पटना हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि केवल “बाहरी रगड़” (External Rubbing) को यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (POCSO) अधिनियम की धारा 3 के तहत “प्रवेशात्मक यौन हमला” (Penetrative Sexual Assault) नहीं माना जा सकता है। अदालत ने एक होमगार्ड को बरी कर दिया, जिसे निचली अदालत ने 5 वर्षीय बच्ची के साथ यौन उत्पीड़न के आरोप में 20 साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई थी।
जस्टिस राजीव रंजन प्रसाद और जस्टिस सौरेन्द्र पांडेय की खंडपीठ ने 25 नवंबर, 2025 को दिए अपने फैसले में कहा कि मेडिकल रिपोर्ट में बलात्कार की पुष्टि नहीं हुई है और पीड़ित बच्ची ने खुद स्वीकार किया है कि उसे माता-पिता और पुलिस द्वारा सिखाया-पढ़ाया (Tutored) गया था।
मामले की पृष्ठभूमि
यह अपील पटना के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश-VI-सह-विशेष न्यायाधीश (POCSO) द्वारा 9 नवंबर, 2022 को दिए गए दोषसिद्धि के फैसले के खिलाफ दायर की गई थी। अपीलकर्ता जय कृष्ण यादव को POCSO अधिनियम की धारा 6 के तहत दोषी ठहराया गया था और 20 साल की सजा के साथ 25,000 रुपये का जुर्माना लगाया गया था।
अभियोजन पक्ष का मामला 24 अगस्त, 2020 को दर्ज पीड़ित की मां की लिखित रिपोर्ट पर आधारित था। आरोप था कि अपीलकर्ता, जो उनके क्वार्टर के पास एक कमरे में रहता था और होमगार्ड के रूप में कार्यरत था, बच्ची को जबरन अपने कमरे में ले गया और उसके साथ यौन उत्पीड़न किया। शुरुआती शिकायत में केवल “रगड़ने” (Rubbing) का आरोप लगाया गया था, लेकिन ट्रायल के दौरान इसे बढ़ा-चढ़ाकर “प्रवेशात्मक यौन हमला” और रक्तस्राव (Bleeding) होने की बात कही गई।
कोर्ट में प्रस्तुत तर्क
अपीलकर्ता की ओर से पेश हुए न्यायमित्र (Amicus Curiae) श्री मो. इरशाद ने तर्क दिया कि निचली अदालत ने गवाही दर्ज करने से पहले बाल गवाह (Child Witness) की सक्षमता की जांच नहीं की। उन्होंने अभियोजन पक्ष के मामले में विरोधाभासों को उजागर करते हुए कहा कि मेडिकल रिपोर्ट में प्रवेश (Penetration) या रक्तस्राव का कोई सबूत नहीं मिला है, जो गवाहों के बयानों को झुठलाता है।
बचाव पक्ष ने यह भी दलील दी कि अपीलकर्ता को पुरानी रंजिश के कारण झूठा फंसाया गया है। Cr.P.C. की धारा 313 के तहत अपने बयान में, अपीलकर्ता ने कहा कि पीड़िता के पिता के साथ उसका विवाद था क्योंकि उसने पिता द्वारा शराब पीने और राशन चोरी करने की शिकायत वरिष्ठ अधिकारी से की थी।
वहीं, राज्य की ओर से अतिरिक्त लोक अभियोजक श्री दिलीप कुमार सिन्हा ने सजा का समर्थन करते हुए तर्क दिया कि पीड़िता की उम्र मात्र 5-6 वर्ष थी और उसका बयान ही दोषसिद्धि के लिए पर्याप्त होना चाहिए। उन्होंने मेडिकल जांच में पाई गई “लालिमा और सूजन” को आधार बनाया।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियां
हाईकोर्ट ने सबूतों की विस्तृत जांच की और पाया कि निचली अदालत का फैसला त्रुटिपूर्ण था।
