इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 5 अगस्त 2025 को एक अहम फैसला सुनाते हुए अधिवक्ता राणा प्रताप सिंह की दूसरी ज़मानत याचिका खारिज कर दी। यह मामला वर्ष 2019 में हुई हत्या से जुड़ा है। न्यायमूर्ति कृष्ण पहल की एकल पीठ ने इस आधार पर ज़मानत से इनकार किया कि मुकदमे की कार्यवाही अपने अंतिम चरण में है और ट्रायल में देरी मुख्यतः अभियुक्त द्वारा अपनाई गई “टालमटोल की रणनीति” के कारण हुई है।
मामला क्या है?
यह मुकदमा थाना देवगांव, जनपद आज़मगढ़ में भारतीय दंड संहिता की धाराएँ 147, 148, 149, 504, 506, 302, 307, 336/34 तथा शस्त्र अधिनियम की धारा 27/30 के तहत दर्ज हुआ था। अभियुक्त 9 अप्रैल 2019 से न्यायिक हिरासत में है।
प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) के अनुसार, 7 अप्रैल 2019 को राणा प्रताप सिंह ने अनिल सिंह पर गोली चलाई जिससे उसकी मृत्यु हो गई। न्यायालय ने 14 नवंबर 2022 को पहली ज़मानत याचिका खारिज करते हुए कहा था कि अभियुक्त “मुख्य हमलावर” है और उसके लाइसेंसी हथियार से चलाई गई गोली से मृत्यु हुई थी। एक घायल प्रत्यक्षदर्शी ने भी अभियोजन की कहानी की पुष्टि की थी।

याचिकाकर्ता की दलीलें
दूसरी ज़मानत याचिका लंबी न्यायिक हिरासत के आधार पर दाखिल की गई थी। वरिष्ठ अधिवक्ता अमरेंद्र नाथ सिंह और विनय सरन ने तर्क दिया कि अभियुक्त पिछले छह वर्ष चार महीने से जेल में है, जो अनुच्छेद 21 के तहत उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। उन्होंने Union of India बनाम के.ए. नजीब फैसले का हवाला दिया, जिसमें लंबी हिरासत के आधार पर ज़मानत दी गई थी।
यह भी कहा गया कि अभियुक्त एक अधिवक्ता है, कोई आदतन अपराधी नहीं, और गवाहों की जिरह पूरी हो चुकी है, जिससे साक्ष्य से छेड़छाड़ की संभावना नहीं है। उन्होंने पोस्टमार्टम रिपोर्ट का भी हवाला दिया जिसमें घाव पर ‘ब्लैकनिंग’ (कालिमा) थी, जो अभियोजन के अनुसार 30-35 कदम की दूरी से की गई गोलीबारी से मेल नहीं खाती।
सूचक और राज्य की आपत्तियाँ
राज्य की ओर से अपर शासकीय अधिवक्ता (A.G.A.) और सूचक के अधिवक्ता ने ज़मानत का कड़ा विरोध किया। उन्होंने कहा कि ट्रायल अब अंतिम चरण में है और आरोपी का 313 CrPC बयान 6 अगस्त 2025 को दर्ज होना है।
सूचक के वकील ने आरोप लगाया कि “अभियुक्त और अन्य आरोपियों ने सुनवाई टालने के लिए हर संभव तरीका अपनाया।” उन्होंने बताया कि एक अभियोजन गवाह (PW-1) की जिरह 13 बार टाल दी गई।
इसके अलावा, अभियुक्त को “कुख्यात प्रवृत्ति का अपराधी” बताते हुए सूचक के वकील ने कहा कि जेल में मोबाइल फोन से गवाहों को धमकाने के आरोप में उसके खिलाफ Prisons Act, 1894 के तहत एफआईआर दर्ज की गई थी, जिसके चलते उसे आज़मगढ़ से पीलीभीत जेल में स्थानांतरित किया गया और घायल गवाहों को अभियोजन ने हटा दिया।
A.G.A. ने बताया कि गोलीबारी की दूरी और ‘ब्लैकनिंग’ से जुड़ी दलीलें पहली ज़मानत याचिका के समय पहले ही खारिज हो चुकी हैं। उन्होंने X बनाम राज्य राजस्थान के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि ट्रायल शुरू हो जाने के बाद मामूली विसंगतियों के आधार पर ज़मानत नहीं दी जानी चाहिए।
कोर्ट का विश्लेषण और आदेश
न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट की स्थिति रिपोर्ट देखने और पक्षकारों की दलीलें सुनने के बाद कहा:
“मुकदमे की सुनवाई में देरी मुख्यतः अभियुक्त के अधिवक्ता की टालमटोल की रणनीति के कारण हुई है। हालांकि कुछ हद तक देरी का कारण अभियोजन भी रहा है।”
न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि आरोपी द्वारा हाल ही में दाखिल की गई पुनः जांच की याचिका, जिसे ट्रायल कोर्ट ने खारिज कर दिया, उसके खिलाफ संभावित चुनौती से ट्रायल में और देरी होगी, जिसे अभियोजन की गलती नहीं माना जा सकता।
अपने अंतिम निष्कर्ष में न्यायालय ने कहा:
“पक्षकारों की दलीलें सुनने, उनके विरोधाभासी तर्कों को ध्यान में रखते हुए तथा यह तथ्य कि ज़मानत के लिए कोई नया आधार नहीं है, साथ ही ट्रायल अंतिम चरण में है और ट्रायल के दौरान अभियुक्त के अधिवक्ता द्वारा टालमटोल की रणनीति अपनाई गई, तथा अभियुक्त के आपराधिक इतिहास को देखते हुए जिसमें ट्रायल के दौरान जेल अधीक्षण द्वारा दर्ज मामला भी शामिल है, मैं अभियुक्त को ज़मानत दिए जाने को उपयुक्त नहीं मानता।”
इस प्रकार, अदालत ने याचिका को “निराधार” करार देते हुए खारिज कर दिया। साथ ही ट्रायल कोर्ट को सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्थापित सिद्धांतों के अनुसार जल्द से जल्द सुनवाई पूरी करने का निर्देश भी दिया।