इलाहाबाद हाईकोर्ट (Allahabad High Court) ने 1982 के एक आपराधिक मामले में एक अपीलकर्ता को ‘सदाचरण की परिवीक्षा’ (Probation of Good Conduct) पर रिहा करने का आदेश दिया है। अदालत ने निचली अदालत (Trial Court) की कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि उसने कानूनन अनिवार्य होने के बावजूद प्रोबेशन का लाभ न देने के लिए कोई ‘विशेष कारण’ दर्ज नहीं किए।
न्यायमूर्ति नंद प्रभा शुक्ला ने जीवित बचे एकमात्र अपीलकर्ता अशोक की अपील को आंशिक रूप से स्वीकार किया। कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 323/34 के तहत उसकी दोषसिद्धि (conviction) को तो बरकरार रखा, लेकिन जेल की सजा को रद्द करते हुए उसे प्रोबेशन पर रिहा करने का निर्देश दिया।
मामले की पृष्ठभूमि (Background of the Case)
यह अपील सहारनपुर के द्वितीय अपर सत्र न्यायाधीश द्वारा 21 सितंबर, 1984 को पारित फैसले के खिलाफ दायर की गई थी। सत्र परीक्षण संख्या 379/1983 में निचली अदालत ने अपीलकर्ताओं को धारा 323/34 आईपीसी के तहत दोषी ठहराया था। विशेष रूप से, अपीलकर्ता अशोक को तीन महीने के साधारण कारावास की सजा सुनाई गई थी।
चार दशकों से अधिक समय तक चली इस अपील के दौरान, सह-अपीलकर्ता शमशेर सिंह और बलबीर की मृत्यु हो गई, जिसके कारण उनके खिलाफ अपील 4 अगस्त, 2022 को समाप्त (abate) कर दी गई। इसके बाद केवल अपीलकर्ता अशोक के मामले पर सुनवाई हुई।
दलीलें (Arguments)
अपीलकर्ता के वकील, श्री एच.एस. निगम ने अदालत के समक्ष कहा कि वे “मामले के गुण-दोष (merits) पर बहस करने के इच्छुक नहीं हैं” और उन्होंने केवल अपीलकर्ता के लिए प्रोबेशन का लाभ मांगा। यह तर्क दिया गया कि अपीलकर्ता को धारा 323/34 आईपीसी के तहत दोषी ठहराया गया है और यह मामला बेहद पुराना है।
वकील ने ‘प्रोबेशन ऑफ ऑफेंडर्स एक्ट’ का लाभ देने के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट के सुभाष चंद और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2015) और हरगोविंद और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के फैसलों का हवाला दिया।
कोर्ट की टिप्पणियाँ और विश्लेषण (Court’s Observations and Analysis)
अदालत ने ‘प्रोबेशन ऑफ ऑफेंडर्स एक्ट, 1958’ की धारा 3 और 4, तथा दंड प्रक्रिया संहिता (Cr.P.C.) की धारा 360 और 361 के प्रावधानों का विस्तृत विश्लेषण किया।
न्यायमूर्ति शुक्ला ने कहा कि ट्रायल कोर्ट अपने उस “अनिवार्य कर्तव्य” (bounden duty) को निभाने में विफल रहा, जिसके तहत उसे यह विचार करना चाहिए था कि प्रोबेशन का लाभ क्यों नहीं दिया जा रहा है। कोर्ट ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 361 यह अनिवार्य करती है कि यदि कोई अदालत किसी आरोपी को धारा 360 सीआरपीसी या प्रोबेशन एक्ट के तहत राहत नहीं देती है, तो उसे अपने फैसले में ऐसा न करने के लिए “विशेष कारण” दर्ज करने होंगे।
निचली अदालत की चूक पर तीखी टिप्पणी करते हुए हाईकोर्ट ने कहा:
