सुप्रीम कोर्ट ने झारखंड सरकार के निबंधन विभाग (Department of Registration) के प्रधान सचिव द्वारा जारी उस मेमो को रद्द कर दिया है, जिसमें सहकारी समितियों (Cooperative Societies) को संपत्ति हस्तांतरण पर स्टाम्प ड्यूटी में छूट पाने के लिए सहायक निबंधक (Assistant Registrar) की सिफारिश को अनिवार्य बनाया गया था।
जस्टिस पामिदिघंटम श्री नरसिम्हा और जस्टिस अतुल एस. चंदुरकर की खंडपीठ ने अपने फैसले में स्पष्ट किया कि यह अतिरिक्त शर्त “फालतू और अनावश्यक” (Superfluous and unnecessary) थी। कोर्ट ने व्यवस्था दी कि कार्यपालिका के ऐसे आदेश जो बिना किसी वैध कारण के अत्यधिक और अनावश्यक शर्तें थोपते हैं, वे अवैध माने जाएंगे।
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मुख्य कानूनी सवाल यह था कि क्या राज्य सरकार एक प्रशासनिक आदेश (Memo) के जरिए सहकारी समितियों को मिलने वाली वैधानिक छूट (Statutory Exemption) के लिए एक नई शर्त जोड़ सकती है? कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए झारखंड हाईकोर्ट के फैसले को पलट दिया और कहा कि यह मेमो “अप्रासंगिक विचारों” पर आधारित था और कानून की मंशा के विपरीत था।
मामले की पृष्ठभूमि
यह विवाद वर्ष 2009 में शुरू हुआ जब निबंधन विभाग के प्रधान सचिव (प्रतिवादी संख्या 2) ने 20 फरवरी 2009 को मेमो संख्या 494 जारी किया। इस मेमो में सभी जिला उप-निबंधकों को निर्देश दिया गया कि भारतीय स्टाम्प (बिहार संशोधन) अधिनियम, 1988 की धारा 9A के तहत स्टाम्प ड्यूटी में छूट तभी दी जाएगी जब सहायक निबंधक, सहयोग समितियां (Assistant Registrar, Cooperative Society) इसकी सिफारिश करेंगे।
धारा 9A के तहत पंजीकृत सहकारी समितियों द्वारा अपने सदस्यों को परिसर (Premises) हस्तांतरित करने पर स्टाम्प ड्यूटी का भुगतान करने से छूट का प्रावधान है।
अपीलकर्ता, आदर्श सहकारी गृह निर्माण स्वावलंबी समिति लिमिटेड, जो झारखंड स्वावलंबी सहकारी समिति अधिनियम, 1996 के तहत पंजीकृत है, ने इस मेमो को चुनौती दी। उनका तर्क था कि इस आदेश ने संपत्ति हस्तांतरण की प्रक्रिया को बाधित किया है। इससे पहले, झारखंड हाईकोर्ट की सिंगल और डिवीजन बेंच ने यह कहते हुए न्यायिक समीक्षा से इनकार कर दिया था कि यह निर्देश केवल वैध समितियों को लाभ देने और फर्जी समितियों को रोकने के लिए जरूरी है।
पक्षों की दलीलें
अपीलकर्ता (सोसाइटी) का तर्क: अपीलकर्ता ने कोर्ट के समक्ष निम्नलिखित तर्क रखे:
- सहायक निबंधक की मंजूरी की अनिवार्यता ने एक “नया स्तर” (New Tier) बना दिया है, जो स्टाम्प अधिनियम के अधिकार क्षेत्र से बाहर (Ultra Vires) है।
- यह मेमो 1996 के अधिनियम के तहत सहकारी समितियों की स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता का हनन करता है।
- रजिस्ट्रेशन एक्ट, 1908 के तहत सहायक निबंधक के पास हस्तांतरण को मंजूरी देने या अस्वीकार करने का कोई अधिकार नहीं है।
- यह मेमो जारी करने से पहले सुनवाई का कोई अवसर नहीं दिया गया, जो प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन है।
प्रतिवादी (झारखंड राज्य) का तर्क: राज्य की ओर से अधिवक्ता कुमार अनुराग सिंह ने तर्क दिया कि:
