सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि यदि बैंक धोखाधड़ी के मामले में फर्जी दस्तावेजों (Forged Documents) का इस्तेमाल हुआ है और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (PC Act) के तहत अपराध शामिल हैं, तो केवल बैंक के साथ ‘वन-टाइम सेटलमेंट’ (OTS) हो जाने के आधार पर आपराधिक कार्यवाही को रद्द (Quash) नहीं किया जा सकता।
जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ ने पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसके तहत मैसर्स सर्वोदय हाईवेज लिमिटेड और उसके निदेशकों के खिलाफ केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) की कार्यवाही को समाप्त कर दिया गया था। शीर्ष अदालत ने आपराधिक कार्यवाही को बहाल करते हुए कहा कि ऐसे समझौते आरोपी को आपराधिक दायित्व से मुक्त नहीं करते, विशेषकर तब जब सरकारी खजाने को नुकसान पहुंचा हो।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला 3 फरवरी 2015 को सीबीआई द्वारा दर्ज की गई एक एफआईआर से जुड़ा है। यह एफआईआर तत्कालीन स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एंड जयपुर (अब भारतीय स्टेट बैंक) के शाखा प्रबंधक की शिकायत पर दर्ज की गई थी। बैंक ने मैसर्स सर्वोदय हाईवेज लिमिटेड को 60 करोड़ रुपये (50 करोड़ फंड-आधारित और 10 करोड़ गैर-फंड आधारित) की क्रेडिट सुविधाएं मंजूर की थीं।
कंपनी ने दावा किया था कि वह आवासीय/वाणिज्यिक परिसरों और राजमार्गों के निर्माण में लगी है और उसके पास 348.24 करोड़ रुपये के वर्क ऑर्डर हैं। हालांकि, 28 जुलाई 2013 को खाता एनपीए (NPA) घोषित हो गया। आंतरिक जांच में पता चला कि राजस्व रिकॉर्ड में बैंक का ग्रहणाधिकार (Lien) दर्ज नहीं कराया गया था और लगभग 52.50 करोड़ रुपये की धोखाधड़ी की गई थी।
सीबीआई की जांच में पाया गया कि कंपनी के निदेशकों ने तत्कालीन शाखा प्रबंधक, निशान लाल के साथ मिलीभगत करके झूठी जानकारी दी और फर्जी वर्क ऑर्डर पेश किए। जांच में सामने आया कि “10 में से 3 वर्क ऑर्डर पूरी तरह से फर्जी थे” और शेष सात सहयोगी कंपनियों को जारी किए गए थे। इसके बाद 30 नवंबर 2016 को आईपीसी की धारा 120बी, 406, 420, 467, 468, 471 और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 13(2) व 13(1)(d) के तहत चार्जशीट दाखिल की गई थी।
ट्रायल के दौरान, कंपनी ने 5 मार्च 2018 को बैंक के साथ ‘वन-टाइम सेटलमेंट’ कर लिया और 41 करोड़ रुपये में मामला निपटा लिया। इसी आधार पर पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने 18 जुलाई 2022 को एफआईआर और चार्जशीट को रद्द कर दिया था।
पक्षों की दलीलें
सीबीआई की ओर से पेश अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल (ASG) विक्रमजीत बनर्जी ने तर्क दिया कि हाईकोर्ट ने भारी गलती की है। उन्होंने कहा कि जांच में फर्जी दस्तावेजों के इस्तेमाल और गलत बयानी की पुष्टि हुई है। उन्होंने दलील दी कि बैंक ने मजबूरी में समझौता किया है और इससे सरकारी खजाने को भारी नुकसान हुआ है, क्योंकि सेटलमेंट की राशि वास्तविक बकाया राशि से काफी कम थी।
