इलाहाबाद हाईकोर्ट (लखनऊ बेंच) की खंडपीठ, जिसमें न्यायमूर्ति रजनीश कुमार और न्यायमूर्ति राजीव सिंह शामिल हैं, ने अपनी ही 17 वर्षीय बेटी की हत्या के दोषी पिता की आजीवन कारावास की सजा को बरकरार रखा है। अदालत ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 के तहत ‘सबूत के भार’ (Burden of Proof) के सिद्धांत और परिस्थितिजन्य साक्ष्यों (Circumstantial Evidence) को आधार बनाते हुए यह फैसला सुनाया, जबकि मुकदमे के दौरान शिकायतकर्ता (मृतका की मां) और परिवार के अन्य सदस्य अपने बयानों से मुकर गए थे।
अदालत के सामने मुख्य कानूनी सवाल यह था कि क्या चश्मदीद गवाहों के पक्षद्रोही (hostile) हो जाने पर केवल परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर आईपीसी की धारा 302 के तहत सजा दी जा सकती है। हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि जब घटना घर के अंदर हुई हो और आरोपी वहां मौजूद हो, तो घटना का स्पष्टीकरण देने की जिम्मेदारी उसी पर होती है।
बेंच ने राजू बाथम द्वारा दायर अपील को खारिज कर दिया और अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, कोर्ट नंबर 9, उन्नाव के 30 जुलाई 2016 के फैसले की पुष्टि की।
मामले की पृष्ठभूमि
अभियोजन पक्ष का मामला अपीलकर्ता राजू बाथम की पत्नी, श्रीमती संतोष कुमारी कश्यप द्वारा पुलिस स्टेशन गंगा घाट, जिला उन्नाव में दी गई लिखित शिकायत पर आधारित था।
शिकायत के अनुसार, दंपति की बेटी शिवानी कश्यप (17), जो कक्षा 12 की छात्रा थी, का स्थानीय निवासी महेश निषाद के साथ प्रेम प्रसंग था। पिता राजू बाथम इस रिश्ते के सख्त खिलाफ थे। 7 जुलाई 2015 को शिवानी ने महेश के साथ रहने की जिद की, जिस पर पिता ने उसे डांटा था।
आरोप था कि 7-8 जुलाई की दरमियानी रात करीब 1:00 से 2:00 बजे के बीच, जब शिवानी सो रही थी, तब राजू बाथम ने एक कपड़े के नाड़े से उसका गला घोंट दिया। बेटी की चीख सुनकर मां कमरे में पहुंची और पति को गला घोंटते हुए देखा। मां के टोकने पर आरोपी मौके से भाग गया। बाद में शिवानी को जिला अस्पताल ले जाया गया, जहां उसे मृत घोषित कर दिया गया।
पुलिस ने आईपीसी की धारा 302 के तहत एफआईआर दर्ज की और आरोपी की निशानदेही पर हत्या में प्रयुक्त नाड़ा बरामद किया। हालांकि, ट्रायल के दौरान मां (P.W.-1), भाई (P.W.-4) और भाभी (P.W.-5) अभियोजन पक्ष की कहानी से मुकर गए।
पक्षों की दलीलें
अपीलकर्ता का पक्ष: अपीलकर्ता के वकील श्री अनुराग सिंह चौहान ने तर्क दिया कि ट्रायल कोर्ट का फैसला केवल अटकलों पर आधारित है। उन्होंने जोर देकर कहा कि मुख्य गवाह (परिवार के सदस्य) अपने बयानों से मुकर चुके हैं। बचाव पक्ष का कहना था कि पिता के पास अपनी ही बेटी की हत्या करने का कोई उद्देश्य (Motive) नहीं था और अभियोजन पक्ष अपना मामला उचित संदेह से परे साबित करने में विफल रहा है।
राज्य का पक्ष: सरकारी वकील ने तर्क दिया कि भले ही परिवार के सदस्य गवाही से पलट गए हों, लेकिन मेडिकल रिपोर्ट और अन्य परिस्थितियां स्पष्ट रूप से अपीलकर्ता की ओर इशारा करती हैं। यह स्वीकार किया गया तथ्य है कि घटना के समय अपीलकर्ता घर पर ही मौजूद था। इसलिए, साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 के तहत, यह बताने की जिम्मेदारी उसी की है कि घर के अंदर उसकी बेटी की मौत कैसे हुई, जिसे वह समझाने में विफल रहा।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियां
