मद्रास हाईकोर्ट: यदि पावर ऑफ अटॉर्नी ‘हित से जुड़ी’ है, तो एक प्रिंसिपल की मृत्यु पर यह स्वतः समाप्त नहीं होती

मद्रास हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि यदि कई लोगों (Principals) द्वारा निष्पादित ‘जनरल पावर ऑफ अटॉर्नी’ (GPA) ‘हित से जुड़ी’ (Coupled with Interest) है, तो उनमें से किसी एक की मृत्यु होने पर वह अपने आप समाप्त नहीं होती है।

जस्टिस के. गोविंदराजन थिलकावादी की पीठ ने यह व्यवस्था देते हुए मूल मालिक के कानूनी वारिसों द्वारा दायर दूसरी अपील (Second Appeal) को खारिज कर दिया। कोर्ट ने पावर ऑफ अटॉर्नी एजेंट द्वारा एक प्रिंसिपल की मृत्यु के बाद निष्पादित ‘सेल डीड’ (Sale Deed) की वैधता को बरकरार रखा।

हाईकोर्ट के समक्ष गोपम्मा और मुनिअम्मा द्वारा दायर दूसरी अपील संख्या 238 और 239 (वर्ष 2023) विचाराधीन थीं। अपीलकर्ताओं ने अधीनस्थ न्यायालय, डेनकनिकोट्टई और अतिरिक्त जिला मुंसिफ कोर्ट के उन फैसलों को चुनौती दी थी, जिनमें उनके स्वामित्व की घोषणा और स्थायी निषेधाज्ञा (Injunction) के मुकदमों को खारिज कर दिया गया था।

इस मामले में मुख्य कानूनी प्रश्न यह था कि क्या पिता और उनकी पुत्रियों द्वारा संयुक्त रूप से निष्पादित पावर ऑफ अटॉर्नी पिता की मृत्यु के बाद समाप्त हो गई थी, और क्या एजेंट द्वारा बाद में किया गया संपत्ति का विक्रय वैध था। कोर्ट ने माना कि भारतीय अनुबंध अधिनियम (Indian Contract Act) की धारा 202 के तहत, चूँकि एजेंसी ‘हित से जुड़ी’ (Coupled with interest) थी, इसलिए यह अपरिवर्तनीय (Irrevocable) थी और एक प्रिंसिपल की मृत्यु से समाप्त नहीं हुई।

केस की पृष्ठभूमि

विवादित संपत्ति मूल रूप से अपीलकर्ताओं (वादियों) के पिता सेम्बुगन उर्फ ​​सोमैया की थी, जिन्होंने इसे 1952 में खरीदा था। 28 अप्रैल 2005 को, सेम्बुगन ने अपनी दो बेटियों (अपीलकर्ताओं) के साथ मिलकर एक पंजीकृत जनरल पावर ऑफ अटॉर्नी (Exhibit B3) चिन्नप्पा नामक व्यक्ति के पक्ष में निष्पादित की।

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8 जनवरी 2007 को सेम्बुगन की मृत्यु हो गई। इसके बाद, 21 फरवरी 2008 को अपीलकर्ताओं ने पावर ऑफ अटॉर्नी को रद्द करने के लिए एक ‘डीड ऑफ कैंसलेशन’ (Exhibit A5) निष्पादित किया। हालांकि, पावर ऑफ अटॉर्नी एजेंट चिन्नप्पा ने अपने बेटे नंजप्पा के साथ एक बिक्री समझौता किया और बाद में, 17 मार्च 2008 को प्रतिवादी मुरुगेसन के पक्ष में संयुक्त रूप से एक सेल डीड (Exhibit B4) निष्पादित कर दी।

अपीलकर्ताओं ने खरीदार मुरुगेसन के खिलाफ स्वामित्व की घोषणा और एजेंट चिन्नप्पा के खिलाफ निषेधाज्ञा के लिए अलग-अलग मुकदमे दायर किए। उनका तर्क था कि सेम्बुगन की मृत्यु के बाद जीपीए निष्प्रभावी हो गया था और बिक्री से पहले इसे वैध रूप से रद्द कर दिया गया था।

