इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में स्पष्ट किया है कि किसी कर्मचारी की बर्खास्तगी या दंड की सिफारिश को अस्वीकार करने से पहले जिला विद्यालय निरीक्षक (DIOS) के लिए प्रबंध समिति (Committee of Management) को सुनवाई का अवसर देना कानूनी रूप से अनिवार्य है। न्यायमूर्ति श्री प्रकाश सिंह की पीठ ने जिला विद्यालय निरीक्षक-द्वितीय, लखनऊ के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसके तहत उन्होंने प्रबंध समिति को बिना सुने ही कार्यवाहक प्रधानाचार्य की बर्खास्तगी के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था। कोर्ट ने मामले को नए सिरे से निर्णय लेने के लिए वापस भेज दिया है।
न्यायालय के समक्ष मुख्य कानूनी प्रश्न यह था कि क्या यूपी इंटरमीडिएट एजुकेशन एक्ट, 1921 की धारा 16-जी(3)(बी) के तहत किसी कर्मचारी की बर्खास्तगी के प्रस्ताव को अस्वीकार करने से पहले डीआईओएस के लिए प्रबंध समिति को नोटिस जारी करना आवश्यक है। हाईकोर्ट ने माना कि यद्यपि वैधानिक प्रावधान स्पष्ट रूप से अस्वीकृति के मामले में प्रबंधन की सुनवाई का उल्लेख नहीं करता है, लेकिन नैसर्गिक न्याय (Natural Justice) के सिद्धांत इसकी मांग करते हैं।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला लखनऊ स्थित चुटकी भंडार गर्ल्स इंटरमीडिएट कॉलेज से संबंधित है, जो यूपी इंटरमीडिएट एजुकेशन बोर्ड से मान्यता प्राप्त और राज्य सरकार से सहायता प्राप्त (grant-in-aid) संस्था है। तदर्थ प्रधानाचार्य की स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद, कॉलेज में नागरिक शास्त्र की प्रवक्ता डॉ. सुमन शुक्ला (विपक्षी संख्या 6) को 1 मार्च, 2024 को कार्यवाहक प्रधानाचार्य का प्रभार सौंपा गया था।
निर्णय के अनुसार, प्रबंध समिति ने पाया कि डॉ. शुक्ला का व्यवहार “रुखा और अनुचित” था और वह निर्देशों की अवहेलना कर रही थीं। इसके परिणामस्वरूप, 13 जुलाई, 2024 को समिति ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर प्रभार एक अन्य वरिष्ठ शिक्षिका, श्रीमती सुनीता को सौंपने का निर्णय लिया। आरोप है कि डॉ. शुक्ला ने प्रभार सौंपने से इनकार कर दिया। इन परिस्थितियों में समिति ने उन्हें निलंबित कर दिया। डीआईओएस ने 9 जुलाई, 2025 को इस निलंबन को अस्वीकार कर दिया था, जिसे एक अलग याचिका (रिट ए संख्या 8442/2025) में चुनौती दी गई थी और हाईकोर्ट ने 21 नवंबर, 2025 को उस अस्वीकृति आदेश को रद्द कर दिया था।
इस बीच, प्रबंधन द्वारा गठित एक जांच समिति ने डॉ. शुक्ला के खिलाफ अपनी जांच पूरी की। जांच रिपोर्ट के आधार पर, प्रबंध समिति ने 27 जुलाई, 2025 को उन्हें सेवा से बर्खास्त करने की सिफारिश की और अनुमोदन के लिए प्रस्ताव डीआईओएस को भेजा।
26 सितंबर, 2025 को डीआईओएस-द्वितीय, लखनऊ ने बर्खास्तगी की सिफारिश को अस्वीकार करते हुए मामले को वापस कॉलेज को भेज दिया। याचिकाकर्ताओं ने इस आदेश को चुनौती देते हुए तर्क दिया कि उन्हें सुनवाई का अवसर दिए बिना ही यह आदेश पारित किया गया।
पक्षों की दलीलें
याचिकाकर्ताओं का पक्ष: याचिकाकर्ताओं के विद्वान अधिवक्ता श्री एम.बी. सिंह और श्री विकास सिंह ने तर्क दिया कि प्रबंध समिति ने जांच रिपोर्ट पर गहन विचार करने के बाद ही डॉ. शुक्ला की बर्खास्तगी की सिफारिश की थी। उन्होंने कहा कि डीआईओएस ने “प्रबंध समिति को सुने बिना” प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और मामले को वापस भेज दिया, जिससे उनके अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। उनका कहना था कि 26 सितंबर, 2025 का आदेश “नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों” के खिलाफ है और इसे रद्द किया जाना चाहिए।
