सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक अहम फैसले में स्पष्ट किया है कि मध्य प्रदेश भू-राजस्व संहिता, 1959 (MP Land Revenue Code, 1959) में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो वसीयत (Will) के माध्यम से भूमि में अधिकारों के अर्जन को प्रतिबंधित करता हो। शीर्ष अदालत ने मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की इंदौर खंडपीठ के उस फैसले को रद्द कर दिया है, जिसमें राजस्व अधिकारियों को नामांतरण (Mutation) के लिए पंजीकृत वसीयत को अनदेखा करने और इसके बजाय हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के तहत कानूनी वारिसों का नाम दर्ज करने का निर्देश दिया गया था।
जस्टिस संजय करोल और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि यदि कोई वसीयत प्रस्तुत की जाती है, तो उस पर आधारित नामांतरण आवेदन पर उसके गुणों (merits) के आधार पर विचार किया जाना चाहिए और केवल इस आधार पर उसे खारिज नहीं किया जा सकता कि वह वसीयत पर आधारित है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह विवाद मौजा भोपाली में स्थित 5.580 हेक्टेयर कृषि भूमि से संबंधित है, जो मूल रूप से रोडा उर्फ रोडीलाल के नाम पर दर्ज थी। रोडा की मृत्यु 6 नवंबर 2019 को हो गई थी। अपीलकर्ता ताराचंद ने 1 मई 2017 को रोडा द्वारा निष्पादित एक पंजीकृत वसीयत के तहत खुद को वसीयतदार (Legatee) बताते हुए 1959 संहिता की धारा 110 के तहत नामांतरण के लिए आवेदन किया।
इस आवेदन का विरोध प्रथम प्रतिवादी, भंवरलाल द्वारा किया गया, जिसने मृतक द्वारा निष्पादित एक लिखित विक्रय अनुबंध (Sale Agreement) के आधार पर एक विशिष्ट सर्वे नंबर (सर्वे नंबर 195) पर कब्जे का दावा किया।
तहसीलदार, मनासा ने गवाहों के बयान दर्ज करने के बाद अपीलकर्ता के पक्ष में नामांतरण का आदेश दिया। आदेश में यह स्पष्ट किया गया था कि नामांतरण लंबित दीवानी मुकदमे (Civil Suit) में अधिकारों के निर्धारण के अधीन होगा। प्रतिवादी ने इस आदेश को उप-विभागीय अधिकारी (SDO) और बाद में अतिरिक्त आयुक्त, उज्जैन के समक्ष चुनौती दी, लेकिन दोनों अपीलीय अधिकारियों ने अपील खारिज कर दी।
इसके बाद प्रतिवादी ने संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत मध्य प्रदेश हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। हाईकोर्ट ने 14 अगस्त 2024 के अपने आदेश में रंजीत बनाम श्रीमती नंदिता सिंह व अन्य के मामले में दिए गए अपने पूर्व निर्णय का हवाला देते हुए याचिका स्वीकार कर ली। हाईकोर्ट ने राजस्व अधिकारियों के आदेशों को रद्द कर दिया और निर्देश दिया कि मृतक के कानूनी वारिसों के नाम हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के अनुसार दर्ज किए जाएं, और यदि कोई वारिस उपलब्ध नहीं है, तो राज्य सरकार का नाम दर्ज किया जाए।
पक्षों की दलीलें
अपीलकर्ता का तर्क: अपीलकर्ता की ओर से तर्क दिया गया कि हाईकोर्ट ने मध्य प्रदेश भू-राजस्व संहिता (भू-अभिलेखों में नामांतरण) नियम, 2018 (2018 नियम) को लागू करने में विफलता दिखाई है, जो स्पष्ट रूप से वसीयत के आधार पर नामांतरण की अनुमति देता है। यह भी कहा गया कि हाईकोर्ट की पूर्ण पीठ (Full Bench) द्वारा आनंद चौधरी बनाम मध्य प्रदेश राज्य व अन्य मामले में दिए गए फैसले के आलोक में रंजीत मामले का निर्णय अब अच्छा कानून नहीं रह गया है। अपीलकर्ता ने जोर दिया कि किसी भी प्राकृतिक कानूनी वारिस ने पंजीकृत वसीयत को गंभीर चुनौती नहीं दी है, और प्रतिवादी का दावा केवल एक अपंजीकृत (unregistered) विक्रय अनुबंध और प्रतिकूल कब्जे (adverse possession) पर आधारित है, जो नामांतरण को नहीं रोक सकता।
