सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट कर दिया है कि यदि कोई संपत्ति सार्वजनिक परिसर (अनधिकृत अधिभोगियों की बेदखली) अधिनियम, 1971 (Public Premises Act, 1971) की धारा 2(e) के तहत ‘सार्वजनिक परिसर’ (Public Premises) की परिभाषा में आती है, तो वहां अनधिकृत कब्जाधारियों को हटाने के लिए यही अधिनियम लागू होगा। कोर्ट ने माना है कि ऐसे मामलों में राज्यों के किराया नियंत्रण कानून (Rent Control Acts) प्रभावी नहीं होंगे।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि पीपी एक्ट, 1971 (PP Act 1971) का प्रभाव भूतलक्षी (retrospective) है और यह उन किरायेदारियों पर भी लागू होगा जो इस अधिनियम के लागू होने से पहले या संपत्ति के ‘सार्वजनिक परिसर’ बनने से पहले अस्तित्व में थीं।
11 दिसंबर, 2025 को दिए गए इस फैसले में जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस संदीप मेहता और जस्टिस एन.वी. अंजारिया की तीन-जजों की पीठ ने 2014 के सुहास एच. पोफले बनाम ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड मामले में दो-जजों की पीठ द्वारा दिए गए फैसले को खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि पुराना फैसला “स्टेयर डेसीसिस” (stare decisis – पूर्व निर्णय का सिद्धांत) के सिद्धांत का उल्लंघन था और कानूनी रूप से गलत था।
कानूनी मुद्दा और निष्कर्ष
इस मामले में तीन-जजों की पीठ के सामने मुख्य सवाल यह था कि क्या 1971 के अधिनियम के लागू होने से पहले किराए पर दी गई संपत्तियों के मामले में पीपी एक्ट, 1971 राज्य के किराया नियंत्रण कानूनों पर प्रभावी होगा। कोर्ट को यह तय करना था कि क्या उन किरायेदारों के बीच कोई अंतर किया जा सकता है जो अधिनियम लागू होने से पहले (या संपत्ति के सार्वजनिक परिसर बनने से पहले) परिसर में आए थे और जो बाद में आए।
सुप्रीम कोर्ट ने सुहास एच. पोफले (2014) और संविधान पीठ के अशोक मार्केटिंग लिमिटेड बनाम पंजाब नेशनल बैंक (1990) के फैसलों के बीच के विरोधाभास को हल करते हुए यह निर्णय लिया कि पीपी एक्ट 1971 किराया नियंत्रण कानूनों पर हावी रहेगा। कोर्ट ने साफ किया कि पीपी एक्ट को लागू करने के लिए ‘कब्जे की तारीख’ मायने नहीं रखती, बल्कि ‘अनधिकृत कब्जे’ (unauthorised occupation) का तथ्य महत्वपूर्ण है।
मामले की पृष्ठभूमि
मुख्य अपील, लाइफ इंश्योरेंस कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (LIC) बनाम विटा प्रा. लि., मुंबई में एलआईसी के स्वामित्व वाली एक संपत्ति से संबंधित थी। इसमें किरायेदारी 1957 में शुरू हुई थी। पीपी एक्ट 1971, 23 अगस्त 1971 को लागू हुआ था, जिसे 16 सितंबर 1958 से पूर्वव्यापी प्रभाव दिया गया था।
एलआईसी ने 2009 में संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882 (Transfer of Property Act) की धारा 106 के तहत नोटिस जारी करके किरायेदारी समाप्त कर दी और इसके बाद पीपी एक्ट 1971 के तहत बेदखली की कार्यवाही शुरू की। एस्टेट ऑफिसर ने बेदखली का आदेश दिया, जिसे सिटी सिविल कोर्ट ने बरकरार रखा। हालांकि, बॉम्बे हाईकोर्ट ने सुहास एच. पोफले मामले का हवाला देते हुए बेदखली के आदेश को रद्द कर दिया था। हाईकोर्ट का तर्क था कि चूंकि किरायेदारी 16 सितंबर 1958 से पहले की थी, इसलिए इसे बॉम्बे रेंट एक्ट, 1947 के तहत संरक्षण प्राप्त है और यह पीपी एक्ट के दायरे से बाहर है।
पक्षों की दलीलें
अपीलकर्ता (एलआईसी और अन्य बीमा कंपनियां) की ओर से भारत के अटॉर्नी जनरल ने तर्क दिया कि सुहास एच. पोफले के फैसले ने अधिनियम से पहले और बाद के किरायेदारों के बीच जो अंतर किया है, वह “कृत्रिम” है और अशोक मार्केटिंग मामले में पांच-जजों की संविधान पीठ के फैसले के विपरीत है। उन्होंने जोर दिया कि पीपी एक्ट 1971 एक विशेष कानून है जिसे तेजी से बेदखली के लिए बनाया गया है, इसलिए इसे किराया नियंत्रण कानूनों पर वरीयता मिलनी चाहिए, चाहे किरायेदारी कभी भी शुरू हुई हो।
