‘निकटतम कानूनी वारिस’ दूर के रिश्तेदारों से ऊपर: जांच ट्रांसफर की मांग पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया ‘लोकस स्टैंडाई’

इलाहाबाद हाईकोर्ट (लखनऊ पीठ) ने अजीत सिंह हत्याकांड में केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) से जांच कराने की मांग करने वाली दो आपराधिक रिट याचिकाओं को निस्तारित कर दिया है। न्यायमूर्ति राजेश सिंह चौहान और न्यायमूर्ति अबधेश कुमार चौधरी की खंडपीठ ने स्पष्ट किया कि जब मृतक की पत्नी (जो निकटतम कानूनी वारिस है) ने अपनी याचिकाएं वापस ले ली हैं, तो मृतक के चाचा को ऐसी राहत मांगने का कोई ‘लोकस स्टैंडाई’ (सुना जाने का अधिकार) नहीं है।

अदालत ने दंड प्रक्रिया संहिता (Cr.P.C.) की धारा 2(wa) के तहत ‘पीड़ित’ (Victim) की परिभाषा की व्याख्या करते हुए एक महत्वपूर्ण ‘क्लोजेस्ट लीगल हेयर टेस्ट’ (Closest Legal Heir Test) प्रतिपादित किया। पीठ ने कहा कि न्याय प्रशासन के हित में यह आवश्यक है कि ‘निकटतम कानूनी वारिस’ का अधिकार दूर के रिश्तेदारों से ऊपर माना जाए।

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला 6 जनवरी 2021 को लखनऊ में हुई अजीत सिंह की हत्या से जुड़ा है। इस संबंध में थाना विभूति खंड में आईपीसी की धारा 120-बी, 302, 307 और 34 के तहत एफआईआर (केस क्राइम संख्या 0015/2021) दर्ज की गई थी। इसके अलावा, एक दूसरी एफआईआर (केस क्राइम संख्या 445/2020) ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट के तहत दर्ज की गई थी, जिसमें आरोपियों पर गोपनीय दस्तावेज रखने का आरोप था।

मामले की जांच स्पेशल टास्क फोर्स (STF) द्वारा की गई थी। एसटीएफ ने पूर्व सांसद धनंजय सिंह सहित 13 आरोपियों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया। पूर्व सांसद के खिलाफ आईपीसी की धारा 212 (अपराधी को शरण देना) और 176 (सूचना देने का लोप) के तहत चार्जशीट दाखिल की गई थी।

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इससे पहले, मृतक की पत्नी रानू सिंह ने एसटीएफ की जांच पर सवाल उठाते हुए सीबीआई जांच की मांग को लेकर हाईकोर्ट में याचिकाएं दायर की थीं। उनका आरोप था कि एसटीएफ मुख्य आरोपी को बचा रही है। हालांकि, 23 अप्रैल 2025 को उन्होंने अपनी सभी याचिकाएं वापस ले ली थीं। इसके बाद, मृतक के चाचा राजेश सिंह ने वर्तमान याचिकाएं (संख्या 4791/2025 और 6047/2025) दायर कर सीबीआई जांच की मांग की।

पक्षों की दलीलें

याची के अधिवक्ता श्री कपिल मिश्रा ने तर्क दिया कि मुख्य आरोपी एक प्रभावशाली व्यक्ति है और उसने जांच को प्रभावित करने के लिए एसटीएफ से गोपनीय दस्तावेज प्राप्त किए थे। उन्होंने कहा कि एसटीएफ ने जानबूझकर मुख्य साजिशकर्ता के खिलाफ मामूली और जमानती धाराओं में आरोप पत्र दाखिल किया है। उन्होंने दलील दी कि निष्पक्ष जांच केवल सीबीआई जैसी स्वतंत्र एजेंसी द्वारा ही संभव है।

राज्य सरकार की ओर से पेश हुए सरकारी अधिवक्ता श्री वी.के. सिंह ने याचिका की पोषणीयता (Maintainability) पर प्रारंभिक आपत्ति जताई। उन्होंने तर्क दिया कि याची मृतक का चाचा है, इसलिए वह Cr.P.C. की धारा 2(wa) के तहत ‘पीड़ित’ की परिभाषा में नहीं आता। उन्होंने यह भी कहा कि जांच पूरी हो चुकी है, आरोप पत्र दाखिल हो चुके हैं और गवाहों के बयानों के साथ ट्रायल चल रहा है, इसलिए यह याचिका अब आधारहीन है।

कोर्ट का विश्लेषण और ‘क्लोजेस्ट लीगल हेयर टेस्ट’

