सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि किसी राज्य के पुनर्गठन मात्र से राज्य अधिनियम के तहत पंजीकृत कोई सहकारी समिति (Cooperative Society) अपने आप मल्टी-स्टेट को-ऑपरेटिव सोसाइटीज एक्ट, 2002 की धारा 103 के तहत ‘बहु-राज्य सहकारी समिति’ (Multi-State Cooperative Society) में परिवर्तित नहीं हो जाती। कोर्ट ने कहा कि धारा 103 के तहत डीमिंग प्रावधान (Deeming Provision) को लागू करने के लिए यह तथ्यात्मक जांच आवश्यक है कि क्या समिति के “उद्देश्य” (Objects) एक से अधिक राज्यों तक विस्तारित हैं या नहीं। केवल “कार्यक्षेत्र” (Area of Operation) या सदस्यों के निवास स्थान का एक से अधिक राज्यों में होना पर्याप्त नहीं है।
जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ ने उत्तर प्रदेश राज्य द्वारा दायर अपीलों को स्वीकार करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2008 के उस फैसले को रद्द कर दिया, जिसने एक सहकारी चीनी मिल पर राज्य के अधिकार को समाप्त कर दिया था।
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मुख्य कानूनी प्रश्न यह था: “क्या मल्टी-स्टेट को-ऑपरेटिव सोसाइटीज एक्ट, 2002 की धारा 103 के आधार पर, संबंधित सहकारी समिति, जो मूल रूप से अपीलकर्ता राज्य (उत्तर प्रदेश) के कानून के तहत पंजीकृत थी, राज्य पुनर्गठन के कारण बहु-राज्य सहकारी समिति में परिवर्तित हो गई है?”
सुप्रीम कोर्ट ने इसका उत्तर नकारात्मक दिया। कोर्ट ने कहा कि धारा 103 केवल तभी लागू होती है जब समिति के “उद्देश्य” एक से अधिक राज्यों तक विस्तारित हों। नतीजतन, कोर्ट ने हाईकोर्ट के उस घोषणा को खारिज कर दिया जिसमें कहा गया था कि चीनी मिल के निजीकरण के संबंध में उत्तर प्रदेश राज्य द्वारा उठाए गए कदम अधिकार क्षेत्र से बाहर थे।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला किसान सहकारी चीनी मिल लिमिटेड से संबंधित था, जो उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जिले के मझोला में स्थित है और उत्तर प्रदेश सहकारी समिति अधिनियम, 1965 (मूल रूप से 1912 अधिनियम के तहत) के तहत पंजीकृत है।
उत्तर प्रदेश राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 2000 के लागू होने के बाद, तत्कालीन उत्तर प्रदेश राज्य को उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में विभाजित कर दिया गया था। वर्ष 2007 में, उत्तर प्रदेश राज्य ने आर्थिक रूप से अलाभकारी सहकारी चीनी मिलों, जिसमें उक्त समिति भी शामिल थी, के निजीकरण के लिए कदम उठाए। इसके लिए यू.पी. को-ऑपरेटिव सोसाइटीज (संशोधन) अध्यादेश, 2007 लाया गया।
समिति के शेयरधारकों (प्रतिवादी) ने इन कदमों को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी। उनका तर्क था कि पुनर्गठन के बाद, समिति मल्टी-स्टेट को-ऑपरेटिव सोसाइटीज एक्ट, 2002 (केंद्रीय अधिनियम) की धारा 103 के तहत एक बहु-राज्य सहकारी समिति बन गई है, क्योंकि इसके सदस्य और संचालन नए राज्य उत्तराखंड तक विस्तारित हैं। इसलिए, यूपी राज्य के पास इसे विनियमित करने की विधायी क्षमता नहीं है।
हाईकोर्ट ने इस दलील को स्वीकार कर लिया था और माना था कि धारा 103 लागू होती है, और राज्य की कार्रवाई को कानूनन शून्य घोषित कर दिया था। इस फैसले के खिलाफ उत्तर प्रदेश राज्य ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी।
पक्षों की दलीलें
अपीलकर्ता-राज्य (उत्तर प्रदेश) का तर्क:
- संबंधित समिति और उसकी चीनी मिल पूरी तरह से उत्तर प्रदेश की सीमा के भीतर स्थित हैं।
- वर्ष 2006 में यूपी और उत्तराखंड के अधिकारियों के बीच हुई संयुक्त बैठक में यह तय हुआ था कि सहकारी चीनी मिलों के संबंध में दोनों राज्यों के बीच कोई वित्तीय दावा शेष नहीं है। यूपी राज्य के पास 95% शेयर हैं।
- केंद्रीय अधिनियम की धारा 103 केवल तभी लागू होती है जब समिति के “उद्देश्य” एक से अधिक राज्यों तक विस्तारित हों। हाईकोर्ट ने “कार्यक्षेत्र” (Area of operation) या सदस्यों के निवास को “उद्देश्य” के साथ मिलाकर देखने में गलती की।