दूसरी ओर, उत्तरदाताओं (किरायेदारों) ने तर्क दिया कि उन्हें राज्य किराया नियंत्रण कानूनों (विशेष रूप से महाराष्ट्र किराया नियंत्रण अधिनियम, 1999) के तहत संरक्षण प्राप्त है और उन्हें “अनधिकृत कब्जाधारी” नहीं कहा जा सकता। उन्होंने सुहास एच. पोफले के फैसले का सहारा लेते हुए कहा कि किराया अधिनियमों के तहत उनके निहित अधिकारों को पूर्वव्यापी रूप से छीना नहीं जा सकता और पीपी एक्ट केवल भविष्यलक्षी (prospective) रूप से लागू होना चाहिए।
कोर्ट का विश्लेषण
जस्टिस एन.वी. अंजारिया ने फैसले में पुराने नजीरों का विस्तृत विश्लेषण किया।
अशोक मार्केटिंग मामले की अनदेखी: कोर्ट ने पाया कि 1990 में अशोक मार्केटिंग मामले में संविधान पीठ ने स्पष्ट रूप से कहा था कि पीपी एक्ट 1971 एक विशेष कानून है जो किराया नियंत्रण अधिनियम पर प्रभावी होता है। पीठ ने अशोक मार्केटिंग के फैसले को उद्धृत करते हुए कहा कि पीपी एक्ट के प्रावधान, जहां तक वे किराया नियंत्रण अधिनियम के दायरे में आने वाले परिसरों को कवर करते हैं, किराया नियंत्रण अधिनियम के प्रावधानों पर हावी होंगे।
सुहास एच. पोफले का फैसला गलत: पीठ ने सुहास एच. पोफले के फैसले की आलोचना की, जिसने तारीखों के आधार पर कुछ कब्जाधारियों को पीपी एक्ट से बाहर रखा था। कोर्ट ने कहा कि इस फैसले ने बड़ी बेंच के पहले के निर्णयों, विशेष रूप से अशोक मार्केटिंग और मेसर्स जैन इंक मैन्युफैक्चरिंग कंपनी बनाम एलआईसी (1980) के फैसलों का खंडन किया और उनकी अनदेखी की।
न्यायिक अनुशासन: कोर्ट ने सुहास एच. पोफले मामले में न्यायिक अनुशासन के उल्लंघन पर कड़ी टिप्पणी की। कोर्ट ने कहा:
“सुहास एच. पोफले मामले में दो-जजों की पीठ द्वारा न्यायिक मिसाल (Precedent) के कानून की पूरी तरह अनदेखी की गई। इसे न्यायिक अनुशासनहीनता, या न्यायिक अनौचित्य के रूप में देखा जा सकता है।”
कोर्ट ने जोर देकर कहा कि छोटी बेंच कानून को “स्पष्ट” करने की आड़ में बड़ी बेंच के विपरीत दृष्टिकोण नहीं अपना सकती।
फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने सुहास एच. पोफले के फैसले को पलट दिया और संदर्भ का उत्तर देते हुए निम्नलिखित प्रमुख निष्कर्ष निकाले:
- प्रभावी होगा पीपी एक्ट: पीपी एक्ट 1971 राज्य किराया नियंत्रण अधिनियमों पर प्रभावी होगा। धारा 2(e) के तहत ‘सार्वजनिक परिसर’ में अनधिकृत कब्जे वाला व्यक्ति किराया नियंत्रण अधिनियम के संरक्षण की मांग नहीं कर सकता।
- पुरानी किरायेदारी पर भी लागू: पीपी एक्ट 1971 उन किरायेदारियों पर भी लागू होता है जो अधिनियम के लागू होने से पहले या बाद में अस्तित्व में आई थीं।
- लागू होने की दो शर्तें: कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अधिनियम लागू होने के लिए दो शर्तें पूरी होनी चाहिए:
- पहला, किराए का परिसर पीपी एक्ट 1971 की धारा 2(e) के तहत परिभाषा के दायरे में आना चाहिए।
- दूसरा, परिसर अनधिकृत कब्जे (unauthorised occupation) में होना चाहिए।
- अनधिकृत कब्जा: संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882 की धारा 106 के तहत नोटिस जारी करके किरायेदारी समाप्त करना कब्जे को अनधिकृत बना देता है। यह नियम अधिनियम से पहले या बाद में बनाई गई किरायेदारियों पर समान रूप से लागू होता है।
- कब्जे की तारीख अप्रासंगिक: पीपी एक्ट का उपयोग इस बात पर निर्भर नहीं करता कि कब्जा कब शुरू हुआ था, बल्कि इस तथ्य पर निर्भर करता है कि कब्जा अनधिकृत है।
कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि सुहास एच. पोफले में प्रतिपादित सिद्धांत कानून की सही स्थिति को नहीं दर्शाते और उस हद तक खारिज माने जाएंगे।
केस विवरण:
- केस टाइटल: लाइफ इंश्योरेंस कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया और अन्य बनाम विटा प्राइवेट लिमिटेड और अन्य (तथा अन्य संबद्ध मामले)
- केस संख्या: सिविल अपील संख्या 2638/2023
- निर्णय की तिथि: 11 दिसंबर, 2025
- कोरम: जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस संदीप मेहता और जस्टिस एन.वी. अंजारिया
- उद्धरण (Citation): 2025 INSC 1419