प्रतिवादियों का पक्ष: राज्य और विपक्षी संख्या 6 की ओर से पेश अधिवक्ताओं, श्री बृजेंद्र सिंह और श्री इंद्र प्रताप सिंह ने इन तर्कों का खंडन किया। उन्होंने तर्क दिया कि चूंकि हाईकोर्ट ने पहले डीआईओएस को निलंबन के मामले पर नए सिरे से निर्णय लेने का निर्देश दिया था, इसलिए जब तक वह निर्णय नहीं हो जाता, तब तक “प्रबंध समिति द्वारा की गई किसी भी सिफारिश/प्रस्ताव पर आगे कोई कार्यवाही नहीं हो सकती।”
न्यायालय का विश्लेषण
न्यायमूर्ति श्री प्रकाश सिंह ने प्रतिवादियों के इस तर्क को खारिज कर दिया कि निलंबन पर लंबित निर्णय बर्खास्तगी की सिफारिश की कार्यवाही को रोकता है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि निलंबन की अस्वीकृति और बर्खास्तगी की सिफारिश “पूरी तरह से अलग चरण” हैं, और जांच या बाद की कार्यवाही जारी रखने पर कोई रोक नहीं है।
एक्ट, 1921 की धारा 16-जी(3)(बी) पर: कोर्ट ने धारा 16-जी(3)(बी) का परीक्षण किया, जो इंस्पेक्टर को दंड को अनुमोदित, अस्वीकृत, कम या बढ़ाने का अधिकार देती है। प्रावधान में स्पष्ट है कि दंड के मामलों में, इंस्पेक्टर आदेश पारित करने से पहले प्रधानाचार्य या शिक्षक को कारण बताओ नोटिस देगा। हालांकि, कोर्ट ने नोट किया:
“…प्रबंध समिति के दंड के प्रस्ताव को अस्वीकार करने की स्थिति में नोटिस जारी करने या सुनवाई का अवसर देने के लिए कोई प्रावधान निर्धारित नहीं किया गया है।”
नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों पर: स्पष्ट वैधानिक जनादेश के अभाव के बावजूद, कोर्ट ने ऑडी अल्टरम पार्टम (किसी को भी बिना सुने दंडित नहीं किया जाना चाहिए) के सिद्धांत का आह्वान किया। कोर्ट ने कहा:
“यह कानून का स्थापित नियम है कि नैसर्गिक न्याय के नियमों की निहित प्रयोज्यता तब तक रहती है जब तक कि वैधानिक प्रावधान विशेष रूप से या आवश्यक निहितार्थ द्वारा, किसी अन्य को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करने वाली शक्ति के प्रयोग में ऐसे नियमों के आवेदन को बाहर नहीं करते।”
कोर्ट ने कूपर बनाम वैंड्सवर्ड्स बोर्ड ऑफ वर्क्स (1863), गोरखा सिक्योरिटी सर्विसेज बनाम सरकार (एनसीटी दिल्ली) और रघुनाथ ठाकुर बनाम बिहार राज्य जैसे कई फैसलों का हवाला दिया, जिसमें यह स्थापित किया गया है कि दीवानी परिणामों (civil consequences) वाले किसी भी निर्णय से पहले नोटिस दिया जाना आवश्यक है।
निष्कर्ष: कोर्ट ने तर्क दिया कि प्रबंध समिति संस्था के प्रशासन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यदि गहन विचार के बाद किए गए दंड के प्रस्ताव को प्रबंधन को सुने बिना अस्वीकार कर दिया जाता है, तो इससे पूर्वाग्रह उत्पन्न होता है। कोर्ट ने कहा:
“वास्तव में, वर्तमान मामले में विपक्षी संख्या 6 के रूखे और अनियंत्रित व्यवहार के बारे में शिकायत थी और यदि प्रबंध समिति को अपने प्रस्ताव/सिफारिश का बचाव करने के लिए सुनवाई का उचित अवसर नहीं दिया जाता है, जो वास्तव में गहन विचार के बाद पारित/दिया गया था, तो अनिवार्य रूप से प्रबंध समिति के प्रति पूर्वाग्रह होगा।”
कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि जहां प्रबंध समिति धारा 16-जी(3)(ए) के तहत सेवा से मुक्ति, निष्कासन, बर्खास्तगी या पदावनति की सिफारिश करती है, वहां “अस्वीकृति का आदेश पारित करने से पहले, ऐसी प्रबंध समिति को पूर्व नोटिस के साथ सुना जाएगा। सुनवाई केवल औपचारिक नहीं होनी चाहिए, बल्कि यह सारगर्भित (substantive) होनी चाहिए।”
निर्णय
हाईकोर्ट ने माना कि विवादित आदेश कानून के पहले सिद्धांत यानी ‘नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत’ के खिलाफ है।
“अतः, 26-09-2025 का विवादित आदेश एतद्द्वारा रद्द किया जाता है।”
कोर्ट ने मामले को जिला विद्यालय निरीक्षक-द्वितीय, लखनऊ को वापस भेज दिया है ताकि वे कानून के प्रावधानों का कड़ाई से पालन करते हुए और “प्रबंध समिति को सुनवाई का अवसर प्रदान करते हुए” छह सप्ताह के भीतर प्रबंध समिति के प्रस्ताव/सिफारिश पर नए सिरे से निर्णय ले सकें।

