लोक अदालत के अवार्ड को चुनौती देने के लिए केवल रिट याचिका ही एकमात्र उपाय; निष्पादन न्यायालय डिक्री को रद्द नहीं कर सकता: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि लोक अदालत द्वारा पारित अवार्ड (फैसले) को चुनौती देने के लिए संविधान के अनुच्छेद 226 और 227 के तहत हाईकोर्ट में रिट याचिका दायर करना ही एकमात्र मान्य कानूनी उपाय है। शीर्ष अदालत ने व्यवस्था दी है कि भले ही किसी पक्ष ने निष्पादन न्यायालय (Executing Court) के समक्ष आपत्तियां दर्ज कराई हों, यह उसे बाद में रिट याचिका दायर करने से नहीं रोकता। कोर्ट ने कहा कि निष्पादन न्यायालय के पास लोक अदालत के अवार्ड या उसके आधार पर तैयार की गई डिक्री को रद्द करने का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है, चाहे आरोप धोखाधड़ी का ही क्यों न हो।

जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ ने मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के उस फैसले को रद्द कर दिया, जिसमें अपीलकर्ता की रिट याचिका को केवल इस आधार पर खारिज कर दिया गया था कि उसने पहले ही निष्पादन न्यायालय के समक्ष अपनी आपत्तियां दर्ज करा दी थीं।

मामले की पृष्ठभूमि

यह अपील (दिलीप मेहता बनाम राकेश गुप्ता एवं अन्य) जबलपुर में एक संपत्ति विवाद से जुड़ी है। अपीलकर्ता, दिलीप मेहता का दावा था कि उन्होंने 17 फरवरी, 2016 को पंजीकृत बिक्री विलेख (Sale Deed) के माध्यम से मूल मालिक श्रीमती सिया बाई के पति और एकमात्र वारिस से संपत्ति खरीदी थी और वे वास्तविक खरीदार हैं।

दूसरी ओर, प्रतिवादी संख्या 1 और 2 ने प्रतिवादी संख्या 3 (जिसके पास पावर ऑफ अटॉर्नी थी) द्वारा निष्पादित 21 जनवरी, 2009 के ‘एग्रीमेंट टू सेल’ के आधार पर उसी संपत्ति पर अधिकार का दावा किया। उन्होंने प्रतिवादी संख्या 3 के खिलाफ ‘स्पेसिफिक परफॉरमेंस’ का मुकदमा दायर किया, जिसमें न तो अपीलकर्ता को और न ही मूल मालिक के वारिसों को पक्षकार बनाया गया।

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इस मुकदमे में एक समझौता हुआ और जबलपुर की लोक अदालत ने 14 मई, 2022 को इस समझौते के आधार पर एक अवार्ड पारित कर दिया। इसके बाद प्रतिवादी संख्या 1 और 2 के पक्ष में बिक्री विलेख निष्पादित किया गया और डिक्री को लागू करने के लिए निष्पादन कार्यवाही शुरू की गई।

जब पुलिस कब्जा लेने के लिए संपत्ति पर पहुंची, तब अपीलकर्ता को इस कार्यवाही की जानकारी मिली। इसके बाद उन्होंने निष्पादन मामले में सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के आदेश XXI नियम 101 के तहत आपत्तियां दर्ज कराईं। साथ ही, उन्होंने हाईकोर्ट में एक रिट याचिका दायर कर आरोप लगाया कि लोक अदालत का अवार्ड धोखाधड़ी और मिलीभगत से प्राप्त किया गया था। हाईकोर्ट ने यह कहते हुए याचिका खारिज कर दी थी कि चूंकि अपीलकर्ता ने निष्पादन कार्यवाही में आपत्तियां उठाई हैं, इसलिए वे समानांतर रिट कार्यवाही नहीं चला सकते।

पक्षों की दलीलें

अपीलकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता श्री सिद्धार्थ भटनागर ने तर्क दिया कि समझौता डिक्री अपीलकर्ता की पीठ पीछे धोखाधड़ी से प्राप्त की गई थी। उन्होंने दलील दी कि निष्पादन न्यायालय के पास लोक अदालत के अवार्ड को रद्द करने की शक्ति नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के ‘स्टेट ऑफ पंजाब बनाम जलौर सिंह’ (2008) और ‘भार्गवी कंस्ट्रक्शंस बनाम कोठाकापू मुथ्यम रेड्डी’ (2018) के फैसलों का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि ऐसे अवार्ड को रद्द करने का एकमात्र उपाय रिट याचिका है। उन्होंने कहा कि निष्पादन न्यायालय में दायर आपत्तियां केवल कब्जे को बचाने के लिए एक “रक्षात्मक और अस्थायी कदम” थीं।