- यह निर्देश धारा 9A की भावना के अनुरूप है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि “फर्जी सहकारी समितियां छूट का लाभ न उठा सकें।”
- प्रधान सचिव सक्षम प्राधिकारी हैं और स्टाम्प ड्यूटी के उचित भुगतान को सुनिश्चित करने के लिए प्रशासनिक निर्देश जारी कर सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट ने प्रशासनिक कानून और सुशासन (Good Governance) के सिद्धांतों के आधार पर इस मेमो की वैधता की जांच की।
1. शासन में सरलता का सिद्धांत फैसले की शुरुआत करते हुए कोर्ट ने टिप्पणी की कि “सार्वजनिक लेनदेन में सरलता ही सुशासन है।” प्रशासनिक प्रक्रियाओं को स्पष्ट होना चाहिए और “अनावश्यक आवश्यकताओं” से बचना चाहिए। पीठ ने कहा:
“प्रशासनिक प्रक्रियाओं में जटिलता, फालतू आवश्यकताओं और अनावश्यक बोझ से बचना चाहिए, जो समय और खर्च को बर्बाद करते हैं और मानसिक शांति भंग करते हैं।”
2. अप्रासंगिक विचार और अवैधता कोर्ट ने इस सिद्धांत को दोहराया कि अनावश्यक या अत्यधिक आवश्यकताओं को अनिवार्य बनाने वाले कार्यकारी कार्य अवैध होते हैं। यद्यपि राज्य का उद्देश्य फर्जी समितियों को रोकना था, लेकिन इसके लिए अपनाया गया तरीका “अप्रासंगिक विचारों” पर आधारित था।
“अप्रासंगिक विचार में ऐसे कार्यों या दस्तावेजों की मांग शामिल है, जिनका कानून या नीति के उद्देश्य से कोई संबंध नहीं है और न ही वे उसमें कोई मूल्य जोड़ते हैं।”
3. अस्तित्व का निर्णायक प्रमाण (Conclusive Proof) कोर्ट ने झारखंड स्वावलंबी सहकारी समिति अधिनियम, 1996 की धारा 5(7) का विश्लेषण किया। यह धारा स्पष्ट करती है कि रजिस्ट्रार द्वारा हस्ताक्षरित पंजीकरण प्रमाण पत्र समिति के अस्तित्व का “निर्णायक साक्ष्य” (Conclusive Evidence) है। चूंकि समिति पहले से ही एक निगमित निकाय (Body Corporate) है और अनुबंध करने में सक्षम है, इसलिए सिफारिश की अतिरिक्त आवश्यकता को कोर्ट ने व्यर्थ माना।
“हमने माना है कि जब प्रमाण पत्र उद्देश्य को पूरा करता है, तो अतिरिक्त आवश्यकता अनावश्यक है।”
4. प्रक्रिया में कोई मूल्य संवर्धन नहीं कोर्ट ने पाया कि सहायक निबंधक की सिफारिश से लेनदेन की अखंडता में कोई “मूल्य संवर्धन” (Value Addition) नहीं होता है। पंजीकरण प्रमाण पत्र ही राज्य की ओर से यह घोषणा है कि समिति वैधानिक रूप से अस्तित्व में है।
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने माना कि सहायक निबंधक की सिफारिश की आवश्यकता “लेनदेन की सुगमता में बाधक” और “अनावश्यक” है।
फैसले का निष्कर्ष निकालते हुए कोर्ट ने कहा:
“उपरोक्त के मद्देनजर, हमें यह मानने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि निबंधन विभाग के प्रधान सचिव द्वारा जारी किया गया विवादित मेमो अवैधता के आधार पर रद्द किया जाता है, क्योंकि यह एक फालतू और अनावश्यक आवश्यकता पर निर्भर करता है।”
सुप्रीम कोर्ट ने अपील को स्वीकार करते हुए झारखंड हाईकोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया और संबंधित मेमो को निरस्त कर दिया।
केस का नाम: आदर्श सहकारी गृह निर्माण स्वावलंबी समिति लिमिटेड बनाम झारखंड राज्य और अन्य (2025 INSC 1389)

