न्यायिक प्रक्रिया की निष्पक्षता और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत को सुदृढ़ करते हुए, इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने एक महत्वपूर्ण फैसले में बांदा के जिलाधिकारी और राज्य सरकार द्वारा पारित उन आदेशों को रद्द कर दिया, जिनमें एम/एस माँ काली टायर्स का खनन पट्टा रद्द कर ₹5.79 करोड़ की वसूली लगाई गई थी और कंपनी को दो वर्षों के लिए ब्लैकलिस्ट कर दिया गया था।
न्यायमूर्ति राजन रॉय और न्यायमूर्ति ओम प्रकाश शुक्ला की खंडपीठ ने यह फैसला 19 मार्च 2025 को रिट याचिका संख्या – 2119/2025 में सुनाया, जो दलपत सिंह (स्वामी, माँ काली टायर्स) द्वारा दायर की गई थी।
याचिकाकर्ता की ओर से वकील शिशिर चंद्र, गौरव मेहरोत्रा और उत्सव मिश्रा ने पक्ष रखा, जबकि उत्तर प्रदेश राज्य की ओर से मुख्य स्थायी अधिवक्ता (C.S.C.) श्री सिसोदिया उपस्थित रहे।

मामले की पृष्ठभूमि
यह विवाद पहले भी न्यायालय में उठ चुका था। 26 अप्रैल 2021 को बांदा डीएम ने माँ काली टायर्स का खनन पट्टा रद्द कर जुर्माना लगाया था, जिसे हाईकोर्ट ने 14 फरवरी 2023 को (रिट-C संख्या 4229/2022) में रद्द कर दिया था।
इसके बाद, याचिकाकर्ता ने 24 अप्रैल 2023 को विस्तृत जवाब दाखिल किया। फिर भी, डीएम ने 12 जनवरी 2024 को एक नया आदेश पारित कर पहले रद्द किए गए निर्णय को ही दोहराया, जिसमें 19 मार्च 2021 की पुरानी रिपोर्ट का हवाला दिया गया।
पुनरीक्षण प्राधिकारी ने भी 27 जनवरी 2025 को बिना स्वतंत्र विवेक के डीएम के निर्णय को बरकरार रखा।
प्रमुख कानूनी प्रश्न
- क्या पहले रद्द किया गया आदेश बिना नए कारणों के पुनर्जीवित किया जा सकता है?
- क्या याचिकाकर्ता के विस्तृत जवाब पर विचार किए बिना आदेश पारित किया गया?
- क्या डीएम को खनन अधिनियम 1957 के अंतर्गत दंडात्मक कार्रवाई का अधिकार था?
- क्या आदेश में उचित कानूनी विश्लेषण और तर्क था?
अदालत के महत्वपूर्ण अवलोकन
न्यायालय ने डीएम के दृष्टिकोण की कड़ी आलोचना करते हुए कहा:
“हाईकोर्ट द्वारा रद्द किया गया आदेश तभी पुनर्जीवित हो सकता था जब उसमें नए आधारों पर स्वतंत्र निर्णय लिया गया हो। केवल पुराने आदेश को दोहराना आपत्तिजनक और अस्वीकार्य है।”
“जिस दंडात्मक कार्रवाई के नागरिक परिणाम हों, उसे प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों और हमारे पूर्व निर्णय (दिनांक 14.02.2023) के अनुरूप होना चाहिए।”
अदालत ने यह भी रेखांकित किया:
- जिन कानूनी प्रावधानों का हवाला दिया गया, वे डीएम को अधिकार नहीं देते थे।
- राज्य सरकार द्वारा धारा 21 के अंतर्गत कोई अधिकार-प्रवर्तन (Delegation) नहीं दिखाया गया।
- डीएम के 13-पृष्ठीय आदेश में वास्तविक तर्क केवल डेढ़ पृष्ठ में था, जो अस्पष्ट और सतही था।
- आदेशों में स्पष्ट होना चाहिए कि “अधिकारी के मस्तिष्क में क्या बात प्रमुख रही” और निर्णय “स्पष्ट और ठोस कानूनी विवेक” पर आधारित होना चाहिए।
अंतिम निर्णय
हाईकोर्ट ने याचिका को स्वीकार करते हुए डीएम का 12 जनवरी 2024 का आदेश और पुनरीक्षण प्राधिकारी का 27 जनवरी 2025 का आदेश रद्द कर दिया।
मामला फिर से बांदा डीएम को भेजा गया है ताकि:
- वह आदेश पारित करने से पहले अपने अधिकार-क्षेत्र (Jurisdiction) की पुष्टि करे।
- याचिकाकर्ता द्वारा 19 मार्च 2024 को दी गई प्रतिक्रियाओं पर विचार करे।
- निर्णय को कानून के अनुरूप, तर्कसंगत और विशेष कानूनी प्रावधानों के स्पष्ट हवाले के साथ दे।
यदि डीएम को अधिकार क्षेत्र की कमी लगे, तो उसे मामला सक्षम प्राधिकारी को भेजना होगा।
हाईकोर्ट की डीएम को सलाह
एक दुर्लभ कदम उठाते हुए कोर्ट ने डीएम को प्रक्रिया संबंधी मार्गदर्शन भी दिया:
“सामान्यतः, पहले संक्षेप में तथ्यों का उल्लेख हो, फिर याचिकाकर्ता की दलीलों का, उसके बाद चर्चा, निष्कर्ष और अंतिम निर्णय। साथ ही, उसे स्पष्ट रूप से उस प्रावधान का उल्लेख करना चाहिए जिसके तहत दंडात्मक या अन्य कार्रवाई की जा रही है।”
“हमें आशा है कि वह भविष्य में इस बात का ध्यान रखेंगी।”