“निचली अदालत ने एक शब्द भी नहीं लिखा कि आरोपी को इस लाभकारी कानून का फायदा क्यों नहीं दिया गया, जबकि सीआरपीसी की धारा 361 के प्रावधानों के तहत ऐसा करना अनिवार्य था। इसके अलावा, घटना वर्ष 1982 की है, इसलिए इतने लंबे समय के बाद अपीलकर्ता को सजा काटने के लिए जेल भेजने से न्याय का कोई उद्देश्य पूरा नहीं होगा।”
अदालत ने कानून की सुधारात्मक प्रकृति पर जोर देते हुए कहा:
“कानून की इस शाखा का ट्रायल कोर्ट्स द्वारा बहुत अधिक उपयोग नहीं किया गया है। यह हमारी न्याय व्यवस्था में और भी अधिक प्रासंगिक हो जाता है जहां मुकदमे अक्सर लंबे समय के बाद समाप्त होते हैं… समय बीतने के साथ दंड और सामाजिक प्राथमिकताएं बदल जाती हैं और कारावास की सजा देने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती, खासकर जब अपराध गंभीर न हो।”
उद्धृत निर्णय (Cited Precedents)
निर्णय के समर्थन में कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के कई प्रमुख फैसलों का हवाला दिया:
- रतन लाल बनाम पंजाब राज्य (AIR 1965 SC 444): कोर्ट ने कहा कि यह अधिनियम दंडशास्त्र (penology) के क्षेत्र में सुधार की आधुनिक उदार प्रवृत्ति का एक “मील का पत्थर” है।
- वेद प्रकाश बनाम हरियाणा राज्य ((1981) 1 SCC 447): निर्णय में इस बात पर प्रकाश डाला गया कि सजा सुनाना विवेक का एक संवेदनशील प्रयोग है, न कि कोई यांत्रिक प्रक्रिया।
- महाराष्ट्र राज्य बनाम जगमोहन सिंह कुलदीप सिंह आनंद: कोर्ट ने नोट किया कि पड़ोसियों के बीच मामूली विवादों में प्रोबेशन का लाभ दिया जाना उचित है।
निर्णय (Decision)
यह देखते हुए कि घटना 1982 में हुई थी, अपीलकर्ता अब बुजुर्ग अवस्था में है, और उसका कोई पूर्व आपराधिक इतिहास (criminal antecedents) नहीं है, हाईकोर्ट ने माना कि यह ‘प्रोबेशन ऑफ ऑफेंडर्स एक्ट’ की धारा 4 का लाभ देने के लिए एक उपयुक्त मामला है।
कोर्ट ने आदेश दिया:
“अतः, दोषसिद्धि को बरकरार रखते हुए, यह निर्देश दिया जाता है कि अपीलकर्ता अशोक को ‘प्रोबेशन ऑफ ऑफेंडर्स एक्ट’ की धारा 4 का लाभ देते हुए रिहा किया जाए। नतीजतन, अपीलकर्ता को संबंधित जिला प्रोबेशन अधिकारी के समक्ष दो जमानतदार और निजी मुचलका (personal bonds) दाखिल करना होगा और जमानत बांड दाखिल करने की तारीख से तीन महीने की अवधि के लिए शांति और सदाचरण बनाए रखने का वचन देना होगा।”
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि किसी भी शर्त का उल्लंघन होता है, तो अपीलकर्ता को हिरासत में लिया जाएगा और उसे ट्रायल कोर्ट द्वारा दी गई सजा भुगतनी होगी।
सजा में इस संशोधन के साथ अपील को आंशिक रूप से स्वीकार किया गया।
केस विवरण (Case Details):
- केस शीर्षक: शमशेर सिंह और अन्य बनाम स्टेट (Samsher Singh and Others Versus State)
- केस संख्या: क्रिमिनल अपील संख्या 2886/1984
- कोरम: न्यायमूर्ति नंद प्रभा शुक्ला
- अपीलकर्ताओं के वकील: एच.एस. निगम
- प्रतिवादी के वकील: ए.जी.ए., श्याम शंकर पांडे
- न्यूट्रल साइटेशन: 2025:AHC:210224




