इलाहाबाद हाईकोर्ट ने परिवीक्षाधीन न्यायिक अधिकारियों की सेवा समाप्ति को रद्द किया

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने परिवीक्षाधीन न्यायिक अधिकारियों के एक समूह के पक्ष में फैसला सुनाया, जिनकी सेवाएं समाप्त कर दी गई थीं। कोर्ट ने माना कि यह केवल एक साधारण सेवा समाप्ति नहीं थी, बल्कि इसमें कलंककारी प्रभाव था, जिससे उचित प्रक्रियात्मक सुरक्षा की आवश्यकता थी।

यह निर्णय न्यायमूर्ति जसप्रीत सिंह, न्यायमूर्ति मनीष माथुर और न्यायमूर्ति सुभाष विद्यार्थी की खंडपीठ ने दिया। फैसले में यह स्पष्ट किया गया कि अनुच्छेद 14 के तहत न्यायिक परिवीक्षाधीन अधिकारियों को भी अन्य सार्वजनिक सेवकों की तरह निष्पक्ष व्यवहार का अधिकार प्राप्त है

मामले की पृष्ठभूमि

याचिकाकर्ता, जो परिवीक्षाधीन न्यायिक अधिकारी (Probationary Judicial Officers) थे, इलाहाबाद हाईकोर्ट की फुल कोर्ट के प्रशासनिक निर्णय द्वारा सेवा से बर्खास्त कर दिए गए थे। यह आदेश उत्तर प्रदेश न्यायिक सेवा नियम, 2001 की धारा 24(4) के तहत पारित किया गया था।

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हालांकि, सेवा समाप्ति को केवल एक “साधारण समाप्ति” (termination simpliciter) बताया गया था, लेकिन यह एक निजी समारोह में कथित झगड़े की जांच के बाद लिया गया निर्णय था।

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कानूनी मुद्दे

  1. समाप्ति की प्रकृति:
    क्या सेवा समाप्ति केवल अनुपयुक्तता (unsuitability) के आधार पर थी, या यह दंडात्मक कार्रवाई (Punitive Termination) थी?
  2. अनुच्छेद 311(2) की प्रयोज्यता:
    याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि चूंकि सेवा समाप्ति में दुर्व्यवहार के आरोप निहित थे, इसलिए उन्हें अनुच्छेद 311(2) के तहत सुनवाई और जांच का अधिकार मिलना चाहिए था
  3. न्यायिक समीक्षा का दायरा:
    कोर्ट को यह तय करना था कि क्या फुल कोर्ट के निर्णय की समीक्षा की जा सकती है, क्योंकि प्रशासनिक निर्णयों की न्यायिक समीक्षा सीमित होती है।

कोर्ट का निर्णय और प्रमुख टिप्पणियाँ

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने विस्तृत निर्णय में माना कि परिवीक्षाधीन अधिकारियों की सेवा समाप्ति केवल साधारण नहीं थी, बल्कि इसमें दंडात्मक तत्व निहित था। कोर्ट ने कहा:

“यह न्यायालय अपने कर्तव्य में विफल रहेगा यदि सेवा समाप्ति के आदेश के पीछे की वास्तविक वजह की जांच न की जाए, सिर्फ इस सामान्य सिद्धांत के आधार पर कि न्यायाधीशों का आचरण आदर्श होना चाहिए। अनुच्छेद 14 के तहत व्यक्तियों को मनमानी से सुरक्षा का अधिकार समान रूप से न्यायाधीशों पर भी लागू होता है।”

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मुख्य निष्कर्ष

✔️ सेवा समाप्ति आदेशों में दुर्व्यवहार का स्पष्ट उल्लेख नहीं था, लेकिन प्रशासनिक रिकॉर्ड और जांच रिपोर्ट में गंभीर आरोप थे, जो अधिकारियों की ईमानदारी और उपयुक्तता पर संदेह उत्पन्न करते हैं।

✔️ कोई औपचारिक अनुशासनात्मक जांच नहीं हुई, न ही अधिकारियों के कार्य प्रदर्शन का कोई आकलन किया गया। केवल एक निजी समारोह में हुए झगड़े के आधार पर सेवा समाप्ति का आदेश दिया गया।

✔️ फुल कोर्ट का निर्णय 12 सितंबर 2014 की जांच रिपोर्ट पर आधारित था, लेकिन इसमें किसी भी अधिकारी की व्यक्तिगत जिम्मेदारी या कदाचार की पुष्टि नहीं की गई थी

✔️ सेवा समाप्ति का कारण न्यायिक कार्यकुशलता नहीं था, बल्कि एक व्यक्तिगत घटना थी, जो दंडात्मक सेवा समाप्ति (Punitive Termination) को दर्शाता है।

महत्वपूर्ण विधायी संदर्भ

कोर्ट ने कई सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का हवाला दिया, जिसमें स्पष्ट किया गया है कि यदि सेवा समाप्ति किसी दुर्व्यवहार के आरोप पर आधारित होती है, भले ही आदेश में इसका उल्लेख न किया गया हो, तो इसे दंडात्मक कार्रवाई माना जाएगा और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन आवश्यक होगा।

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✔️ प्रशासनिक निर्णयों में “आवरण उठाने” (Lifting the Veil) की आवश्यकता तब होती है, जब सेवा समाप्ति का आदेश प्रतीत तो सामान्य होता है, लेकिन वास्तव में दंडात्मक होता है।

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सेवा समाप्ति के आदेश को रद्द कर दिया और माना कि परिवीक्षाधीन न्यायिक अधिकारियों के साथ प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार किया जाना चाहिए।

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