकी उम्र और यह उनका पहला अपराध होने के कारण हम केवल ₹2,000 का जुर्माना लगाते हैं। यदि वे यह राशि जमा नहीं करते, तो उन्हें एक सप्ताह की साधारण कैद भुगतनी होगी।”

कोर्ट ने आदेश दिया कि यह जुर्माना एक महीने के भीतर हाईकोर्ट, लखनऊ के वरिष्ठ रजिस्ट्रार के समक्ष जमा किया जाए।

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