सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि दहेज निषेध अधिनियम, 1961 के तहत ‘दहेज’ की परिभाषा केवल शादी के समय की गई मांगों तक सीमित नहीं है। कोर्ट ने कहा कि शादी के “समय, पहले या बाद में कभी भी” दी गई या स्वीकार की गई संपत्ति या कीमती वस्तु दहेज के दायरे में आती है। इसके साथ ही, शीर्ष अदालत ने यह भी साफ किया कि इस्लाम में ‘मेहर’ की अवधारणा दहेज से बिल्कुल अलग है और दोनों को समान नहीं माना जा सकता।
यह फैसला जस्टिस संजय करोल और जस्टिस नोंगमीकापम कोटेश्वर सिंह की पीठ ने स्टेट ऑफ यूपी बनाम अजमल बेग आदि के मामले में सुनाया। सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा आरोपियों को बरी करने के फैसले को रद्द करते हुए दहेज हत्या के मामले में पति और सास की सजा को बहाल कर दिया। हालांकि, 94 वर्षीय सास को उनकी उम्र और मानवीय आधार पर जेल भेजने से छूट दी गई है।
दहेज की मांग का समय: कानूनी स्थिति
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने आरोपियों को बरी करते हुए यह तर्क दिया था कि चूंकि शादी से पहले दहेज की कोई मांग नहीं की गई थी, इसलिए यह मानना मुश्किल है कि बाद में ऐसी मांगें की गईं। सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को खारिज करते हुए इसे गलत बताया।
दहेज निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 2 का हवाला देते हुए पीठ ने कहा:
“यह स्पष्ट है कि शादी के किसी भी पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष को… शादी के दिन, उससे पहले या उसके बाद किसी भी समय दी गई कोई भी संपत्ति या कीमती वस्तु दहेज मानी जाएगी।”
अदालत ने कहा कि आरोपियों द्वारा कलर टेलीविजन, मोटरसाइकिल और नकद राशि की मांग दहेज ही मानी जाएगी, चाहे शादी की शुरुआत में ऐसी कोई मांग रही हो या न रही हो।
‘मेहर’ और दहेज में अंतर
सुप्रीम कोर्ट ने “दहेज: एक अंतर-सांस्कृतिक बुराई” (Dowry: A Cross-Cultural Evil) शीर्षक के तहत महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि हालांकि ऐतिहासिक रूप से दहेज हिंदू जाति व्यवस्था से जुड़ा था, लेकिन अब यह अन्य समुदायों में भी फैल गया है। हालांकि, कोर्ट ने इस्लामी प्रथा ‘मेहर’ और सामाजिक बुराई ‘दहेज’ के बीच स्पष्ट अंतर बताया।
कोर्ट ने समझाया:
“इस्लाम में दहेज, सख्त अर्थों में, प्रतिबंधित है। वहां जो निर्धारित है, वह वास्तव में इसका उल्टा है। ‘मेहर’ एक अनिवार्य उपहार है जो दूल्हे को शादी के समय दुल्हन को देना होता है… मेहर का उद्देश्य प्रतीकात्मक और व्यावहारिक दोनों है: यह महिला के प्रति सम्मान दर्शाता है और शादी में उसकी वित्तीय सुरक्षा सुनिश्चित करता है।”
पीठ ने चिंता व्यक्त की कि कई मुस्लिम विवाहों में ‘मेहर’ केवल नाममात्र का रह गया है, जबकि दुल्हन के परिवार से दूल्हे को भारी दहेज दिया जाता है, जो ‘मेहर’ के सुरक्षात्मक उद्देश्य को खत्म कर देता है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला नसरीन नाम की एक 20 वर्षीय युवती की मौत से जुड़ा है, जिसकी शादी के एक साल से कुछ समय बाद ही जलने से मौत हो गई थी। अभियोजन पक्ष ने साबित किया कि नसरीन के पति अजमल बेग और उसके परिवार ने बार-बार कलर टीवी, मोटरसाइकिल और 15,000 रुपये की मांग की थी।
