पेशेवर कर्तव्यों के निर्वहन के लिए वकील को गवाह नहीं माना जा सकता: दिल्ली हाईकोर्ट ने सीबीआई के नोटिस पर लगाई रोक

दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) द्वारा एक अधिवक्ता को जारी किए गए नोटिस पर रोक लगा दी है। इस नोटिस में वकील को अपने मुवक्किल से जुड़े मामले में दस्तावेज प्रस्तुत करने और अपना बयान दर्ज कराने के लिए व्यक्तिगत रूप से पेश होने का निर्देश दिया गया था। जस्टिस स्वर्ण कांता शर्मा ने कहा कि यह नोटिस प्रथम दृष्टया (prima facie) सुप्रीम कोर्ट के उन हालिया निर्देशों के खिलाफ है, जो वकीलों को समन करने के संबंध में जारी किए गए थे। कोर्ट ने टिप्पणी की कि केवल पेशेवर कर्तव्यों का पालन करने के लिए एक वकील को गवाह के रूप में मानने से कानूनी पेशे की स्वतंत्रता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।

हाईकोर्ट अधिवक्ता सचिन बाजपेयी द्वारा दायर एक याचिका पर सुनवाई कर रहा था, जिसमें भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 की धारा 94 और 179 के तहत सीबीआई द्वारा जारी 19 दिसंबर, 2025 के नोटिस को रद्द करने की मांग की गई थी। नोटिस में याचिकाकर्ता वकील से उन दस्तावेजों की प्रमाणित प्रतियां जमा करने और अपना बयान दर्ज कराने के लिए पेश होने को कहा गया था, जिन्हें उन्होंने पहले अपने मुवक्किल की ओर से जांच अधिकारी (IO) को ईमेल किया था। कोर्ट ने याचिका के लंबित रहने तक विवादित नोटिस के अमल पर रोक लगा दी है।

मामले की पृष्ठभूमि

सीबीआई ने 21 नवंबर, 2025 को मैसर्स लॉर्ड महावीर सर्विसेज इंडिया प्राइवेट लिमिटेड और उसके निदेशकों के खिलाफ साइबर आपराधिक गतिविधियों के लिए सिम कार्ड के दुरुपयोग के आरोपों में एक एफआईआर (संख्या RC2212025E0016) दर्ज की थी।

याचिकाकर्ता के अनुसार, आरोपी कंपनी के एक निदेशक ने 5 दिसंबर, 2025 को कानूनी सहायता के लिए उनसे संपर्क किया। 15 दिसंबर, 2025 को, कंपनी ने जांच में सहयोग करने के लिए अपने एक कर्मचारी के माध्यम से सीबीआई कार्यालय में कुछ दस्तावेज जमा करने का प्रयास किया। हालांकि, आरोप है कि जांच अधिकारी ने उन्हें स्वीकार करने से इनकार कर दिया। इसके परिणामस्वरूप, याचिकाकर्ता ने अपनी पेशेवर क्षमता में कार्य करते हुए उसी दिन संबंधित दस्तावेज ईमेल के माध्यम से जांच अधिकारी को भेज दिए।

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17 दिसंबर, 2025 को, याचिकाकर्ता ने सत्र न्यायालय (Sessions Court) से एक निदेशक के लिए अंतरिम सुरक्षा प्राप्त की। इसके तुरंत बाद, 19 दिसंबर, 2025 को, जांच अधिकारी ने याचिकाकर्ता को विवादित नोटिस जारी किया। नोटिस में उन्हें निर्देश दिया गया था कि:

  1. भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 63(4)(C) के तहत प्रमाणीकरण के साथ ईमेल द्वारा भेजे गए दस्तावेज प्रस्तुत करें।
  2. 20 दिसंबर, 2025 को व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होकर BNSS की धारा 180 के तहत अपना बयान दर्ज कराएं, इस आधार पर कि वे मामले के तथ्यों/परिस्थितियों से “परिचित” हैं।

पक्षों की दलीलें

याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता मोहित माथुर और संदीप शर्मा ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता ने केवल अपनी पेशेवर क्षमता में कार्य किया था। उन्होंने कहा कि दस्तावेज ईमेल केवल इसलिए किए गए थे क्योंकि जांच अधिकारी ने मुवक्किल के कर्मचारियों से उन्हें भौतिक रूप से स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। यह भी तर्क दिया गया कि नोटिस याचिकाकर्ता द्वारा अपने मुवक्किल के लिए सफलतापूर्वक अंतरिम सुरक्षा प्राप्त करने के तुरंत बाद जारी किया गया था।

सीबीआई की ओर से पेश विशेष लोक अभियोजक (SPP) रिपुदमन भारद्वाज ने जवाब दाखिल करने और नोटिस जारी करने के संबंध में निर्देश प्राप्त करने के लिए समय मांगा।