1. “बाहरी रगड़” प्रवेशात्मक हमला नहीं है अदालत ने कहा कि गवाहों के बयानों और मेडिकल साक्ष्यों में भारी अंतर है। जहां माता-पिता ने खून बहने की बात कही, वहीं डॉ. अंजू कुमारी (P.W. 5) ने गवाही दी कि “पीड़िता के शरीर पर कोई चोट का निशान नहीं मिला।”
कोर्ट ने सख्त टिप्पणी करते हुए कहा:
“मेडिकल साक्ष्य बलात्कार के मामले को खारिज करते हैं… डॉक्टर द्वारा किसी भी हद तक प्रवेश (Penetration) का कोई सबूत नहीं पाया गया। ऐसे किसी भी सबूत के अभाव में, अपीलकर्ता की POCSO अधिनियम की धारा 6 के तहत सजा कानूनन टिक नहीं सकती। निचली अदालत ने ‘बाहरी रगड़’ को POCSO अधिनियम की धारा 3 के तहत परिभाषित ‘प्रवेशात्मक यौन हमला’ मानकर खुद को घोर रूप से गलत निर्देशित किया है।”
मेडिकल रिपोर्ट में केवल गुदा द्वार के पास लालिमा और सूजन का उल्लेख था, जिसे डॉक्टर ने जिरह के दौरान स्वीकार किया कि यह “सख्त सतह पर गिरने से भी हो सकता है।”
2. सिखाया-पढ़ाया गया गवाह (Tutored Witness) खंडपीठ ने बाल गवाह की विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल उठाए। फैसले में नोट किया गया कि पीड़िता ने गवाही के दौरान पैरा-20 में स्वीकार किया कि उसे उसके माता-पिता ने कोर्ट में गवाही देने के लिए सिखाया था। पैरा-21 में उसने यह भी कहा कि “दारोगा जी” (पुलिस अधिकारी) के कहने पर उसने बयान दिया था।
सुप्रीम कोर्ट के फैसलों (प्रदीप बनाम हरियाणा राज्य और पी. रमेश बनाम राज्य) का हवाला देते हुए, हाईकोर्ट ने कहा कि ऐसे बाल गवाह के अकेले बयान पर सजा देना सुरक्षित नहीं है जो विश्वसनीय न हो।
3. POCSO एक्ट की धारा 29 के तहत उपधारणा POCSO अधिनियम की धारा 29 के तहत अपराध की उपधारणा (Presumption) के मुद्दे पर, कोर्ट ने कहा कि यह उपधारणा तभी लागू होती है जब अभियोजन पक्ष “बुनियादी तथ्यों” (Foundational Facts) को संदेह से परे साबित कर दे। इस मामले में, अभियोजन पक्ष ऐसा करने में विफल रहा।
4. रंजिश की संभावना कोर्ट ने बचाव पक्ष की रंजिश वाली दलील को संभव माना। पीड़िता ने खुद स्वीकार किया था कि अधिकारी और उनकी पत्नी उसके पिता को डांटते थे, जो अपीलकर्ता के इस दावे की पुष्टि करता है कि उसने पिता के आचरण की शिकायत की थी।
निर्णय
पटना हाईकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि निचली अदालत ने सबूतों की सराहना करने में गलती की है और अपीलकर्ता “संदेह के लाभ” (Benefit of Doubt) का हकदार है।
कोर्ट ने अपने आदेश में कहा, “मेडिकल साक्ष्य बलात्कार के मामले को खारिज करते हैं, इसलिए केवल बाल गवाह के बयान के आधार पर अपीलकर्ता को दोषी ठहराना सुरक्षित नहीं होगा।”
परिणामस्वरूप, हाईकोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को रद्द कर दिया और जय कृष्ण यादव को सभी आरोपों से बरी करते हुए तत्काल रिहा करने का आदेश दिया।
अदालत ने न्यायमित्र श्री मो. इरशाद द्वारा दी गई सहायता की सराहना की और पटना हाईकोर्ट विधिक सेवा समिति को उन्हें 15,000 रुपये का मानदेय देने का निर्देश दिया।