5 जून 2001 को, जब आरोपियों ने इन मांगों को दोहराया और मृतका को धमकी दी, उसके अगले ही दिन वह जली हुई अवस्था में मृत पाई गई। ट्रायल कोर्ट ने पति और सास को आईपीसी की धारा 304-बी (दहेज हत्या) और 498-ए (क्रूरता) के तहत दोषी ठहराया था। हालांकि, हाईकोर्ट ने उन्हें यह कहते हुए बरी कर दिया था कि आरोपी “गरीब लोग” थे और वे इन वस्तुओं का रखरखाव नहीं कर सकते थे, साथ ही शादी से पहले मांग न होने का हवाला दिया था।
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के निष्कर्षों को पलटते हुए टिप्पणी की:
“बस इतना कहना ही काफी है कि यह कारण तर्कसंगत नहीं लगता।”
सजा और मानवीय आधार
सुप्रीम कोर्ट ने पति अजमल बेग और उसकी मां जमीला बेग दोनों की दोषसिद्धि (Conviction) को बहाल कर दिया।
- अजमल बेग: उसे आजीवन कारावास की सजा काटने के लिए चार सप्ताह के भीतर सरेंडर करने का निर्देश दिया गया है।
- जमीला बेग: कोर्ट ने नोट किया कि उनकी वर्तमान आयु 94 वर्ष है। मानवीय आधार पर विचार करते हुए कोर्ट ने कहा:
“वृद्ध अपराधियों के मामले में सजा तय करते समय… न्यायालय को मानवीय पहलुओं पर विचार करना चाहिए, जो यह बताते हैं कि कैद करना अमानवीय हो सकता है… हम उन्हें जेल भेजने से परहेज करते हैं।”
सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी निर्देश
कोर्ट ने पाया कि केवल कानूनी उपाय दहेज की “गहरी जड़ें जमा चुकी बीमारी” को खत्म नहीं कर पाए हैं। इसलिए, कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों, हाईकोर्ट और प्रशासनिक अधिकारियों को निम्नलिखित निर्देश जारी किए:
- शैक्षिक सुधार: सरकारें शैक्षिक पाठ्यक्रम में बदलाव पर विचार करें ताकि यह संदेश दिया जा सके कि शादी के दोनों पक्ष समान हैं और युवाओं को दहेज से बचने की आवश्यकता समझाई जा सके।
- दहेज निषेध अधिकारी: राज्य यह सुनिश्चित करें कि अधिनियम की धारा 8बी के तहत दहेज निषेध अधिकारी नियुक्त किए जाएं। उनके संपर्क विवरण (नाम, फोन नंबर, ईमेल) स्थानीय अधिकारियों द्वारा प्रसारित किए जाने चाहिए।
- अधिकारियों का प्रशिक्षण: ऐसे मामलों से निपटने वाले पुलिस अधिकारियों और न्यायिक अधिकारियों को समय-समय पर प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए ताकि वे इन मामलों के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं को समझ सकें और वास्तविक मामलों के प्रति संवेदनशीलता सुनिश्चित कर सकें।
- शीघ्र निपटान: हाईकोर्ट से अनुरोध किया गया है कि वे धारा 304-बी और 498-ए आईपीसी के तहत लंबित मामलों का जायजा लें और उनका शीघ्र निपटान सुनिश्चित करें।
- जमीनी स्तर पर जागरूकता: जिला प्रशासन और जिला विधिक सेवा प्राधिकरणों को नागरिक समाज को शामिल करते हुए नियमित कार्यशालाएं और जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करने चाहिए ताकि औपचारिक शिक्षा से दूर रहने वाले लोगों तक भी पहुंचा जा सके।
केस डीटेल्स
केस टाइटल: स्टेट ऑफ यूपी बनाम अजमल बेग आदि
केस नंबर: क्रिमिनल अपील नंबर 132-133 ऑफ 2017
साइटेशन: 2025 INSC 1435
कोरम: जस्टिस संजय करोल और जस्टिस नोंगमीकापम कोटेश्वर सिंह

