इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में जेलों में अपने माता-पिता के साथ रह रहे बच्चों के अधिकारों पर ध्यान केंद्रित करते हुए हत्या के आरोप में बंद एक महिला की जमानत याचिका खारिज कर दी। साथ ही ऐसे बच्चों की भलाई और शिक्षा संबंधी अधिकारों की रक्षा के लिए विस्तृत दिशा-निर्देश भी जारी किए।
यह आदेश न्यायमूर्ति अजय भनोट ने क्रिमिनल मिस. बेल एप्लिकेशन नंबर 25993 ऑफ 2024, श्रीमती रेखा बनाम राज्य उत्तर प्रदेश में पारित किया। न्यायालय ने कहा कि,
“उन बच्चों के अधिकार, जो अपने माता-पिता की जमानत याचिका खारिज होने के परिणामस्वरूप जेल में बंद हो जाते हैं, इस मामले में विचार के लिए प्रस्तुत होते हैं।”
मामला क्या है?
आवेदिका श्रीमती रेखा ने थाना मोदीनगर, गाजियाबाद में दर्ज एफआईआर में धारा 363, 302 और 201 आईपीसी के अंतर्गत जमानत मांगी थी। वह 16 अक्टूबर 2023 से न्यायिक हिरासत में हैं। अभियोजन पक्ष का आरोप है कि उन्होंने अपने नाबालिग सौतेले बच्चे की हत्या कर शव को पानी की टंकी में छिपा दिया था, जो बाद में उनकी निशानदेही पर बरामद हुआ।

आवेदिका की ओर से अधिवक्ता श्री राहुल उपाध्याय ने दलील दी कि आवेदिका की पाँच वर्षीय बेटी भी जेल में उनके साथ रह रही है, जिससे उस बच्ची के संवैधानिक और विधिक अधिकारों—विशेष रूप से संविधान के अनुच्छेद 21-ए और ‘शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009’—का उल्लंघन हो रहा है।
राज्य सरकार और न्यायालय की टिप्पणी
राज्य की ओर से अपर महाधिवक्ता श्री अशोक मेहता ने बताया कि सरकार जेलों में रह रहे बच्चों के लिए अनुकूल वातावरण सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध है और पूर्व में दिए गए निर्देशों को लागू करने की दिशा में कदम उठा रही है।
न्यायालय ने कहा कि माता-पिता के कारावास के कारण बच्चों को जो द्वितीयक नुकसान होता है, उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। न्यायालय ने कहा:
“ऐसे बच्चों के अधिकारों की उपेक्षा राज्य की विफलता और न्यायिक प्रक्रिया की अपर्याप्तता को दर्शाएगी।”
अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 15(3), 21-ए, 39(ई) और (एफ), तथा 45 का हवाला देते हुए कहा कि राज्य का कर्तव्य है कि वह ऐसे बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य और समग्र विकास सुनिश्चित करे। साथ ही, अदालत ने UN Convention on the Rights of the Child तथा अविनाश मेहरोत्रा बनाम भारत संघ, आर.डी. उपाध्याय बनाम आंध्र प्रदेश राज्य, और लक्ष्मी कांत पांडेय बनाम भारत संघ जैसे पूर्व निर्णयों का भी उल्लेख किया।
“जेल की दीवारें बच्चों के अनुच्छेद 21 के अधिकारों के प्रवाह को नहीं रोक सकतीं… राज्य को ऐसा वातावरण बनाना होगा जिससे बच्चों को संविधान के अनुच्छेद 21 और 21-ए के तहत अधिकार प्राप्त हो सकें।”
जमानत पर निर्णय
मामले के गुण-दोष के आधार पर न्यायालय ने जमानत याचिका खारिज करते हुए कहा:
“आवेदिका को उस नाबालिग सौतेले बच्चे की हत्या का मुख्य आरोपी पहचाना गया है… वर्तमान स्थिति में जमानत का कोई मामला नहीं बनता।”
हालांकि, अदालत ने निचली अदालत को यह निर्देश दिया कि CrPC की धारा 309 के अनुपालन में सुनवाई शीघ्र पूरी की जाए और एक वर्ष के भीतर ट्रायल पूर्ण किया जाए।
बच्चों के कल्याण के लिए दिशा-निर्देश
जमानत खारिज करने के बावजूद अदालत ने आवेदिका की बेटी और अन्य समान परिस्थिति वाले बच्चों की भलाई के लिए विशेष निर्देश जारी किए:
- व्यक्तिगत देखभाल योजना: जिला विधिक सेवा प्राधिकरण (गौतम बुद्ध नगर) के सचिव को जिला परिवीक्षा अधिकारी, गाजियाबाद के साथ मिलकर दो महीने के भीतर बच्ची के लिए देखभाल योजना तैयार करनी होगी।
- स्कूल में नामांकन: बच्ची का नाम जेल परिसर के बाहर किसी स्कूल में दाखिल किया जाएगा।
- अन्य कैदियों से कोई संपर्क नहीं: बच्ची को अपनी माँ के अलावा किसी अन्य कैदी से मिलने की अनुमति नहीं होगी।
- निगरानी: बाल कल्याण समिति (CWC) को देखभाल योजना के क्रियान्वयन पर नियमित रिपोर्ट देनी होगी।
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि जेल में बंद माता-पिता यदि अपने बच्चों की शिक्षा के लिए सहमति नहीं देते हैं, तो वह अस्वीकार मान्य नहीं होगा और अनुच्छेद 21-ए का उल्लंघन माना जाएगा।
संस्थागत और व्यवस्थागत निर्देश
- मुख्य सचिव, उत्तर प्रदेश को निर्देश दिया गया कि वे अंतर-विभागीय बैठकें आयोजित कर जेल में रह रहे बच्चों के लिए समग्र कल्याण कार्यक्रम बनाएं।
- जेल प्रशासन को ऐसे बच्चों को अन्य कैदियों से अलग रखने और शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं के लिए स्थानीय प्रशासन से समन्वय करने के निर्देश दिए गए।
- CWC, पुलिस, चिकित्सा अधिकारी और परिवीक्षा अधिकारी को संविधान, जेजे एक्ट और आरटीई एक्ट के तहत बच्चों के अधिकारों को लागू करने में सक्रिय भूमिका निभाने को कहा गया।
- DLSA सचिवों को कानूनी सहायता प्रदान करने और जेल में बंद माता-पिता को उनके बच्चों के अधिकारों के बारे में जागरूक करने के निर्देश दिए गए।
इस निर्णय में न्यायालय ने संविधानिक मूल्यों, अंतरराष्ट्रीय मानदंडों और विधिक प्रावधानों का संयोजन करते हुए बच्चों के हितों की रक्षा को सर्वोपरि बताया। अदालत ने स्पष्ट किया:
“बच्चे का जीवन अनुच्छेद 21 के अंतर्गत संयोगवश आई कठिन परिस्थितियों से परिभाषित नहीं होगा, बल्कि उनके जीवन का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 और 21-ए की प्रबल चेतना से निर्धारित होगा।”