इलाहाबाद हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया है कि यदि सुप्रीम कोर्ट किसी पुराने निर्णय (नजीर) को भविष्य में पलट भी देता है, तो भी उस पुराने निर्णय के आधार पर पक्षकारों के बीच पहले ही तय हो चुके मुकदमे और पारित अंतिम आदेश अमान्य नहीं होते। न्यायमूर्ति सलिल कुमार राय की पीठ ने कहा कि राज्य के अधिकारी 2016 के उस आदेश का पालन करने के लिए बाध्य हैं, जिसमें भूमि अधिग्रहण की कार्यवाही को व्यपगत (lapsed) घोषित किया गया था। कोर्ट ने कहा कि भले ही जिस पुणे म्युनिसिपल कॉरपोरेशन केस के आधार पर वह आदेश दिया गया था, उसे बाद में सुप्रीम कोर्ट ने पलट दिया हो, लेकिन इसका असर पहले से तय मामलों पर नहीं पड़ेगा।
कोर्ट ने उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव सहित शीर्ष अधिकारियों को चेतावनी दी है कि यदि एक महीने के भीतर आदेश का पालन नहीं किया गया, तो उन पर आरोप तय (framing of charges) करने की कार्यवाही की जाएगी।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला विनय कुमार सिंह द्वारा दायर एक अवमानना याचिका से जुड़ा है। याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया था कि हाईकोर्ट द्वारा रिट याचिका संख्या 62677/2015 में 27 जुलाई 2016 को पारित आदेश का अनुपालन नहीं किया जा रहा है। याचिकाकर्ता प्रयागराज (तब इलाहाबाद) के भैरोपुर गांव में स्थित भूखंड संख्या 240, 242M, 243 और 245 का सह-हि हिस्सेदार है। इन जमीनों के अधिग्रहण के लिए 1894 के अधिनियम के तहत 1977 में अधिसूचना जारी की गई थी। याचिकाकर्ता का तर्क था कि उन्हें कभी मुआवजा नहीं दिया गया और भौतिक कब्जा भी उन्हीं के पास रहा।
2016 में, हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के पुणे म्युनिसिपल कॉरपोरेशन बनाम हरकचंद मिसिरिमल सोलंकी (2014) के फैसले का हवाला देते हुए रिट याचिका स्वीकार कर ली थी। कोर्ट ने माना था कि चूंकि मुआवजा केवल “राजस्व जमा” (revenue deposit) में रखा गया था और कोर्ट में जमा नहीं किया गया था, इसलिए ‘भूमि अर्जन, पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता अधिकार अधिनियम, 2013’ की धारा 24(2) के तहत अधिग्रहण की कार्यवाही समाप्त (lapsed) हो गई है।
राज्य सरकार ने इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी (विशेष अनुमति याचिका संख्या 7116/2017), लेकिन 12 सितंबर 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया था। इसके बावजूद जमीन को मुक्त नहीं किया गया, जिसके बाद यह अवमानना याचिका दायर की गई।
पक्षकारों की दलीलें
राज्य के अधिकारियों की ओर से पेश अपर महाधिवक्ता ने तर्क दिया कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने इंदौर डेवलपमेंट अथॉरिटी बनाम मनोहरलाल (2020) मामले में पुणे म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के फैसले को पलट दिया है। उनका कहना था कि मनोहरलाल केस में यह स्पष्ट किया गया है कि मुआवजे को कोर्ट में जमा न करने से अधिग्रहण कार्यवाही रद्द नहीं होती।
प्रतिवादियों ने दलील दी कि 2016 का आदेश “आवश्यक निहितार्थ (necessary implication) द्वारा खारिज” माना जाना चाहिए क्योंकि उसका कानूनी आधार ही समाप्त हो चुका है। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 141 और 144 का हवाला देते हुए कहा कि वे मनोहरलाल केस में स्थापित कानून का पालन करने के लिए बाध्य हैं, जिससे “न्यायिक अस्पष्टता” (judicial ambiguity) की स्थिति पैदा हो गई है। बचाव में एनसीटी दिल्ली बनाम बीएसके रियलटर्स एलएलपी (2024) और डीडीए बनाम तेजपाल (2024) के निर्णयों का भी उल्लेख किया गया।