पक्षकारों की दलीलें

अपीलकर्ताओं के वकील ने तर्क दिया कि उक्त जीपीए ‘हित से जुड़ा’ (Coupled with interest) नहीं था क्योंकि निष्पादन के समय किसी प्रतिफल (Consideration) के भुगतान का कोई प्रमाण नहीं था। उन्होंने दलील दी कि सेम्बुगन की मृत्यु के तुरंत बाद पावर ऑफ अटॉर्नी समाप्त हो गई थी, इसलिए बाद की सेल डीड अवैध है। उन्होंने यह भी कहा कि रद्दीकरण के लिए धारा 206 के तहत नोटिस न देना घातक नहीं था।

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इसके विपरीत, प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि जीपीए ‘हित से जुड़ा’ था। उन्होंने बताया कि चिन्नप्पा ने सेम्बुगन से 2,40,000 रुपये के प्रतिफल पर संपत्ति खरीदने का सौदा किया था और यह राशि चुका दी गई थी, जिससे एजेंसी में उनका हित निहित हो गया था। इसलिए, यह पावर ऑफ अटॉर्नी अपरिवर्तनीय थी। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि अपीलकर्ताओं ने मुकदमों में आवश्यक पक्षकारों (एजेंट और एग्रीमेंट होल्डर) को शामिल नहीं किया, जो कि मुकदमे को खारिज करने का आधार है।

हाईकोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियाँ

जस्टिस के. गोविंदराजन थिलकावादी ने पावर ऑफ अटॉर्नी की प्रकृति और भारतीय अनुबंध अधिनियम की धारा 201, 202 और 206 का विश्लेषण किया।

  • एक प्रिंसिपल की मृत्यु के बाद जीपीए की वैधता: कोर्ट ने के.ए. मीरां मोहिदीन बनाम शेख अमजद (2024) के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि “कई व्यक्तियों द्वारा निष्पादित पावर ऑफ अटॉर्नी, जिसे हित के साथ जोड़ा गया है, उनमें से किसी एक की मृत्यु पर स्वचालित रूप से समाप्त नहीं होती है।” कोर्ट ने कहा कि समाप्ति विशिष्ट तथ्यों और दस्तावेज के इरादे पर निर्भर करती है।
  • हित से जुड़ी पावर (Power Coupled with Interest): कोर्ट ने पाया कि पावर ऑफ अटॉर्नी में स्पष्ट रूप से उल्लेख था कि एजेंट ने सेम्बुगन को 2,40,000 रुपये का भुगतान किया था। कोर्ट ने कहा:”उपरोक्त तथ्य यह स्थापित करते हैं कि जनरल पावर ऑफ अटॉर्नी ‘हित से जुड़ी’ (Coupled with interest) है। इसके अलावा, यह कानूनन तय है कि यदि एजेंट ने अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए कार्य किया है, तो पावर ऑफ अटॉर्नी को रद्द नहीं किया जा सकता।”
  • रद्दीकरण के लिए नोटिस की आवश्यकता: कोर्ट ने जीपीए रद्द करने से पहले नोटिस जारी न करने को गंभीरता से लिया। भारतीय अनुबंध अधिनियम की धारा 206 का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा:”पावर ऑफ अटॉर्नी के रद्दीकरण विलेख (दिनांक 21.02.2008) के निष्पादन से पहले नोटिस जारी न करना भारतीय अनुबंध अधिनियम की धारा 206 के तहत घातक है।”
  • आवश्यक पक्षकारों को शामिल न करना (Non-Joinder): हाईकोर्ट ने निचली अदालतों के इस निष्कर्ष को सही ठहराया कि मुकदमों में आवश्यक पक्षकारों को शामिल नहीं किया गया था। विक्रेताओं और खरीदार को संबंधित मुकदमों में पक्षकार न बनाने के कारण कोई प्रभावी डिक्री पारित नहीं की जा सकती थी।
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फैसला

हाईकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि वादी यह साबित करने में विफल रहे कि जीपीए को उचित नोटिस के बाद वैध रूप से रद्द किया गया था या वे संपत्ति के कब्जे में थे। कोर्ट ने 17 मार्च 2008 की सेल डीड के आधार पर प्रतिवादी मुरुगेसन के स्वामित्व को सही ठहराया।

परिणामस्वरूप, मद्रास हाईकोर्ट ने दोनों दूसरी अपीलों को खारिज कर दिया और निचली अदालतों के फैसलों की पुष्टि की।

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