सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के उस फैसले को रद्द कर दिया है, जिसमें ‘प्रत्यक्ष अवैधता’ (Patent Illegality) के आधार पर एक मध्यस्थता पंचाट (Arbitral Award) को खारिज कर दिया गया था। जस्टिस अरविंद कुमार और जस्टिस एन.वी. अंजारिया की पीठ ने अपीलकर्ता रमेश कुमार जैन के पक्ष में पंचाट को बहाल करते हुए स्पष्ट किया कि यदि किसी अतिरिक्त कार्य के लिए अनुबंध में दर (Rate) का उल्लेख नहीं है, तो मध्यस्थ द्वारा ‘क्वांटम मेरिट’ (Quantum Meruit) के सिद्धांत के तहत उचित मुआवजा देना अनुबंध को फिर से लिखना (Rewriting the contract) नहीं माना जाएगा।
शीर्ष अदालत ने दोहराया कि मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 (A&C Act) की धारा 37 के तहत अपीलीय अदालत के हस्तक्षेप का दायरा बेहद सीमित है और यह धारा 34 के सीमित मापदंडों के समतुल्य है।
यह अपील छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के एक निर्णय के खिलाफ दायर की गई थी, जिसने धारा 37 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए 15 जुलाई 2012 के मध्यस्थता पंचाट को रद्द कर दिया था। एकमात्र मध्यस्थ (Sole Arbitrator) ने प्रतिवादी, भारत एल्युमिनियम कंपनी लिमिटेड (BALCO) के लिए किए गए अतिरिक्त कार्य के एवज में अपीलकर्ता को वैधानिक ब्याज सहित 3,71,80,584 रुपये का मुआवजा दिया था।
इससे पहले, वाणिज्यिक न्यायालय ने धारा 34 के तहत चुनौती को खारिज करते हुए पंचाट को तर्कसंगत माना था। हालांकि, हाईकोर्ट ने इसे यह कहते हुए पलट दिया कि मध्यस्थ ने “अनुबंध को फिर से लिखा है” और बिना सबूत के फैसला सुनाया है, जो प्रत्यक्ष अवैधता की श्रेणी में आता है। सुप्रीम कोर्ट ने 18 दिसंबर 2025 को अपने फैसले में हाईकोर्ट के आदेश को पलट दिया।
मामले की पृष्ठभूमि
विवाद का मूल बॉक्साइट के खनन और परिवहन के अनुबंध से जुड़ा था। बालको (BALCO) ने मैनपाट खदानों से अपने कोरबा एल्युमिना संयंत्र तक 3,70,000 मीट्रिक टन (MT) बॉक्साइट के खनन और परिवहन के लिए निविदा आमंत्रित की थी। सबसे कम बोली लगाने वाले रमेश कुमार जैन ने 11 दिसंबर 1999 को 634.20 रुपये प्रति मीट्रिक टन की दर से 2,22,000 MT की आपूर्ति के लिए समझौता किया।
तय मात्रा पूरी होने के बाद, बालको ने 5 जनवरी 2002 को एक पत्र के माध्यम से अपीलकर्ता से खनन और परिवहन जारी रखने का अनुरोध किया। पत्र में कहा गया था कि इस अतिरिक्त कार्य के लिए दर “अपीलकर्ता के साथ परामर्श के बाद उचित समय पर तय की जाएगी।” अपीलकर्ता ने जून 2001 से मार्च 2002 के बीच अतिरिक्त 1,95,000 MT बॉक्साइट की आपूर्ति की।
बाद में इस अतिरिक्त कार्य के भुगतान और अन्य दावों को लेकर विवाद उत्पन्न हुआ, जो मध्यस्थता में गया। मध्यस्थ ने अपीलकर्ता को निम्नलिखित मदों में राशि प्रदान की:
- 31,85,000 रुपये: 1,95,000 MT अतिरिक्त कार्य के लिए (10 रुपये प्रति MT की वृद्धि की अनुमति देते हुए)।
- 1,23,06,058 रुपये: ट्रक की क्षमता पर प्रतिबंध के कारण अतिरिक्त परिवहन लागत के लिए।
- 71,36,568 रुपये: हड़ताल की अवधि के दौरान निष्क्रिय जनशक्ति और मशीनरी (Idle manpower and machinery) के लिए।
- विलंबित बिलों पर ब्याज।
पक्षों की दलीलें
अपीलकर्ता का पक्ष: अपीलकर्ता की ओर से उपस्थित वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी ने तर्क दिया कि हाईकोर्ट ने तथ्यात्मक मैट्रिक्स का पुनर्मूल्यांकन करके अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण किया है। उन्होंने कहा कि धारा 37 के तहत अदालत अपील में मेरिट पर नहीं बैठ सकती। दिल्ली एयरपोर्ट मेट्रो एक्सप्रेस (2022) और पारसा केंटे कोलरीज (2019) के फैसलों का हवाला देते हुए, उन्होंने कहा कि “मध्यस्थ अधिकरण साक्ष्यों का स्वामी (Master of evidence) होता है” और तथ्यों के निष्कर्षों की जांच अपील की तरह नहीं की जानी चाहिए।
अतिरिक्त कार्य के संबंध में, उन्होंने तर्क दिया कि यद्यपि प्रतिवादी ने काम का अनुरोध किया था, लेकिन दरें कभी भी सहमत नहीं हुई थीं। उन्होंने कहा कि जहां नुकसान दिखाने के लिए सामग्री मौजूद है, वहां मध्यस्थ को नुकसान की मात्रा निर्धारित करने के लिए “ईमानदार अनुमान” (Honest guesswork) लगाने की अनुमति है।