1. गवाहों का मुकरना और शिकायत की पुष्टि: हाईकोर्ट ने पाया कि भले ही शिकायतकर्ता (मां) ने कोर्ट में एफआईआर दर्ज कराने से इनकार कर दिया, लेकिन अभियोजन पक्ष ने लेखक (P.W.-3 रोहित सिंह) के माध्यम से लिखित शिकायत को साबित कर दिया। P.W.-3 ने गवाही दी कि उसने महिला के कहने पर ही शिकायत लिखी थी और महिला ने उस पर हस्ताक्षर किए थे।
2. मेडिकल साक्ष्य और बरामदगी: पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मौत का कारण “गला घोंटने से दम घुटना” (Asphyxia due to ante mortem strangulation) बताया गया। डॉक्टर (P.W.-7) ने स्पष्ट किया कि गर्दन पर मिले निशान खुद से नहीं लगाए जा सकते थे। इसके अलावा, पुलिस ने आरोपी की निशानदेही पर हत्या में इस्तेमाल किया गया नाड़ा बरामद किया था, जिसे साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के तहत मान्य माना गया।
3. साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 का प्रयोग: अदालत ने इस तथ्य को अत्यंत महत्वपूर्ण माना कि हत्या के समय अपीलकर्ता घर में ही मौजूद था। सीआरपीसी की धारा 313 के तहत अपने बयान में, अपीलकर्ता ने स्वीकार किया कि वह घर पर सो रहा था, लेकिन उसने अनभिज्ञता जाहिर की कि उसकी बेटी की मौत कैसे हुई।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले मध्य प्रदेश राज्य बनाम बलवीर सिंह (2025) का हवाला देते हुए, हाईकोर्ट ने कहा कि जब अभियोजन पक्ष ऐसे तथ्यों को साबित कर देता है जिनसे आरोपी के दोषी होने का उचित निष्कर्ष निकलता है, तो धारा 106 लागू होती है।
अदालत ने कहा:
“इस प्रकार, अपीलकर्ता द्वारा अपनी बेटी की हत्या किए जाने से संबंधित सभी प्रासंगिक तथ्य साबित हो चुके हैं और, जैसा कि स्वीकार किया गया है, वह अपनी बेटी की मृत्यु के समय घर में ही था। इसलिए, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 106 के तहत यह साबित करने का भार उसी पर था कि उसकी बेटी की मृत्यु कैसे हुई, जिसे वह साबित करने में विफल रहा।”
4. आरोपी का आचरण: अदालत ने आरोपी के व्यवहार को भी संदिग्ध माना। आरोपी ने दावा किया कि पुलिस ने उसे जगाकर मौत की सूचना दी। इस पर कोर्ट ने सवाल उठाया कि अगर वह घर पर था, तो पुलिस को सूचना किसने दी? जबकि रिकॉर्ड के अनुसार मां ने ही पुलिस को सूचना दी थी। इसके अलावा, पंचनामा (inquest) के दौरान आरोपी की अनुपस्थिति ने भी उसकी संलिप्तता की ओर इशारा किया, क्योंकि एफआईआर के अनुसार वह घटना के बाद भाग गया था।
निर्णय
हाईकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि परिस्थितियों की कड़ी पूरी तरह से अपीलकर्ता के दोषी होने की ओर इशारा करती है। गवाहों के मुकरने के बावजूद, अभियोजन पक्ष ने मामले को संदेह से परे साबित कर दिया है।
न्यायमूर्ति रजनीश कुमार ने फैसला लिखते हुए कहा:
“यह न्यायालय इस विचार का है कि विद्वान विचारण न्यायालय (Trial Court) ने सही और कानून के अनुसार यह माना है कि अभियोजन पक्ष ने आरोपी के खिलाफ धारा 302 आईपीसी के अपराध को उचित संदेह से परे साबित कर दिया है।”
तदनुसार, क्रिमिनल अपील संख्या 1434 ऑफ 2016 को खारिज कर दिया गया और आजीवन कारावास की सजा की पुष्टि की गई।
केस विवरण
- केस का नाम: राजू बाथम बनाम उत्तर प्रदेश राज्य
- केस नंबर: क्रिमिनल अपील संख्या 1434 ऑफ 2016
- कोरम: न्यायमूर्ति रजनीश कुमार और न्यायमूर्ति राजीव सिंह
- अपीलकर्ता के वकील: श्री अनुराग सिंह चौहान, सुश्री शमीम जहां
- राज्य के वकील: सरकारी अधिवक्ता