दूसरी ओर, याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि जब 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने राज्य की अपील खारिज कर दी थी, तो 2016 का आदेश अंतिम हो गया था। मनोहरलाल का फैसला केवल पुणे म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के नजीर मूल्य (precedential value) को समाप्त करता है, लेकिन यह उन मुकदमों को दोबारा नहीं खोल सकता जो पहले ही निपटाए जा चुके हैं। याचिकाकर्ता ने इसे अधिकारियों द्वारा “जानबूझकर की गई अवज्ञा” करार दिया।
कोर्ट का विश्लेषण
न्यायमूर्ति सलिल कुमार राय ने राज्य की दलीलों को खारिज करते हुए “न्यायिक अस्पष्टता” के तर्क को कृत्रिम और भ्रामक बताया। कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के हालिया निर्णयों (तेजपाल और के.एल. राठी स्टील्स, 2024) का सहारा लिया।
हाईकोर्ट ने स्थिति स्पष्ट करते हुए कहा:
“जब किसी निर्णय (नजीर) को बाद में पलट दिया जाता है, तो केवल एक मिसाल के रूप में उसकी बाध्यकारी प्रकृति समाप्त होती है, लेकिन उस पलटे गए निर्णय के आधार पर पक्षकारों के बीच पहले ही तय हो चुका विवाद (lis) अंतिम ही रहता है। इसके अलावा, किसी कोर्ट का आदेश या डिक्री, भले ही वह गलत हो, पक्षकारों पर तब तक बाध्यकारी रहती है जब तक कि उसे अपीलीय अदालत या कानून में प्रदान किए गए अन्य उपायों के माध्यम से रद्द न कर दिया जाए।”
कोर्ट ने जोर देकर कहा कि मनोहरलाल का फैसला उन कार्यवाहियों को पूर्वव्यापी प्रभाव से (retrospectively) नहीं खोलता जहां विवाद अंतिम रूप ले चुका है। चूंकि 2016 के आदेश के खिलाफ अपील खारिज हो चुकी थी और कोई पुनर्विचार याचिका दायर नहीं थी, इसलिए यह मामला अंतिम था।
कोर्ट ने अधिकारियों की इस दलील की भी आलोचना की कि सिंचाई विभाग और शहरी विकास विभाग के बीच जिम्मेदारी को लेकर विवाद है। कोर्ट ने कहा कि “राज्य सरकार के विभिन्न विभागों के बीच कार्य का वितरण इस कोर्ट के आदेश का पालन न करने का बहाना नहीं हो सकता।”
निर्णय
हाईकोर्ट ने माना कि राज्य के प्रतिवादियों द्वारा 27 जुलाई 2016 के आदेश का पालन न करना “जानबूझकर की गई अवज्ञा” (willful disobedience) की श्रेणी में आता है। कोर्ट ने टिप्पणी की:
“जाहिर तौर पर, प्रतिवादियों द्वारा इस न्यायालय के आदेश का अनुपालन न करना सद्भावनापूर्ण (bona-fide) नहीं है। यह अनुपालन जानबूझकर, सचेत रूप से और परिणामों की पूरी जानकारी के साथ नहीं किया गया है।”
हालांकि, परिस्थितियों को देखते हुए कोर्ट ने अधिकारियों को तत्काल दंडित करने के बजाय अनुपालन का एक और अवसर दिया। उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव, सिंचाई और शहरी विकास विभाग के अपर मुख्य सचिवों और जिलाधिकारी, प्रयागराज को आदेश का पालन करने के लिए एक महीने का अतिरिक्त समय दिया गया है।
कोर्ट ने निर्देश दिया है कि अगली तारीख पर अधिकारी या तो पूर्ण अनुपालन का हलफनामा दाखिल करें या आरोप तय (framing of charges) करने की कार्यवाही के लिए व्यक्तिगत रूप से कोर्ट में उपस्थित हों।
केस विवरण:
- केस शीर्षक: विनय कुमार सिंह बनाम सुरेश चंद्रा, प्रमुख सचिव सिंचाई विभाग व 4 अन्य
- केस संख्या: अवमानना आवेदन (सिविल) संख्या 2555, वर्ष 2017
- पीठ: न्यायमूर्ति सलिल कुमार राय

