इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राज्य कर विभाग की 405 दिनों की देरी को माफ करने से किया इनकार, ‘पूर्ण उपेक्षा और सुस्ती’ पर जताई कड़ी नाराजगी

इलाहाबाद हाईकोर्ट (लखनऊ खंडपीठ) ने राज्य कर विभाग (State Tax Department) द्वारा दायर एक पुनरीक्षण याचिका (Revision Petition) को खारिज कर दिया है। न्यायालय ने याचिका दाखिल करने में हुई 405 दिनों की देरी को माफ करने से इनकार करते हुए कहा कि राज्य तंत्र ने “पूर्ण उपेक्षा और सुस्ती” (Complete neglect and lethargy) का प्रदर्शन किया है और देरी के लिए कोई पर्याप्त स्पष्टीकरण देने में विफल रहा है।

न्यायमूर्ति जसप्रीत सिंह की पीठ ने यह निर्णय सुनाते हुए स्पष्ट किया कि केवल सरकारी विभाग होने के नाते देरी के मामलों में विशेष रियायत की उम्मीद नहीं की जा सकती।

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला वित्तीय वर्ष 2014-15 से संबंधित है। कमिश्नर, राज्य कर, लखनऊ ने वाणिज्यिक कर अधिकरण (Commercial Tax Tribunal), लखनऊ बेंच-III के दिनांक 28 मार्च, 2023 के आदेश के खिलाफ यूपी ट्रेड टैक्स एक्ट, 1948 की धारा 11(1) के तहत यह पुनरीक्षण याचिका दायर की थी।

चूंकि याचिका निर्धारित समय सीमा के बाद दायर की गई थी, इसलिए इसमें 405 दिनों की देरी थी। विभाग ने इस देरी को माफ करने के लिए धारा 5 परिसीमा अधिनियम (Limitation Act) के तहत एक आवेदन (IA No. 1/2024) प्रस्तुत किया था।

पक्षों की दलीलें

याची (राज्य) का पक्ष: राज्य की ओर से उपस्थित विद्वान अपर मुख्य स्थायी अधिवक्ता ने तर्क दिया कि देरी जानबूझकर नहीं हुई थी बल्कि यह एक वास्तविक (bonafide) देरी थी। उन्होंने दलील दी कि सरकारी मशीनरी एक “अवैयक्तिक तंत्र” (impersonal mechanism) के माध्यम से काम करती है, जिसमें विभिन्न स्तरों पर अनुमोदन की आवश्यकता होती है, जिससे स्वाभाविक रूप से समय लगता है।

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उन्होंने न्यायालय से आग्रह किया कि “पर्याप्त कारण” (sufficient cause) की व्याख्या उदारतापूर्वक की जानी चाहिए ताकि मामले का निस्तारण गुण-दोष के आधार पर हो सके। इसके लिए उन्होंने ईशा भट्टाचार्जी बनाम मैनेजिंग कमेटी ऑफ रघुनाथपुर नफर एकेडमी (2013) के मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का हवाला दिया।

प्रतिवादी का पक्ष: प्रतिवादी मेसर्स श्री शीतलदास एंटरप्राइजेज की ओर से विद्वान अधिवक्ता सुश्री श्रेया अग्रवाल ने देरी माफी अर्जी का कड़ा विरोध किया। उन्होंने तर्क दिया कि विभाग ने देरी का स्पष्टीकरण बहुत ही “लापरवाह तरीके” से दिया है और हलफनामे में बिना किसी ठोस विवरण के अस्पष्ट दावे किए गए हैं।

उन्होंने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा शिवम्मा (मृत) बनाम कर्नाटक हाउसिंग बोर्ड (2025) में दिए गए निर्णय और इलाहाबाद हाईकोर्ट की खंडपीठ द्वारा उत्तर प्रदेश राज्य बनाम श्याम काली बालिका विद्यालय के मामले में दिए गए आदेश का हवाला देते हुए कहा कि राज्य सरकार को अपनी लेटलतीफी के लिए कानून में किसी अतिरिक्त छूट का लाभ नहीं मिलना चाहिए।

