इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने 11 अप्रैल 2025 को दिए गए एक निर्णय में जोधन उर्फ जीवधन को हत्या के एक मामले में दोषमुक्त कर दिया, जिन्हें आईपीसी की धारा 302 के तहत कन्हैया लाल की हत्या के आरोप में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। न्यायमूर्ति संगीता चंद्रा और न्यायमूर्ति अजय कुमार श्रीवास्तव-I की खंडपीठ ने पाया कि अभियोजन पक्ष की चश्मदीद गवाहियों पर भरोसा नहीं किया जा सकता और निचली अदालत ने साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के तहत आवश्यक विधिक मापदंडों का पालन किए बिना हथियार की बरामदगी को आधार बनाकर गलती की।
मामला:
प्रकरण के अनुसार, 29 मई 1998 को कन्हैया लाल पर जोधन उर्फ जीवधन ने कथित तौर पर कुदाल से हमला कर उनकी हत्या कर दी, जबकि सह-आरोपी भुलाई कुर्मी (जो मृतक का भाई था) कुल्हाड़ी से लैस होकर घटना के लिए उकसाया। अभियोजन ने आरोप लगाया कि भुलाई कुर्मी को संदेह था कि कन्हैया लाल का उसकी पत्नी श्रीमती रानी से अवैध संबंध था। एफआईआर ग्राम प्रधान अम्बिका प्रसाद द्वारा दर्ज कराई गई, जिन्होंने खुद को घटनास्थल पर उपस्थित बताया।
निचली अदालत ने 4 अक्टूबर 2002 को आरोपी को दोषी ठहराया था, मुख्य रूप से चश्मदीद गवाहों की गवाही और उसके कब्जे से कुदाल की बरामदगी के आधार पर।
अपीलकर्ता की ओर से तर्क:
अमाइकस क्यूरी श्री नदीम मुर्तज़ा ने अपीलकर्ता की ओर से निम्न तर्क रखे:
- गवाहियों में विरोधाभास हैं और वे भरोसेमंद नहीं हैं।
- अवैध संबंध का मूल उद्देश्य असिद्ध रहा, क्योंकि एफआईआर में जिन श्रीमती रानी का नाम गवाह के रूप में था, उन्हें अभियोजन ने पेश ही नहीं किया। जब उन्हें बचाव पक्ष ने DW-1 के रूप में प्रस्तुत किया, तो उन्होंने घटनास्थल पर मौजूद होने से इनकार किया।
- पीडब्ल्यू-2 हरिद्वार (मृतक के भाई) का नाम एफआईआर में नहीं था, जिससे उनकी गवाही पर संदेह उत्पन्न होता है।
- कुदाल की बरामदगी के संबंध में साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के तहत कोई स्वीकृति बयान दर्ज नहीं किया गया, फिर भी निचली अदालत ने उसे आधार बनाया।
- इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट का फैसला Boby बनाम केरल राज्य, (2023) 15 SCC 760 प्रस्तुत किया गया, जिसमें कहा गया है कि धारा 27 के तहत विधिवत बयान के बिना की गई बरामदगी अप्रासंगिक है।
राज्य सरकार ने अपील का विरोध करते हुए कहा कि आरोपी का नाम स्पष्ट रूप से एफआईआर में था और अभियोजन पक्ष की गवाहियाँ संगत थीं।
अदालत की विवेचना:
अदालत ने अभियोजन पक्ष की कहानी में कई गंभीर खामियां पाईं:
- पीडब्ल्यू-2 हरिद्वार का नाम एफआईआर में न होना और फिर मुख्य गवाह बनना उनकी विश्वसनीयता पर संदेह उत्पन्न करता है।
- पीडब्ल्यू-3 लल्लन ने कहा कि जब अम्बिका प्रसाद और हरिद्वार घटनास्थल पर पहुंचे, तब तक हमलावर भाग चुके थे और कन्हैया लाल मर चुके थे – यह कथन हरिद्वार द्वारा घटना देखने के दावे का खंडन करता है।
- श्रीमती रानी द्वारा घटनास्थल पर मौजूद न होने और किसी प्रकार के अवैध संबंध से इनकार करने से अभियोजन की कथित मंशा ही समाप्त हो जाती है।
- कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि “गवाहों की संख्या नहीं, गुणवत्ता महत्वपूर्ण है” और कहा कि प्रस्तुत सभी गवाह ‘स्टर्लिंग गवाह’ की कसौटी पर खरे नहीं उतरते, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने Rai Sandeep @ Deepu बनाम दिल्ली राज्य, (2012) 8 SCC 21 में बताया था।
- अदालत ने यह भी कहा कि धारा 27 के अनुपालन के बिना केवल बरामदगी को दोष सिद्धि का आधार नहीं बनाया जा सकता, जैसा कि Boby (उपरोक्त) निर्णय में स्पष्ट किया गया है।
निर्णय:
हाईकोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए, निचली अदालत का दिनांक 04.10.2002 का दोषसिद्धि व सजा आदेश निरस्त कर दिया और अपीलकर्ता को सभी आरोपों से दोषमुक्त कर दिया। चूंकि अपीलकर्ता पहले ही रिहा हो चुका है, इसलिए कोर्ट ने कहा कि उसे किसी अन्य मामले में आवश्यकता न होने तक आत्मसमर्पण करने की जरूरत नहीं है। साथ ही, उसे धारा 437-A सीआरपीसी के तहत छह सप्ताह के भीतर बंधपत्र व जमानती प्रस्तुत करने का निर्देश दिया गया।
कोर्ट ने अमाइकस क्यूरी श्री नदीम मुर्तज़ा की सहायता की सराहना की और उन्हें ₹15,000 का पारिश्रमिक भुगतान किए जाने का निर्देश दिया।
मामले का शीर्षक:
Jodhhan @ Jeevdhan बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, आपराधिक अपील संख्या 1615/2002