प्रतिवादियों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता श्री रविंद्र श्रीवास्तव ने तर्क दिया कि अपीलकर्ता एक तीसरा पक्ष (Third Party) है और वह CPC के आदेश XXI नियम 97, 99 और 101 के तहत निष्पादन न्यायालय के समक्ष अधिकार, शीर्षक और धोखाधड़ी सहित सभी प्रश्नों पर निर्णय प्राप्त कर सकता है। उनका कहना था कि एक बार निष्पादन न्यायालय का दरवाजा खटखटाने के बाद, अपीलकर्ता समानांतर रिट याचिका दायर नहीं कर सकता।

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न्यायालय का विश्लेषण और टिप्पणियाँ

सुप्रीम कोर्ट ने ‘विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987’ (LSA Act) की धारा 21 और 22E का विश्लेषण किया, जो यह आदेश देती हैं कि लोक अदालत के अवार्ड अंतिम और बाध्यकारी होते हैं और उन्हें सिविल कोर्ट की डिक्री माना जाता है।

‘स्टेट ऑफ पंजाब बनाम जलौर सिंह’ के मामले का उल्लेख करते हुए, कोर्ट ने दोहराया कि चुनौती का “एकमात्र मान्यता प्राप्त मार्ग हाईकोर्ट का संवैधानिक क्षेत्राधिकार है।”

पीठ ने स्पष्ट किया कि निष्पादन न्यायालय की भूमिका केवल अवार्ड को लागू करने तक सीमित है। कोर्ट ने कहा:

“इसे (निष्पादन न्यायालय को) स्वयं अवार्ड को या उसकी शर्तों में तैयार की गई डिक्री को रद्द करने या निरस्त करने का कोई अधिकार नहीं है, और न ही यह उस समझौते की वैधता पर निर्णय ले सकता है जिस पर लोक अदालत ने कार्यवाही की। ऐसी निष्पादन कार्यवाही में आपत्तियों को अवार्ड को चुनौती देने के लिए ‘प्रभावी वैकल्पिक उपाय’ मानना वैधानिक योजना के असंगत है।”

CPC के आदेश XXI के प्रावधानों पर कोर्ट ने टिप्पणी की कि हालांकि निष्पादन न्यायालय प्रवर्तन (enforcement) से संबंधित आकस्मिक प्रश्नों का समाधान कर सकता है, लेकिन वह समझौते को दोबारा नहीं खोल सकता। कोर्ट ने कहा:

“वे (CPC के नियम) निष्पादन न्यायालय को प्रतिरोध, बाधा या बेदखली के न्यायनिर्णयन की आड़ में उस समझौते को फिर से खोलने, अवार्ड की वैधता की जांच करने, या उस पर आधारित डिक्री को शून्य घोषित करने के लिए अधिकृत नहीं करते हैं।”

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कोर्ट ने यह भी माना कि अपीलकर्ता द्वारा आपत्तियां दायर करना बेदखली के तत्काल खतरे से प्रेरित एक “रक्षात्मक कदम” था। कोर्ट ने कहा:

“बेदखली के आसन्न खतरे से मजबूर होकर निष्पादन का सहारा लेने को, उपाय का ऐसा चुनाव (Election of Remedy) नहीं माना जा सकता जो लोक अदालत के अवार्ड को चुनौती देने के लिए कानून द्वारा मान्यता प्राप्त एकमात्र प्रभावी मार्ग, यानी हाईकोर्ट के समक्ष रिट याचिका, को बंद कर दे।”

निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के फैसलों को रद्द कर दिया।

  1. रिमांड: मामले को गुण-दोष (Merits) के आधार पर नए सिरे से निर्णय लेने के लिए हाईकोर्ट को वापस भेज दिया गया।
  2. आपत्तियां वापस लेना: कोर्ट ने अपीलकर्ता को निर्देश दिया कि वह चार सप्ताह के भीतर निष्पादन मामले में CPC के आदेश XXI नियम 101 के तहत दायर अपनी आपत्तियां वापस ले ले।
  3. अंतरिम सुरक्षा: मामले की विषय-वस्तु को संरक्षित करने के लिए, कोर्ट ने निर्देश दिया कि जब तक हाईकोर्ट मामले का अंतिम निपटारा नहीं करता, तब तक अपीलकर्ता को लोक अदालत के अवार्ड/डिक्री के अनुपालन में संपत्ति से बेदखल नहीं किया जाएगा।

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि उसने धोखाधड़ी, मिलीभगत या टाइटल (स्वामित्व) के तथ्यात्मक आरोपों पर कोई राय व्यक्त नहीं की है और ये मुद्दे हाईकोर्ट के विचार के लिए खुले छोड़ दिए गए हैं।

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