ASG ने सुप्रीम कोर्ट के ज्ञान सिंह बनाम पंजाब राज्य के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि गंभीर अपराध या विशेष कानूनों (जैसे PC Act) के तहत आने वाले अपराधों को समझौते के आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता। उन्होंने सीबीआई बनाम जगजीत सिंह और महाराष्ट्र राज्य बनाम विक्रम अनंतराय दोशी के फैसलों का भी उल्लेख किया, जिनमें आर्थिक अपराधों को सामाजिक अपराध माना गया है।
दूसरी ओर, प्रतिवादियों का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थ दवे ने तर्क दिया कि चूंकि बैंक ओटीएस के लिए सहमत हो गया है, गिरवी रखी गई संपत्ति छोड़ दी गई है और ऋण वसूली अधिकरण (DRT) की कार्यवाही बंद हो गई है, इसलिए आपराधिक मुकदमा जारी रखना “व्यर्थ की कवायद” होगी। उन्होंने जसवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य और सीबीआई बनाम बी.बी. अग्रवाल जैसे मामलों का हवाला दिया।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि हाईकोर्ट ने कार्यवाही रद्द करते समय जांच के दौरान स्थापित महत्वपूर्ण तथ्यों की अनदेखी की। पीठ ने निम्नलिखित बिंदुओं पर जोर दिया:
- चार्जशीट में स्पष्ट निष्कर्ष था कि डिफॉल्टर कंपनी ने क्रेडिट सुविधाएं प्राप्त करने के लिए “फर्जी दस्तावेज” जमा किए थे।
- भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत अपराध बनते हैं और बैंक मैनेजर के खिलाफ मुकदमा चलाने की मंजूरी दी जा चुकी है।
- 41 करोड़ रुपये की ओटीएस राशि लगभग 52 करोड़ रुपये (ब्याज सहित) की कुल देनदारी को कवर नहीं करती है, जिससे “सरकारी खजाने को सीधा नुकसान” हुआ है।
न्यायालय ने कहा कि चार्जशीट रद्द करने से बैंक मैनेजर भी परोक्ष रूप से दोषमुक्त हो जाएगा। प्रतिवादियों द्वारा दिए गए तर्कों को खारिज करते हुए कोर्ट ने कहा कि वे मामले निजी विवादों से जुड़े थे या उनमें फर्जी दस्तावेजों का उपयोग और पीसी एक्ट के तहत सार्वजनिक धन की हानि शामिल नहीं थी।
समझौते की प्रकृति पर टिप्पणी करते हुए पीठ ने कहा:
“वन-टाइम सेटलमेंट आमतौर पर उन परिस्थितियों में किए जाते हैं जहां बैंक दबाव में होता है और डिफॉल्टर खाते से अधिकतम संभव वसूली सुनिश्चित करने के लिए कम राशि स्वीकार करने के लिए मजबूर होता है।”
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि हाईकोर्ट ने ज्ञान सिंह मामले में निर्धारित सिद्धांतों की अनदेखी की है, जो पीसी एक्ट और सरकारी खजाने को नुकसान पहुंचाने वाले मामलों में कार्यवाही रद्द करने से मना करता है।
फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई की अपील स्वीकार करते हुए पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया।
आपराधिक कार्यवाही को बहाल करते हुए कोर्ट ने आदेश दिया:
“हम अपील की अनुमति देते हैं, आक्षेपित निर्णय और आदेश को रद्द करते हैं और ट्रायल कोर्ट के समक्ष 30 नवंबर 2016 की चार्जशीट से उत्पन्न कार्यवाही को बहाल करते हैं।”
ट्रायल कोर्ट को निर्देश दिया गया है कि वह इस फैसले में की गई टिप्पणियों से प्रभावित हुए बिना मामले की सुनवाई आगे बढ़ाए।
केस विवरण:
- केस शीर्षक: सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन बनाम मैसर्स सर्वोदय हाईवेज लिमिटेड और अन्य
- केस नंबर: क्रिमिनल अपील संख्या 2025 (SLP(Crl.) No. 11108 of 2022 से उत्पन्न)
- कोरम: जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता
- साइटेशन: 2025 INSC 1359