हाईकोर्ट के समक्ष मुख्य कानूनी सवाल यह था कि क्या मृतक के चाचा को सीबीआई जांच की मांग करने का अधिकार है, जबकि पत्नी ने अपनी याचिका वापस ले ली है।

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‘पीड़ित’ और ‘कानूनी वारिस’ की परिभाषा पर: पीठ ने Cr.P.C. की धारा 2(wa) का विश्लेषण किया, जिसमें पीड़ित की परिभाषा में ‘अभिभावक या कानूनी वारिस’ शामिल हैं। कोर्ट ने कहा कि हालांकि संहिता में ‘कानूनी वारिस’ को परिभाषित नहीं किया गया है, लेकिन इसकी व्याख्या न्याय की भावना को ध्यान में रखते हुए की जानी चाहिए।

इस अस्पष्टता को दूर करने के लिए, कोर्ट ने ‘क्लोजेस्ट लीगल हेयर टेस्ट’ का सिद्धांत पेश किया। पीठ ने टिप्पणी की:

“क्लोजेस्ट लीगल हेयर टेस्ट के अनुसार, पीड़ित का निकटतम या समीपस्थ कानूनी वारिस अगले करीबी वारिस से ऊपर होना चाहिए, क्योंकि न्याय प्रशासन यह अनुमति नहीं देता कि पीड़ित की शिकायत को आगे बढ़ाने के लिए ‘कानूनी वारिस’ कौन होगा, इस पर कोई विवाद हो…”

इस परीक्षण को लागू करते हुए, कोर्ट ने कहा:

“पत्नी का अधिकार एक चाचा की तुलना में उच्च स्तर पर है। जब पत्नी ने सीबीआई जांच की मांग वाली अपनी सभी याचिकाएं वापस ले ली हैं, तो दूर के वारिस यानी चाचा द्वारा मांगी गई उसी राहत को संदेह की दृष्टि से देखा जाना चाहिए…”

तीसरे पक्ष का हस्तक्षेप: हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले संजय तिवारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2020) और मद्रास हाईकोर्ट के ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक विमेंस एसोसिएशन मामले का हवाला देते हुए दोहराया कि आपराधिक कार्यवाही में किसी अजनबी या तीसरे पक्ष को हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है। कोर्ट ने कहा कि मुख्य पीड़ित (पत्नी) ने खुद को कार्यवाही से अलग कर लिया है, ऐसे में याची एक ‘नये चेहरे’ के रूप में अग्रिम चरण में चल रहे ट्रायल को बाधित करने का प्रयास कर रहा है।

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निर्णय

हाईकोर्ट ने सीबीआई जांच के लिए परमादेश जारी करने से इनकार कर दिया। पीठ ने कहा कि यह मांग अब पुरानी पड़ चुकी है और तकनीकी रूप से निष्प्रभावी है क्योंकि जांच समाप्त हो चुकी है और ट्रायल शुरू हो चुका है।

हालांकि, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि याचिका खारिज होने का मतलब यह नहीं है कि पक्षों के पास कोई उपाय नहीं है। पीठ ने पक्षों को स्वतंत्रता दी कि यदि कोई “ठोस साक्ष्य” (Evidence of sterling nature) सामने आता है, तो वे आरोप तय करने या बदलने के लिए भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) या Cr.P.C. के प्रावधानों के तहत ट्रायल कोर्ट (विचारण न्यायालय) में आवेदन कर सकते हैं।

हाईकोर्ट ने याचिका निस्तारित करते हुए कहा:

“यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि यदि विद्वान विचारण न्यायालय के समक्ष कोई उपयुक्त आवेदन दायर किया जाता है… तो विचारण न्यायालय इस आदेश में की गई किसी भी टिप्पणी से प्रभावित हुए बिना उन आवेदनों का निस्तारण करेगा।”

केस का विवरण:

केस का नाम: राजेश सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य

केस संख्या: क्रिमिनल मिसलेनियस रिट पिटीशन संख्या 4791 वर्ष 2025 (संबद्ध याचिका संख्या 6047 वर्ष 2025)

कोरम: न्यायमूर्ति राजेश सिंह चौहान और न्यायमूर्ति अबधेश कुमार चौधरी

याची के वकील: श्री कपिल मिश्रा, श्री आशीष कुमार सिंह

प्रतिवादी के वकील: श्री वी.के. सिंह (जी.ए.), श्री अनुराग कुमार सिंह, श्री नावेद अली, श्री राव नरेंद्र सिंह

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