दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि कमर्शियल कोर्ट्स (Commercial Courts) की प्रक्रियाओं को सामान्य दीवानी मुकदमों (General Civil Suits) की तरह हल्के में नहीं लिया जा सकता और न ही उन्हें इसमें बदला जा सकता है। जस्टिस गिरीश कठपालिया की पीठ ने उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें कमर्शियल कोर्ट द्वारा कॉस्ट (Cost) का भुगतान न करने पर बचाव पक्ष के ‘Written Statement’ (लिखित बयान) को रिकॉर्ड से हटाने के आदेश को चुनौती दी गई थी।
मामले का संक्षिप्त विवरण
यह मामला M/s Om Fire Safety Company Pvt Ltd Vs Umakant (CM(M) 2252/2025) से संबंधित है। याचिकाकर्ता/प्रतिवादी ने विद्वान कमर्शियल कोर्ट के 17 अक्टूबर 2025 के आदेश को चुनौती दी थी।
निचली अदालत में याचिकाकर्ता ने निर्धारित समय के भीतर अपना Written Statement दाखिल नहीं किया था। हालांकि, 7 अगस्त 2025 के एक आदेश के माध्यम से, कमर्शियल कोर्ट ने ‘Civil Procedure Code’ (CPC) के आदेश VIII नियम 1 के तहत आवेदन को स्वीकार कर लिया था और कॉस्ट (Cost) के भुगतान की शर्त पर देरी को माफ कर दिया था।
कोर्ट ने पाया कि बाद की तारीखों, विशेष रूप से 1 सितंबर 2025 और 17 अक्टूबर 2025 तक भी कॉस्ट का भुगतान नहीं किया गया। 17 अक्टूबर को जब वादी (Plaintiff) के वकील ने भुगतान न होने का मुद्दा उठाया, तो याचिकाकर्ता के वकील ने इस पर अनभिज्ञता जाहिर की और लापरवाही भरे अंदाज में कहा कि “दे देंगे”। इसके परिणामस्वरूप, कमर्शियल कोर्ट ने उनके Written Statement को रिकॉर्ड से हटा दिया।
पक्षकारों की दलीलें
याचिकाकर्ता/प्रतिवादी के वकील ने हाईकोर्ट के समक्ष तर्क दिया कि भुगतान न होने का कारण यह भ्रम था कि कॉस्ट का भुगतान किसे किया जाना है, क्योंकि 7 अगस्त 2025 का आदेश इस विशिष्ट विवरण पर मौन था।
जब हाईकोर्ट ने पूछा कि वे क्या बचाव (Defence) लेना चाहते थे, तो वकील ने बताया कि आपूर्ति किया गया माल (Goods) दोषपूर्ण था।
कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियाँ
जस्टिस गिरीश कठपालिया ने भुगतान पर भ्रम संबंधी याचिकाकर्ता के स्पष्टीकरण को खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि भले ही आदेश में नाम न लिखा हो, “यह स्पष्ट है कि कॉस्ट का भुगतान उस विपक्षी पक्ष को किया जाना है जिसे स्थगन (Adjournment) के कारण नुकसान उठाना पड़ा है।” कोर्ट ने इस बहाने को पूरी तरह से “कमजोर” (Flimsy) करार दिया।
कमर्शियल कोर्ट्स एक्ट का उद्देश्य
हाईकोर्ट ने कमर्शियल कोर्ट्स एक्ट के पीछे की विधायी मंशा पर जोर दिया। जस्टिस कठपालिया ने कहा:
“कमर्शियल कोर्ट्स एक्ट को विशेष रूप से वाणिज्यिक विवादों में तेजी लाने के उद्देश्य से अधिनियमित किया गया था। किसी भी कानूनी प्रावधान की कोई भी व्याख्या जो इस प्रावधान को कमजोर करती है, वह कमर्शियल कोर्ट्स के निर्माण के पीछे के मूल दर्शन के खिलाफ होगी। कमर्शियल कोर्ट्स और उनके द्वारा अपनाई गई प्रक्रियाओं को इस तरह के लापरवाह तरीके (Casual Manner) से निपटने की अनुमति नहीं दी जा सकती, जिससे वे सामान्य दीवानी मुकदमे (General Civil Suit) में बदल जाएं।”
कोर्ट ने आगे कहा कि जहां एक वादी समय सीमा का सख्ती से पालन नहीं करता है और अदालती रियायत के बावजूद कार्यवाही को लम्बा खींचने का विकल्प चुनता है, वहां “आगे कोई रियायत नहीं दी जा सकती।”
कानूनी नजीर (Legal Precedents)
कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले Manohar Singh vs D.S. Sharma (2010) 1 SCC 53 का हवाला दिया। CPC की धारा 35B के संबंध में इस नजीर पर भरोसा करते हुए, कोर्ट ने दोहराया कि “कॉस्ट का भुगतान न करने के परिणामस्वरूप, चूक करने वाले पक्ष को आगे की कार्यवाही में भाग लेने से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए।”
दोषपूर्ण माल के बचाव के संबंध में, कोर्ट ने नोट किया कि “स्वीकृत रूप से, Written Statement दाखिल करने से पहले, याचिकाकर्ता/प्रतिवादी द्वारा इस संबंध में वादी को कभी कोई नोटिस जारी नहीं किया गया था।”
फैसला
हाईकोर्ट ने पाया कि चुनौती दिए गए आदेश में कोई ऐसी कमी या विकृति नहीं है जिसके लिए भारत के संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत हस्तक्षेप की आवश्यकता हो। तदनुसार, दिल्ली हाईकोर्ट ने याचिका और उसके साथ संलग्न आवेदनों को खारिज कर दिया और कमर्शियल कोर्ट के आदेश को बरकरार रखा।