न्यायालय का विश्लेषण और टिप्पणियाँ

न्यायमूर्ति जसप्रीत सिंह ने राज्य द्वारा दाखिल हलफनामे की बारीकी से जांच की और पाया कि इसमें विशिष्ट विवरणों का भारी अभाव था। न्यायालय ने कहा कि हलफनामे में यह भी नहीं बताया गया कि 28 मार्च, 2023 का मूल आदेश विभाग को पहली बार कब प्राप्त हुआ।

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न्यायालय ने रिकॉर्ड पर गौर करते हुए कहा:

“यह महत्वपूर्ण है कि देरी माफी के आवेदन के समर्थन में दायर शुरुआती हलफनामे में… दावों की पुष्टि के लिए कोई विवरण या दस्तावेज रिकॉर्ड पर नहीं लाया गया है।”

न्यायालय ने नोट किया कि यूपी ट्रेड टैक्स एक्ट के तहत पुनरीक्षण याचिका दायर करने की समय सीमा 90 दिन है, जो जून 2023 में ही समाप्त हो गई थी। जबकि विभाग के हलफनामे के अनुसार, मामले को विधिक राय (legal opinion) के लिए अगस्त 2023 में भेजा गया, यानी समय सीमा समाप्त होने के काफी बाद।

न्यायालय ने पोस्टमास्टर जनरल बनाम लिविंग मीडिया इंडिया लिमिटेड (2012) के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा जताया, जिसमें यह स्थापित किया गया था कि सरकारी विभाग अपनी “अवैयक्तिक मशीनरी” या नौकरशाही प्रक्रियाओं का बहाना बनाकर अत्यधिक देरी को उचित नहीं ठहरा सकते।

इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट के हालिया शिवम्मा (2025) फैसले का उल्लेख करते हुए, हाईकोर्ट ने दोहराया कि “प्रशासनिक सुस्ती और ढिलाई कभी भी देरी माफी के लिए पर्याप्त आधार नहीं हो सकती।” न्यायालय ने जोर देकर कहा कि संवैधानिक अदालतों को “राज्य की ढिलाई और सुस्ती का सरोगेट (स्थानापन्न)” नहीं बनना चाहिए।

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राज्य के प्रत्युत्तर हलफनामे (Rejoinder Affidavit) पर टिप्पणी करते हुए कोर्ट ने कहा कि यद्यपि इसमें 19 अप्रैल, 2023 को आदेश प्राप्त होने का उल्लेख किया गया है, लेकिन फिर भी यह स्पष्ट नहीं किया गया कि अनुमति कब मांगी गई और कब प्राप्त हुई।

न्यायालय ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा:

“राज्य की ओर से पूर्ण उपेक्षा और सुस्ती (complete neglect and lethargy) बरती गई है। भले ही उदार दृष्टिकोण अपनाया जाए, लेकिन जिस तरीके से देरी को समझाया गया है, वह केवल दुर्भावना को बढ़ाता है और कोई वास्तविक स्पष्टीकरण प्रतीत नहीं होता है।”

निर्णय

हाईकोर्ट ने यह निष्कर्ष निकाला कि हलफनामे में दिया गया स्पष्टीकरण पर्याप्त नहीं है और 405 दिनों की भारी देरी को उचित नहीं ठहराया जा सकता। न्यायालय ने इस सिद्धांत को लागू किया कि देरी को माफ करना एक अपवाद है, न कि सरकारी विभागों के लिए कोई अधिकार।

परिणामस्वरूप, न्यायालय ने देरी माफी का आवेदन खारिज कर दिया, जिसके चलते मुख्य पुनरीक्षण याचिका भी खारिज हो गई।

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