आर्थिक नीतियों को चुनौती देने के लिए जनहित याचिका का उपयोग नहीं किया जा सकता; हाईकोर्ट का हस्तक्षेप केवल संवैधानिक दायित्वों की अवहेलना पर ही जायज: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि आर्थिक या राजकोषीय नीतियों (Economic/Fiscal Policy) को चुनौती देने के लिए जनहित याचिका (PIL) का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। शीर्ष अदालत ने बॉम्बे हाईकोर्ट (नागपुर बेंच) के उस फैसले को रद्द कर दिया है, जिसके तहत अकोला नगर निगम द्वारा संपत्ति कर (Property Tax) की दरों में संशोधन के निर्णय को खारिज कर दिया गया था।

जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा कि हाईकोर्ट ने अनुच्छेद 226 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का उल्लंघन किया है। कोर्ट ने माना कि 16 साल के अंतराल के बाद कर में संशोधन न केवल उचित था, बल्कि नगर निकाय का वैधानिक दायित्व (Statutory Obligation) भी था।

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला अकोला नगर निगम द्वारा संपत्ति कर में संशोधन से जुड़ा है। निगम ने वर्ष 2001-02 के बाद से संपत्ति कर का पुनर्मूल्यांकन नहीं किया था। 2017 में, निगम ने कर संरचना में संशोधन की प्रक्रिया शुरू की।

इस निर्णय के खिलाफ डॉ. जीशान हुसैन, जो पेशे से डॉक्टर और अकोला नगर निगम के पार्षद (Corporator) भी थे, ने बॉम्बे हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की। उन्होंने आरोप लगाया कि कर वृद्धि अवैध और मनमानी है। हाईकोर्ट ने 9 अक्टूबर 2019 को अपने फैसले में निगम के प्रस्ताव को रद्द कर दिया था, जिसे निगम ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी।

पक्षों की दलीलें

अकोला नगर निगम का पक्ष: निगम की ओर से तर्क दिया गया कि संपत्ति कर उसकी आय का मुख्य स्रोत है और पिछले 16 वर्षों से इसमें कोई बदलाव नहीं किया गया था। शहर में निर्माण और आबादी बढ़ने के बावजूद पुरानी दरों से प्राप्त राजस्व विकास कार्यों के लिए अपर्याप्त था। निगम ने बताया कि 2016 में जीआईएस (GIS) आधारित सर्वेक्षण और मूल्यांकन के लिए एक तकनीकी सलाहकार नियुक्त करने हेतु ई-टेंडर जारी किया गया था। निगम ने जोर देकर कहा कि कर संशोधन का मामला पूरी तरह से उसके अधिकार क्षेत्र में आता है।

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प्रतिवादी (मूल याचिकाकर्ता) का पक्ष: याचिकाकर्ता डॉ. जीशान हुसैन ने तर्क दिया था कि कर वृद्धि में प्रक्रियात्मक अनियमितताएं थीं और यह मनमाने ढंग से किया गया था। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट में दाखिल जवाबी हलफनामे में प्रतिवादी ने स्वीकार किया कि उनकी जनहित याचिका में निगम द्वारा कर लगाने के अधिकार या क्षमता को चुनौती नहीं दी गई थी, बल्कि उनका विरोध केवल अपनाई गई प्रक्रिया तक सीमित था।

कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियां

सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता के ‘लोकस स्टैंडी’ (सुनाई जाने का अधिकार) और आर्थिक मामलों में न्यायिक समीक्षा के दायरे पर विस्तृत चर्चा की।

1. जनहित याचिका की प्रकृति और लोकस स्टैंडी: पीठ ने पाया कि याचिकाकर्ता स्वयं एक पार्षद थे, इसलिए उन्हें संस्था के कामकाज की जानकारी थी। कोर्ट ने कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा कि यह जनहित के नाम पर एक “व्यक्तिगत शिकायत” थी।

