विवाहित व्यक्ति बिना तलाक लिव-इन रिलेशनशिप में नहीं रह सकता: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सुरक्षा देने से किया इनकार

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक लिव-इन रिलेशनशिप में रह रहे जोड़े द्वारा दायर सुरक्षा याचिका को खारिज करते हुए स्पष्ट किया है कि कोई भी विवाहित व्यक्ति सक्षम न्यायालय से तलाक की डिक्री प्राप्त किए बिना किसी तीसरे व्यक्ति के साथ लिव-इन रिलेशनशिप में नहीं रह सकता। कोर्ट ने टिप्पणी की कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal Liberty) का अधिकार असीमित नहीं है और इसके आधार पर किसी जीवित जीवनसाथी के वैधानिक अधिकारों का हनन नहीं किया जा सकता।

मामले की पृष्ठभूमि

याचिकाकर्ताओं ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में रिट-सी संख्या 43194 वर्ष 2025 दायर की थी। उन्होंने परमादेश (Mandamus) की प्रकृति में एक रिट की मांग की थी, जिसमें प्रतिवादीगण को उनके शांतिपूर्ण जीवन में हस्तक्षेप न करने और पुलिस सुरक्षा प्रदान करने का निर्देश देने का अनुरोध किया गया था। याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि वे दोनों वयस्क हैं और पति-पत्नी की तरह एक साथ रह रहे हैं। उन्होंने प्रतिवादी संख्या 4 से अपनी जान को खतरा होने की आशंका जताई थी।

पक्षों की दलीलें

याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व करते हुए अधिवक्ता राजेश कुमार बिंद ने तर्क दिया कि दोनों व्यक्ति बालिग हैं और उन्होंने अपनी मर्जी से एक साथ रहने का फैसला किया है। उन्होंने कहा कि उनके रिश्ते के कारण उन्हें निजी प्रतिवादियों से धमकियां मिल रही हैं, इसलिए उनकी सुरक्षा के लिए न्यायालय का हस्तक्षेप आवश्यक है।

इसके विपरीत, राज्य-प्रतिवादियों की ओर से पेश हुए अपर मुख्य स्थायी अधिवक्ता (Additional Chief Standing Counsel) श्री अश्वनी कुमार त्रिपाठी ने इस प्रार्थना का कड़ा विरोध किया। उन्होंने दलील दी कि याचिकाकर्ताओं का कृत्य अवैध है क्योंकि याचिकाकर्ता संख्या 1 पहले से ही किसी अन्य व्यक्ति से विवाहित है और उसने सक्षम न्यायालय से तलाक की डिक्री प्राप्त नहीं की है।

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सरकारी वकील ने तर्क दिया कि यह विवाद इस न्यायालय के पिछले फैसलों, विशेष रूप से आशा देवी और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, भगवती पथवार और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और श्रीमती सोनम और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य द्वारा पूरी तरह से कवर किया गया है।

कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियां

न्यायमूर्ति विवेक कुमार सिंह की पीठ ने दोनों पक्षों की दलीलें सुनीं। कोर्ट ने माना कि “गोत्र, जाति और धर्म की अवधारणा बहुत पीछे छूट गई है” और दो वयस्कों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार है, लेकिन साथ ही कोर्ट ने यह भी जोर दिया कि ये अधिकार निरंकुश नहीं हैं।

कोर्ट ने महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा:

“स्वतंत्रता का अधिकार या व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार पूर्ण या निरंकुश अधिकार नहीं है, यह कुछ प्रतिबंधों के साथ आता है। एक व्यक्ति की स्वतंत्रता वहीं समाप्त हो जाती है जहां दूसरे व्यक्ति का वैधानिक अधिकार शुरू होता है।”

कोर्ट ने विस्तार से बताया कि एक जीवनसाथी (Spouse) को अपने साथी के साथ रहने का वैधानिक अधिकार है। न्यायमूर्ति सिंह ने कहा:

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“एक जीवनसाथी को अपने साथी का सानिध्य प्राप्त करने का वैधानिक अधिकार है और उसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर उस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है। ऐसी कोई सुरक्षा प्रदान नहीं की जा सकती जो दूसरे जीवनसाथी के वैधानिक अधिकार का उल्लंघन करती हो, इसलिए, एक व्यक्ति की स्वतंत्रता दूसरे व्यक्ति के कानूनी अधिकार पर अतिक्रमण नहीं कर सकती या उससे अधिक भारी नहीं हो सकती।”

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि याचिकाकर्ता पहले से विवाहित है और उसका जीवनसाथी जीवित है, तो उसे तलाक लिए बिना किसी तीसरे व्यक्ति के साथ लिव-इन रिलेशनशिप में रहने की कानूनी अनुमति नहीं दी जा सकती। जज ने नोट किया, “उसे अपनी कानूनी शादी से बाहर किसी रिश्ते में रहने या शादी करने से पहले सक्षम अधिकार क्षेत्र वाली अदालत से तलाक की डिक्री प्राप्त करनी होगी।”

इसके अलावा, कोर्ट ने यह भी बताया कि रिकॉर्ड पर ऐसा कुछ भी नहीं है जो यह दिखाए कि याचिकाकर्ता एक लंबी अवधि से पति-पत्नी की तरह रह रहे थे। संयुक्त खाते, वित्तीय सुरक्षा, संयुक्त संपत्ति या संयुक्त व्यय का कोई सबूत पेश नहीं किया गया।

कोर्ट ने उन रिश्तों को सूचीबद्ध किया जिन्हें लिव-इन रिलेशनशिप या शादी की प्रकृति के रूप में मान्यता नहीं दी गई है, जिनमें शामिल हैं:

  • उपपत्नी (Concubine)।
  • बहुविवाह (Polygamy/Bigamy) – जो आईपीसी की धारा 494 और 495 के तहत अपराध है।
  • पहली शादी के कायम रहते हुए बिना तलाक की डिक्री के बनाया गया रिश्ता।
  • ऐसे व्यक्ति जो कानूनी विवाह करने के लिए अन्यथा योग्य नहीं हैं।
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फैसला

कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि इस मामले में परमादेश (Mandamus) जारी करना कानून के विपरीत होगा। न्यायमूर्ति सिंह ने टिप्पणी की कि मांगी गई सुरक्षा “आईपीसी की धारा 494/495 के तहत अपराध करने के लिए सुरक्षा प्रदान करने के समान हो सकती है।”

कोर्ट ने कहा:

“याचिकाकर्ताओं के पास परमादेश मांगने के लिए कोई कानूनी रूप से संरक्षित और न्यायिक रूप से लागू करने योग्य अधिकार नहीं है।”

नतीजतन, कोर्ट ने बिना तलाक लिए लिव-इन रिलेशनशिप में रह रहे याचिकाकर्ताओं को सुरक्षा देने के लिए कोई भी निर्देश जारी करने से इनकार कर दिया। आशा देवी, भगवती पथवार और सोनम के मामलों में दिए गए निर्णयों और उपरोक्त टिप्पणियों के आलोक में रिट याचिका खारिज कर दी गई।

केस डीटेल्स:

  • केस टाइटल: स और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और 3 अन्य
  • केस नंबर: रिट-सी नंबर 43194 ऑफ 2025
  • पीठ: जस्टिस विवेक कुमार सिंह
  • याचिकाकर्ता के वकील: राजेश कुमार बिंद
  • प्रतिवादी के वकील: सी.एस.सी., अश्वनी कुमार त्रिपाठी (अपर मुख्य स्थायी अधिवक्ता)

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