निजी अस्पतालों में मुफ्त OPD/IPD सेवाओं को अनिवार्य करने की याचिका इलाहाबाद हाईकोर्ट ने खारिज की, कहा– यह ‘फिशिंग इंक्वायरी’ है

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 7 अक्टूबर, 2025 को उस जनहित याचिका (PIL) को खारिज कर दिया, जिसमें ग्रेटर नोएडा और उत्तर प्रदेश के सभी निजी अस्पतालों को मुफ्त सेवाएं प्रदान करने का निर्देश देने की मांग की गई थी। मुख्य न्यायाधीश अरुण भंसाली और न्यायमूर्ति क्षितिज शैलेंद्र की खंडपीठ ने फैसला सुनाया कि जनहित याचिका का इस्तेमाल “फिशिंग इंक्वायरी” (सबूत खोजने के इरादे से जांच) के लिए नहीं किया जा सकता और यह धारणाओं पर नहीं, बल्कि ठोस सबूतों पर आधारित होनी चाहिए।

यह फैसला अश्वनी गोयल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य व 5 अन्य (जनहित याचिका (PIL) संख्या 3149/2025) मामले में सुनाया गया।

मामले की पृष्ठभूमि

याचिकाकर्ता अश्वनी गोयल ने यह जनहित याचिका दायर कर उत्तरदाताओं को यह सुनिश्चित करने का निर्देश देने की मांग की थी कि ग्रेटर नोएडा और उत्तर प्रदेश के सभी निजी अस्पताल 25% बाह्य रोगी विभाग (OPD) और 10% आंतर रोगी विभाग (IPD) सेवाएं मुफ्त प्रदान करें।

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न्यायालय ने पाया कि याचिकाकर्ता द्वारा इसी मांग के साथ यह दूसरा प्रयास था। इससे पहले 16 सितंबर, 2025 को एक याचिका खारिज कर दी गई थी, क्योंकि अदालत ने “याचिकाकर्ता की प्रामाणिकता और साख के संबंध में” असंतोष व्यक्त किया था।

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पक्षकारों की दलीलें

याचिकाकर्ता का प्रतिनिधित्व अधिवक्ता अभिनव कृष्ण श्रीवास्तव और सिद्धार्थ कृष्ण बख्शी ने किया। वहीं, प्रतिवादियों का प्रतिनिधित्व मुख्य स्थायी वकील (C.S.C.) और अधिवक्ता आकांक्षा शर्मा, अंजलि उपाध्या, प्रांजल मेहरोत्रा और राजेश कुमार सिंह ने किया।

याचिकाकर्ता के वकील ने दिल्ली हाईकोर्ट के सोशल ज्यूरिस्ट्स, ए लॉयर्स ग्रुप बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार व अन्य मामले में दिए गए एक आदेश पर अपनी दलीलें आधारित करने का प्रयास किया। उन्होंने तर्क दिया कि उस मामले में मुफ्त इलाज के लिए इसी तरह का निर्देश जारी किया गया था।

हालांकि, याचिकाकर्ता के वकील ने स्वीकार किया कि उनके पास संबंधित अस्पतालों के आवंटन पत्र नहीं थे, जिनमें ऐसी कोई शर्त शामिल हो सकती थी। उन्होंने अदालत को बताया कि उन्होंने सूचना का अधिकार (RTI) अधिनियम के तहत इन दस्तावेजों को प्राप्त करने का प्रयास किया था, लेकिन वे अभी तक उपलब्ध नहीं हुए हैं।

न्यायालय का विश्लेषण और टिप्पणियां

पीठ ने अपने विश्लेषण की शुरुआत यह कहते हुए की, “याचिका के अवलोकन से पता चलता है कि उक्त राहत का दावा करने के लिए याचिका में कोई आधार नहीं बताया गया है।”

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अदालत ने याचिकाकर्ता द्वारा उद्धृत दिल्ली हाईकोर्ट के मामले को वर्तमान मामले से अलग पाया। अदालत ने कहा कि सोशल ज्यूरिस्ट्स मामले में, मुफ्त इलाज की आवश्यकता “निजी अस्पताल को दिए गए आवंटन पत्रों में उल्लिखित थी।” इसके विपरीत, अदालत ने बताया कि “वर्तमान याचिका में ऐसा कोई संकेत उपलब्ध नहीं है।”

लंबित आरटीआई आवेदन के संबंध में याचिकाकर्ता की दलील पर हाईकोर्ट ने स्पष्ट रुख अपनाया। अदालत ने कहा कि यदि याचिकाकर्ता का आवेदन लंबित है या खारिज कर दिया गया है, तो उसे पहले आरटीआई अधिनियम के तहत उपलब्ध उपायों का पालन करना चाहिए। फैसले में इस बात की पुष्टि की गई कि किसी भी दावे के लिए आवश्यक सहायक दस्तावेज प्राप्त करने के बाद ही वाद कारण प्रस्तुत किया जा सकता है।

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जनहित याचिका की प्रकृति पर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए, अदालत ने कहा: “जनहित के प्रयोजन से याचिका दायर करके ‘फिशिंग इंक्वायरी’ की अनुमति नहीं दी जा सकती।”

न्यायालय का निर्णय

इन निष्कर्षों के आधार पर, अदालत ने यह निष्कर्ष निकाला कि वर्तमान याचिका पर विचार करने का कोई कारण नहीं है। अंतिम आदेश में कहा गया, “उपरोक्त के मद्देनजर, हमें इस याचिका पर विचार करने का कोई कारण नहीं मिला, इसलिए इसे खारिज किया जाता है।”

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