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“जनहित में दायर की गई यह रिट याचिका वास्तव में संपत्ति कर बढ़ाने के प्रस्ताव के खिलाफ वैधानिक अपील दायर करने से बचने के लिए एक चाल (Subterfuge) के अलावा और कुछ नहीं थी।”

कोर्ट ने यह भी noted किया कि याचिकाकर्ता ने निजी कंसल्टेंसी को दिए गए टेंडर पर सवाल उठाए थे, जिससे “व्यावसायिक हितों के टकराव” की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।

2. आर्थिक नीति में न्यायिक समीक्षा की सीमाएं: सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जब तक कोई नीति असंवैधानिक न हो, कोर्ट को आर्थिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। पीठ ने कहा कि हाईकोर्ट ने निगम के फैसले की जगह अपनी राय रखकर न्यायिक समीक्षा के स्थापित सिद्धांतों का उल्लंघन किया है।

कोर्ट ने निम्नलिखित पूर्व नजीरों (Precedents) का हवाला दिया:

  • श्री सीताराम शुगर कंपनी लिमिटेड बनाम भारत संघ (1990): कोर्ट ने दोहराया कि न्यायिक समीक्षा का संबंध आर्थिक नीति के मामलों से नहीं है और कोर्ट विशेषज्ञों की राय की जगह अपने विचार नहीं थोप सकता।
  • बालको कर्मचारी संघ बनाम भारत संघ (2002): कोर्ट ने कहा कि आर्थिक नीतियों की बुद्धिमत्ता (Wisdom) न्यायिक समीक्षा के अधीन नहीं है, जब तक कि संवैधानिक दायित्वों की अवहेलना न हो रही हो।
  • किर्लोस्कर फेरस इंडस्ट्रीज लिमिटेड बनाम भारत संघ (2025): कोर्ट ने ‘न्यायिक संयम’ (Judicial Restraint) के सिद्धांत पर जोर देते हुए कहा कि अदालतों को नीति-निर्माताओं की विशेषज्ञता का सम्मान करना चाहिए।
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पीठ ने स्पष्ट शब्दों में कहा:

“अदालत विधायिका या उसके एजेंटों के अधिकार क्षेत्र में आने वाले मामलों में अपने फैसले को प्रतिस्थापित (Substitute) नहीं कर सकती।”

3. कर संशोधन का औचित्य: राजस्व की आवश्यकता पर कोर्ट ने कहा कि वित्तीय स्वायत्तता (Financial Autonomy) प्रशासनिक स्वायत्तता का एक आवश्यक अंग है। यदि स्वतंत्र राजस्व तंत्र नहीं होगा, तो नगर निकायों के गठन का उद्देश्य ही विफल हो जाएगा। कोर्ट ने माना कि 16 साल तक कर दरों को स्थिर रखना अधिकारियों की ओर से “घोर लापरवाही” को दर्शाता है और कर दरों में संशोधन करना निगम का वैधानिक दायित्व था।

निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि हाईकोर्ट द्वारा आर्थिक नीति के निर्णय में हस्तक्षेप करना उचित नहीं था। कोर्ट ने कहा कि जब तक प्रक्रिया पूरी तरह से मनमानी या कानून का उल्लंघन न करती हो, तब तक न्यायिक समीक्षा की शक्ति का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए।

परिणामस्वरूप, सुप्रीम कोर्ट ने अकोला नगर निगम की अपील को स्वीकार करते हुए बॉम्बे हाईकोर्ट के 9 अक्टूबर 2019 के फैसले और उसके बाद के समीक्षा आदेश को रद्द (Set Aside) कर दिया।

मामले का विवरण:

  • केस का नाम: अकोला म्युनिसिपल कॉरपोरेशन और अन्य बनाम जीशान हुसैन अजहर हुसैन और अन्य
  • केस नंबर: सिविल अपील संख्या 12488-12489 ऑफ 2024
  • कोरम: जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता

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