जस्टिस नरेंद्र कुमार व्यास की सिंगल बेंच ने श्रीमती आभा नामदेव व अन्य बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (WPS No. 11009 of 2025) और अन्य जुड़े मामलों की सुनवाई करते हुए स्पष्ट किया कि पंचायत नियमों के तहत नियुक्त शिक्षा कर्मी तब तक ‘शासकीय सेवक’ (Government Servant) नहीं माने जा सकते, जब तक कि उनका स्कूल शिक्षा विभाग में संविलियन (absorption) नहीं हो गया। न्यायालय ने व्यवस्था दी है कि शिक्षा कर्मी अपनी पिछली पंचायत सेवा के आधार पर 10.03.2017 के सर्कुलर के तहत क्रमोन्नति के लाभ के हकदार नहीं हैं, क्योंकि यह नियम केवल नियमित सरकारी कर्मचारियों पर लागू होता है।
क्या था पूरा मामला?
याचिकाकर्ता मूल रूप से मध्य प्रदेश/छत्तीसगढ़ पंचायत शिक्षा कर्मी नियमों (1997, 2007 और 2012) के तहत विभिन्न पंचायतों द्वारा शिक्षा कर्मी वर्ग-1, 2 और 3 के रूप में नियुक्त किए गए थे। वे लगातार पंचायत कर्मी या पंचायत शिक्षक के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे थे। राज्य सरकार की नीति दिनांक 30.06.2018 के तहत, 1 जुलाई 2018 को इन शिक्षकों का स्कूल शिक्षा विभाग में संविलियन कर लिया गया।
याचिकाकर्ताओं ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाते हुए मांग की थी कि उनकी 10 वर्ष की सेवा पूरी होने पर उन्हें प्रथम और द्वितीय क्रमोन्नति का लाभ दिया जाए। उन्होंने सामान्य प्रशासन विभाग द्वारा जारी 10 मार्च 2017 के सर्कुलर का हवाला दिया और श्रीमती सोना साहू बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (Writ Appeal No. 261/2023) मामले में डिवीजन बेंच के फैसले को आधार बनाया। उनका तर्क था कि उन्हें लाभ न देना संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 का उल्लंघन है।
कोर्ट में क्या दलीलें दी गईं?
याचिकाकर्ताओं का पक्ष: याचिकाकर्ताओं के वकीलों ने तर्क दिया कि उन्होंने 10 साल की सेवा पूरी कर ली है, इसलिए वे क्रमोन्नति के हकदार हैं। उन्होंने कहा कि सोना साहू मामले में डिवीजन बेंच ने समान राहत दी थी और सुप्रीम कोर्ट ने भी राज्य की अपील खारिज कर दी थी। उन्होंने रवि प्रभा साहू केस का भी उदाहरण दिया और कहा कि यदि सिंगल बेंच इससे सहमत नहीं है, तो मामले को बड़ी बेंच (Larger Bench) को भेजा जाना चाहिए।
राज्य सरकार का पक्ष: अतिरिक्त महाधिवक्ता ने याचिकाओं का विरोध करते हुए कहा कि शिक्षा कर्मी स्थानीय निकायों (पंचायतों) द्वारा नियुक्त किए गए थे और उनका कैडर नियमित सरकारी शिक्षकों से अलग था। सरकार ने दलील दी कि 1999 की क्रमोन्नति योजना और 2017 का सर्कुलर केवल सरकारी कर्मचारियों के लिए है।
राज्य ने स्पष्ट किया कि याचिकाकर्ता 1 जुलाई 2018 को संविलियन के बाद ही सरकारी सेवक बने हैं। संविलियन नीति में साफ लिखा है कि सेवा लाभ संविलियन की तारीख से मिलेंगे, और पिछली पंचायत सेवा को सरकारी सेवा के लाभों के लिए नहीं गिना जा सकता।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
जस्टिस व्यास ने पंचायत राज अधिनियम, 1993 और भर्ती नियमों का विस्तृत विश्लेषण किया। कोर्ट ने पाया कि पंचायतों द्वारा नियुक्त शिक्षकों की नियुक्ति प्रक्रिया और सेवा शर्तें स्कूल शिक्षा विभाग के शिक्षकों से बिल्कुल भिन्न थीं।
1. सरकारी सेवक का दर्जा: हाईकोर्ट ने राजीव कुमार जायसवाल और अरुण सिंह भदौरिया जैसे पूर्व के फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि शिक्षा कर्मी सरकारी सेवक नहीं हैं। कोर्ट ने टिप्पणी की:
“केवल इसलिए कि उन्हें राज्य सरकार के स्वामित्व वाले स्कूल में काम करने के लिए रखा गया था, वे यह दावा नहीं कर सकते कि वे सरकारी सेवक हैं। याचिकाकर्ताओं को सरकारी सेवक नहीं माना जा सकता क्योंकि वे राज्य के तहत किसी सिविल पद (civil post) को धारण नहीं करते थे, बल्कि वे पंचायत के नियुक्त कर्मचारी थे जो एक स्वतंत्र संस्था है।”
2. 2017 के सर्कुलर की प्रयोज्यता: कोर्ट ने कहा कि 10.03.2017 का सर्कुलर सरकारी सेवकों पर लागू होता है। चूंकि याचिकाकर्ता 2018 में संविलियन तक पंचायत विभाग के कर्मचारी थे, इसलिए वे स्कूल शिक्षा विभाग के शिक्षकों के लिए जारी क्रमोन्नति और वेतन समानता के लाभ का दावा नहीं कर सकते।
3. सोना साहू के फैसले से अंतर: कोर्ट ने सोना साहू केस के रिकॉर्ड की बारीकी से जांच की और पाया कि उस मामले के तथ्य अलग थे। सोना साहू केस में अपीलकर्ता ने खुद को शुरू से ‘सहायक शिक्षक’ बताया था, जबकि वर्तमान मामलों में याचिकाकर्ताओं ने स्वीकार किया है कि वे ‘शिक्षा कर्मी’ के रूप में नियुक्त हुए थे। कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता तथ्यात्मक समानता साबित करने में विफल रहे हैं।
निष्कर्ष: हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि चूंकि 30.06.2018 की नीति के तहत संविलियन होने तक याचिकाकर्ता स्कूल शिक्षा विभाग के शिक्षक नहीं थे, बल्कि शिक्षा कर्मी थे, इसलिए वे 10.03.2017 के सर्कुलर की शर्तों को पूरा नहीं करते हैं।
इस आधार पर, कोर्ट ने सभी 1,188 याचिकाओं को खारिज कर दिया।