प्रतिवादी का तर्क: प्रथम प्रतिवादी ने तर्क दिया कि चूंकि अपीलकर्ता मृतक का प्राकृतिक वारिस नहीं है और वसीयत “संदेहजनक परिस्थितियों” में घिरी हुई है, इसलिए जब तक सक्षम सिविल कोर्ट वसीयत की वैधता प्रमाणित नहीं कर देता, तब तक इसे नामांतरण प्रविष्टि का आधार नहीं बनाया जा सकता। यह भी कहा गया कि अपीलकर्ता के पास अधिकारों की घोषणा के लिए दीवानी मुकदमा दायर करने का प्रभावी उपाय उपलब्ध है।
कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियाँ
सुप्रीम कोर्ट ने 1959 संहिता की धारा 109 और 110 का परीक्षण किया।
वसीयत द्वारा अधिग्रहण पर: कोर्ट ने पाया, “1959 संहिता की धारा 109 या धारा 110 में अधिकारों के अर्जन को किसी विशेष तरीके तक सीमित करने की कोई बात नहीं है।” पीठ ने नोट किया कि 2018 के नियम वसीयत के माध्यम से अधिग्रहण को एक वैध तरीके के रूप में मान्यता देते हैं।
कोर्ट ने कहा:
“इस प्रकार, 1959 संहिता में वसीयत के माध्यम से भूमि में अधिकारों के अर्जन को प्रतिबंधित करने वाला कुछ भी नहीं है। परिणामस्वरुप, यदि कोई वसीयत स्थापित की जाती है, तो उस पर आधारित नामांतरण आवेदन पर गुण-दोष के आधार पर विचार किया जाना चाहिए और इसे केवल इसलिए खारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि यह वसीयत पर आधारित है।”
पूर्ण पीठ के फैसले पर भरोसा: शीर्ष अदालत ने मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की पूर्ण पीठ के आनंद चौधरी वाले फैसले का हवाला दिया, जिसमें यह निष्कर्ष निकाला गया था कि तहसीलदार किसी नामांतरण आवेदन को केवल इसलिए सिरे से (at threshold) खारिज नहीं कर सकता क्योंकि वह वसीयत पर आधारित है। पूर्ण पीठ ने कहा था कि यदि वसीयत की वैधता के संबंध में कोई गंभीर विवाद उत्पन्न होता है, तो पक्षों को सिविल कोर्ट का दरवाजा खटखटाना चाहिए।
वर्तमान मामले के तथ्यों पर: सुप्रीम कोर्ट ने नोट किया कि इस मामले में, मृतक भूमि स्वामी के किसी भी कानूनी वारिस ने वसीयत को लेकर कोई विवाद खड़ा नहीं किया था। आपत्ति केवल प्रतिवादी की ओर से आई थी, जिसका दावा बिक्री के लिए एक अपंजीकृत समझौते पर आधारित था।
कोर्ट ने प्रतिवादी के दावे के संबंध में कहा:
“स्वीकार्य रूप से, यह (अनुबंध) एक पंजीकृत दस्तावेज नहीं है और अब तक उसके पक्ष में विशिष्ट पालन (specific performance) की कोई डिक्री भी नहीं है।”
नामांतरण की वित्तीय प्रकृति: स्थापित कानूनी सिद्धांतों को दोहराते हुए, कोर्ट ने टिप्पणी की:
“लेकिन जो महत्वपूर्ण है वह यह है कि नामांतरण किसी व्यक्ति को कोई अधिकार, हक या हित प्रदान नहीं करता है। राजस्व रिकॉर्ड में नामांतरण केवल वित्तीय उद्देश्यों (Fiscal Purposes) के लिए होता है… इसलिए, जहां भूमि स्वामी के किसी भी प्राकृतिक कानूनी वारिस (यदि कोई हो) द्वारा कोई गंभीर विवाद नहीं उठाया गया है, वहां किसी कानूनी रोक के अभाव में, वसीयत के आधार पर नामांतरण से इनकार नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि यह राजस्व (Revenue) के हितों को विफल करेगा।”
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने माना कि हाईकोर्ट ने नामांतरण आदेशों में हस्तक्षेप करके त्रुटि की है। कोर्ट को तहसीलदार के आदेश में कोई क्षेत्राधिकार संबंधी त्रुटि या कानूनी कमी नहीं मिली, जिसने नियमित दीवानी कार्यवाही के अधीन रहते हुए पंजीकृत वसीयत के आधार पर नामांतरण की अनुमति दी थी।
कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए हाईकोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया और राजस्व अधिकारियों के आदेशों को बहाल कर दिया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि नामांतरण प्रविष्टि “सक्षम सिविल कोर्ट/राजस्व कोर्ट द्वारा किसी भी निर्णय के अधीन होगी।”