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कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियां

जस्टिस शर्मा ने याचिकाकर्ता द्वारा भेजे गए ईमेल का अवलोकन किया और पाया कि उनमें स्पष्ट रूप से कहा गया था कि वह जांच को सुविधाजनक बनाने के लिए “हमारे मुवक्किल मैसर्स लॉर्ड महावीर सर्विसेज इंडिया प्राइवेट लिमिटेड की ओर से” जानकारी जमा कर रहे हैं। कोर्ट ने कहा कि जांच अधिकारी को अच्छी तरह पता था कि याचिकाकर्ता आरोपी कंपनी के अधिवक्ता हैं, जैसा कि नोटिस में भी स्वीकार किया गया है।

कोर्ट ने माना कि नोटिस इस आधार पर जारी किया गया है कि वकील को केवल इसलिए गवाह माना जा रहा है क्योंकि उसने अपने मुवक्किल के निर्देश पर दस्तावेज भेजे थे। पीठ ने कहा:

“मुवक्किल का प्रतिनिधित्व करने, मुवक्किल की ओर से जांच एजेंसी के साथ संवाद करने और जांच में कानूनी सहयोग को सुविधाजनक बनाने में एक अधिवक्ता की भूमिका को गवाह या जांच के दौरान पूछताछ के लिए उत्तरदायी किसी अन्य व्यक्ति के बराबर नहीं माना जा सकता है।”

हाईकोर्ट ने पाया कि यह नोटिस सुप्रीम कोर्ट द्वारा Summoning Advocates who give legal opinion or represent parties during investigation of cases and related issues: 2025 SCC OnLine SC 2320 मामले में निर्धारित सिद्धांतों के विपरीत है। विशेष रूप से, कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पैरा 67(1.2) की ओर इशारा किया, जो जांच अधिकारियों को आरोपी का प्रतिनिधित्व करने वाले अधिवक्ताओं को मामले का विवरण जानने के लिए समन जारी करने से रोकता है, जब तक कि यह विशिष्ट अपवादों के अंतर्गत न हो, जिसके लिए वरिष्ठ अधिकारी की लिखित संतुष्टि आवश्यक है।

जस्टिस शर्मा ने मुवक्किल-वकील के विशेषाधिकार (Client-Advocate privilege) पर जोर देते हुए कहा:

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“इसके अलावा, एक अधिवक्ता और उसके मुवक्किल के बीच का संबंध ऐसा होता है कि मुवक्किल अपने मामले के तथ्य उसे बताता है, ताकि वह उसका बचाव कर सके। इस कारण से, अपने मुवक्किल का बचाव करने वाले प्रत्येक अधिवक्ता को मामले के तथ्यों का ज्ञान होगा। हालांकि, यह हर वकील को उसके द्वारा संभाले जाने वाले सभी मामलों में गवाह नहीं बना सकता…”

कोर्ट ने एजेंसी द्वारा की गई ऐसी कार्रवाई के परिणामों के बारे में चेतावनी दी:

“वर्तमान मामले में अपनाए गए इस तरह के तरीके की अनुमति देने के दूरगामी परिणाम होंगे, और यदि इसकी अनुमति दी जाती है, तो ऐसी प्रथा कानूनी पेशे की स्वतंत्रता पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगी…”

निर्णय

हाईकोर्ट ने निर्देश दिया कि 19 दिसंबर, 2025 का विवादित नोटिस याचिका के लंबित रहने तक स्थगित (stayed) रहेगा। स्टे के आवेदन को स्वीकार कर लिया गया, और प्रतिवादी संख्या 3 (जांच अधिकारी) को निर्देश दिया गया कि वह अगली सुनवाई की तारीख, यानी 23 दिसंबर, 2025 को व्यक्तिगत रूप से उपस्थित रहें।

केस डीटेल्स:

  • केस टाइटल: सचिन बाजपेयी बनाम भारत संघ और अन्य
  • केस नंबर: W.P.(CRL) 4250/2025
  • कोरम: जस्टिस स्वर्ण कांता शर्मा
  • याचिकाकर्ता के वकील: वरिष्ठ अधिवक्ता श्री मोहित माथुर और श्री संदीप शर्मा, साथ में अधिवक्ता श्री गौरव भारद्वाज, श्री नितेश मेहरा, श्री आशीष सरीन, श्री अनुराग मिश्रा, श्री के.के. मिश्रा, श्री कुमार क्षितिज, श्री गौतम सिंह, श्री आयुष यादव, श्री रत्नेश माथुर, श्री आदर्श सिंह और श्री दिवाकर कपिल।
  • प्रतिवादियों के वकील: एसपीपी श्री रिपुदमन भारद्वाज, साथ में अधिवक्ता श्री कुशाग्र कुमार और श्री अमित कुमार राणा।

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