इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि बच्चे की पैतृकता निर्धारित करने के लिए डीएनए परीक्षण का आदेश केवल इसलिए नहीं दिया जा सकता कि किसी पक्ष ने अदालत की कार्यवाही के दौरान पैतृकता पर विवाद खड़ा कर दिया है। ऐसा आदेश केवल उन्हीं मामलों में दिया जा सकता है, जहाँ संबंधित अवधि के दौरान पति-पत्नी के बीच “सहवास की कोई संभावना न होने” की स्थिति स्पष्ट रूप से सिद्ध हो।
न्यायमूर्ति चवान प्रकाश की पीठ ने यह टिप्पणी रामराज पटेल की याचिका खारिज करते हुए की। पटेल ने दावा किया था कि दिसंबर 2012 में उसकी पत्नी से जन्मी बच्ची उसकी जैविक संतान नहीं है, क्योंकि पत्नी मई 2011 से मायके में रह रही थी।
याचिकाकर्ता ने वाराणसी के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश के उस आदेश को चुनौती दी थी, जिसमें विशेष मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा डीएनए परीक्षण कराने से इनकार किए जाने को बरकरार रखा गया था। दोनों निचली अदालतों ने पाया था कि इस तरह का हस्तक्षेपकारी परीक्षण कराने के लिए कोई वैधानिक आधार नहीं है।
पटेल का कहना था कि उसकी शादी अप्रैल 2008 में हुई थी और पत्नी केवल एक सप्ताह ही ससुराल में रही। उसका आरोप था कि पत्नी एक इंटर कॉलेज में शिक्षिका है और पढ़ी-लिखी होने के कारण उसके साथ नहीं रहना चाहती थी, जबकि वह “एक निरक्षर ग्रामीण” है।
21 नवंबर को पारित आदेश में हाईकोर्ट ने कहा कि पैतृकता विवादों में डीएनए परीक्षण का आदेश स्वतः दे देना उचित नहीं है। अदालत को ऐसे आदेश देते समय अत्यधिक सावधानी बरतनी होती है और यह तभी संभव है जब यह स्पष्ट रूप से सिद्ध हो जाए कि गर्भाधान की अवधि के दौरान सहवास की कोई संभावना नहीं थी।
चूँकि याचिकाकर्ता ऐसा कोई आधार प्रस्तुत नहीं कर सका, हाईकोर्ट ने निचली अदालतों के आदेशों में हस्तक्षेप से इनकार कर दिया।
याचिका अंततः खारिज कर दी गई।