प्रतिवादी का पक्ष: बालको की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता रंजीत कुमार ने तर्क दिया कि अनुबंध में डीजल भिन्नता क्लॉज के अलावा मूल्य वृद्धि के लिए कोई खंड नहीं था। उन्होंने कहा कि मध्यस्थ ने बिना किसी सबूत के 10 रुपये प्रति MT की दर बढ़ाकर “अनुबंध को फिर से लिखा”, जो 634.20 रुपये की तय दर के विपरीत था।
प्रतिवादी ने तर्क दिया कि पंचाट ‘प्रत्यक्ष अवैधता’ से ग्रस्त था क्योंकि मध्यस्थ ने केवल अप्रमाणित तालिका बयानों (Tabular statements) के आधार पर निष्क्रिय मशीनरी और परिवहन नुकसान के दावों को स्वीकार किया, जो “बिना किसी सबूत” (No evidence) के निर्णय लेने जैसा है।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट ने अधिनियम की धारा 34 और 37 के तहत न्यायिक हस्तक्षेप के दायरे की जांच की। पीठ ने पाया कि हाईकोर्ट ने “तथ्यों का अनुचित पुनर्मूल्यांकन किया और अपनी व्याख्या को प्रतिस्थापित किया,” जो स्वीकार्य नहीं है।
प्रत्यक्ष अवैधता (Patent Illegality) पर: अदालत ने स्पष्ट किया कि ‘प्रत्यक्ष अवैधता’ का अर्थ ऐसी अवैधता है जो पंचाट की जड़ पर प्रहार करती है। जबकि “साक्ष्य का अभाव” (No evidence) प्रत्यक्ष अवैधता हो सकता है, अदालत ने इसे “कमजोर साक्ष्य” (Weak evidence) से अलग किया।
“यदि कुछ साक्ष्य मौजूद हैं, भले ही वह एक गवाह की गवाही हो या दस्तावेजों का एक सेट, जिस पर मध्यस्थ भरोसा कर सकता था… तो अदालत केवल इसलिए निष्कर्ष को प्रत्यक्ष रूप से अवैध नहीं मान सकती क्योंकि उस साक्ष्य का प्रमाणिक मूल्य (Probative value) कम है।”
क्वांटम मेरिट और अनुबंध की चुप्पी पर: कोर्ट ने हाईकोर्ट के इस दृष्टिकोण को खारिज कर दिया कि मध्यस्थ ने 10 रुपये अतिरिक्त देकर अनुबंध को फिर से लिखा। पीठ ने नोट किया कि 5 जनवरी 2002 के पत्र में अतिरिक्त कार्य के लिए प्रतिफल (Consideration) को स्पष्ट रूप से खुला छोड़ दिया गया था।
“ऐसे तथ्यात्मक मैट्रिक्स में, यह नहीं कहा जा सकता कि मध्यस्थ अधिकरण ने अनुबंध को फिर से लिखा या बदल दिया, बल्कि मध्यस्थ ने अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 70 के संदर्भ में उचित मुआवजा निर्धारित करके संविदात्मक व्यवस्था में एक खालीपन (Vacuum) को संबोधित किया, ताकि अन्यायपूर्ण संवर्धन (Unjust enrichment) की संभावना से बचा जा सके।”
अदालत ने कहा कि जहां एक अनुबंध प्राकृतिक संविदात्मक दायित्वों से उत्पन्न होने वाले वैध दावे पर मौन है, वहां मध्यस्थ को बहाली (Restitution) के सिद्धांतों को लागू करने का अधिकार है।
साक्ष्य और अनुमान (Guesswork) पर: हाईकोर्ट के इस निष्कर्ष को संबोधित करते हुए कि पंचाट अनुमान पर आधारित था, सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि मध्यस्थ ने वास्तव में मौखिक और दस्तावेजी साक्ष्यों की जांच की थी। अदालत ने नोट किया कि मध्यस्थ ने उन दावों को खारिज या कम भी किया था जहां साक्ष्य अपर्याप्त थे, जो यह दर्शाता है कि उन्होंने विवेक का प्रयोग किया था।
“आक्षेपित निर्णय में बताई गई त्रुटियां… अकेले या संचयी रूप से, पंचाट को रद्द करने के लिए आवश्यक प्रत्यक्ष अवैधता की श्रेणी में नहीं आती हैं। प्रत्येक निर्णय के लिए कम से कम कुछ साक्ष्य और तार्किक आधार मौजूद थे।”
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने अपील को स्वीकार कर लिया और हाईकोर्ट के 3 मई 2023 के फैसले को रद्द कर दिया। न्यायालय ने वाणिज्यिक न्यायालय, रायपुर के 2 जनवरी 2017 के फैसले को बहाल कर दिया, जिसने 15 जुलाई 2012 के मध्यस्थता पंचाट को सही ठहराया था।
पीठ ने निष्कर्ष निकाला:
“हमारे आकलन में, हाईकोर्ट ने उन चीजों से खुद को विचलित होने दिया जो वास्तव में मध्यस्थता न्यायनिर्णयन में सामान्य सीमा के भीतर हैं… हाईकोर्ट ने मध्यस्थता कानून की मांग से अधिक सख्त प्रमाण के मानक से पंचाट की जांच की।”
केस विवरण:
- केस टाइटल: रमेश कुमार जैन बनाम भारत एल्युमिनियम कंपनी लिमिटेड (BALCO)
- केस नंबर: सिविल अपील संख्या 2025 (SLP (C) No. 14529 of 2023 से उत्पन्न)
- साइटेशन: 2025 INSC 1457
- कोरम: जस्टिस अरविंद कुमार और जस्टिस एन.वी. अंजारिया