- समिति राज्य अधिनियम के तहत पंजीकृत है और किसी भी केंद्रीय प्राधिकरण ने दशकों तक इस पर नियंत्रण का दावा नहीं किया है।
प्रतिवादियों (शेयरधारकों) का तर्क:
- पुनर्गठन के बाद, कुछ सदस्य उत्तराखंड में निवास करते थे और गन्ने की खरीद उस राज्य के किसानों से की जा रही थी।
- समिति की उप-विधियों (Bye-laws) में “कार्यक्षेत्र” के भीतर वे क्षेत्र शामिल थे जो अब उत्तराखंड (तहसील खटीमा) में हैं।
- सुप्रीम कोर्ट के नरेश शंकर श्रीवास्तव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2009) के फैसले का हवाला देते हुए, उन्होंने तर्क दिया कि जब गतिविधियां एक से अधिक राज्यों तक विस्तारित होती हैं, तो धारा 103 आकर्षित होती है।
कोर्ट का विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट ने मल्टी-स्टेट को-ऑपरेटिव सोसाइटीज एक्ट, 2002 की विस्तृत व्याख्या की।
‘उद्देश्य’ और ‘कार्यक्षेत्र’ के बीच अंतर कोर्ट ने जोर देकर कहा कि धारा 103 विशेष रूप से “समिति के उद्देश्य” (Object of the society) शब्द का उपयोग करती है और “कार्यक्षेत्र” (Area of operation) का उल्लेख नहीं करती है। केंद्रीय अधिनियम की धारा 10(2) का संदर्भ देते हुए, पीठ ने नोट किया कि कानून दोनों के बीच स्पष्ट अंतर करता है।
पीठ की ओर से फैसला लिखते हुए जस्टिस विक्रम नाथ ने कहा:
“इसलिए, जब धारा 103 विशेष रूप से ‘समिति के उद्देश्य’ अभिव्यक्ति का उपयोग करती है, तो उस अभिव्यक्ति के सामान्य और स्वाभाविक अर्थ को ही प्रभाव दिया जाना चाहिए, और व्याख्यात्मक प्रक्रिया द्वारा इसके स्थान पर ‘कार्यक्षेत्र’ की अवधारणा को पढ़ना या प्रतिस्थापित करना स्वीकार्य नहीं होगा।”
सदस्यों के निवास की प्रासंगिकता कोर्ट ने शेयरधारकों के निवास स्थान पर हाईकोर्ट की निर्भरता को खारिज कर दिया। केंद्रीय अधिनियम की धारा 5(1)(ए) की व्याख्या करते हुए, कोर्ट ने कहा कि बहु-राज्य समिति के लिए आवश्यकता यह है कि उसके “मुख्य उद्देश्य एक से अधिक राज्यों में सदस्यों के हितों की सेवा करना” हों।
“अभिव्यक्ति ‘एक से अधिक राज्य’ सदस्यों के निवास या अधिवास (Domicile) से संबंधित नहीं है… दूसरे शब्दों में, सदस्यों की भौगोलिक स्थिति या निवास यह निर्धारित करने के लिए पूरी तरह से अप्रासंगिक है कि कोई सहकारी समिति बहु-राज्य सहकारी समिति का दर्जा प्राप्त करती है या नहीं।”
धारा 103 की प्रयोज्यता कोर्ट ने कहा कि धारा 103 स्वचालित नहीं है। इसके लिए उप-विधियों (Bye-laws) की तथ्यात्मक जांच की आवश्यकता होती है। यदि पुनर्गठन के बाद “उद्देश्य” एक राज्य तक ही सीमित रहते हैं, तो केंद्रीय अधिनियम लागू नहीं होता है।
वर्तमान मामले में, कोर्ट ने पाया कि प्रतिवादियों ने इस बात पर भरोसा किया कि “कार्यक्षेत्र” उत्तराखंड तक फैला हुआ है, लेकिन वे यह दिखाने में विफल रहे कि “उद्देश्य” एक से अधिक राज्यों तक विस्तारित थे। राज्य का यह कथन कि उद्देश्य उत्तर प्रदेश तक सीमित थे, प्रभावी रूप से स्वीकार्य रहा।
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि हाईकोर्ट ने समिति के उद्देश्यों की जांच किए बिना धारा 103 के आधार पर स्वचालित रूपांतरण मानकर गलती की थी।
अपने निष्कर्षों को सारांशित करते हुए, कोर्ट ने कहा:
“धारा 103 के प्रयोजनों के लिए किसी समिति के कार्यक्षेत्र की जांच करना गलत होगा, जब प्रावधान स्वयं केवल समिति के उद्देश्यों की जांच को अनिवार्य बनाता है… सहकारी समिति के सदस्यों का निवास या अधिवास यह निर्धारित करने में कोई असर नहीं डालता है कि समिति बहु-राज्य सहकारी समिति है या नहीं।”
अपीलों को स्वीकार किया गया और हाईकोर्ट के समक्ष दायर रिट याचिकाओं को खारिज कर दिया गया।
केस विवरण:
- केस टाइटल: उत्तर प्रदेश राज्य द्वारा प्रमुख सचिव और अन्य बनाम मिल्कियत सिंह और अन्य आदि
- केस नंबर: सिविल अपील संख्या 7050-7051 ऑफ 2010
- कोरम: जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता

