ओडिशा हाई कोर्ट ने एक अंडरट्रायल बंदी की हिरासत में मौत को मेडिकल लापरवाही का गंभीर मामला मानते हुए उसकी पत्नी को ₹20 लाख का मुआवज़ा देने का आदेश दिया है। अदालत ने कहा कि इस तरह की मौतें कैदियों के संवैधानिक अधिकारों का स्पष्ट हनन हैं और राज्य को इसके लिए जवाबदेह होना ही होगा।
न्यायमूर्ति बिरजा प्रसन्न सतापथी की पीठ ने मंगलवार को कहा कि जेल प्रशासन यह जानते हुए भी कि बंदी को लंबे समय से डायबिटीज़ है, उसे पर्याप्त और समय पर इलाज नहीं दे सका। अदालत ने टिप्पणी की कि जब तक उसे बेहतर स्वास्थ्य सुविधा वाले अस्पताल में भेजा गया, उसकी हालत काफी बिगड़ चुकी थी।
अदालत ने जोर देकर कहा कि स्वास्थ्य का अधिकार, संविधान के अनुच्छेद 21 में निहित जीवन के अधिकार का महत्वपूर्ण तत्व है, खासकर उन कैदियों के लिए जो अपनी देखभाल के लिए पूरी तरह राज्य पर निर्भर होते हैं।
पीठ ने कहा कि याचिकाकर्ता सबिता निशांक ने जेल प्रशासन की लापरवाही को स्पष्ट रूप से साबित किया है। उनके पति, जो पंचायती कार्यकारी अधिकारी थे, को सितंबर 2016 में आईपीसी की विभिन्न धाराओं, जिनमें धारा 409 (आपराधिक विश्वासघात) शामिल है, के तहत गिरफ्तार किया गया था। हिरासत के दौरान उनकी हालत लगातार बिगड़ती रही, जिसके बाद जनवरी 2017 में उनकी पत्नी को मजिस्ट्रेट के समक्ष उचित उपचार दिलाने के लिए आवेदन करना पड़ा।
हाई कोर्ट ने पाया कि जेल प्रशासन ने इलाज की दिशा में कदम केवल पत्नी के हस्तक्षेप के बाद ही उठाए। जब तक बंदी को ज़िला अस्पताल भेजा गया, उसकी तबीयत गंभीर रूप से बिगड़ चुकी थी। बाद में उसे कटक के अस्पताल रेफर किया गया, जहां अगले ही दिन उसका निधन हो गया। अदालत ने यह भी रिकॉर्ड किया कि एम्बुलेंस का ख़र्च भी याचिकाकर्ता को ही उठाना पड़ा, जो जेल अधिकारियों की उदासीनता को दर्शाता है।
अदालत ने कहा कि जेल में समय-समय पर शुगर की जांच और दवाइयां देना, उसकी क्रॉनिक स्थिति को देखते हुए पर्याप्त नहीं था। समय पर और उचित इलाज की कमी ने उसकी जान ले ली।
निशांक ने ₹50 लाख मुआवज़े की मांग की थी। तथ्यों पर विचार करने के बाद हाई कोर्ट ने ₹20 लाख का मुआवज़ा उचित और न्यायसंगत माना, यह कहते हुए कि मेडिकल लापरवाही से होने वाली हिरासत मृत्यु में राज्य को प्रतिकर देना ही पड़ेगा।




