दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में नाबालिग से दुष्कर्म के मामले में आरोपी की सजा को बरकरार रखा है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि पीड़िता की गवाही विश्वसनीय है, तो केवल उसी के आधार पर आरोपी को दोषी ठहराया जा सकता है, भले ही उसे चिकित्सा रिपोर्ट में बाहरी चोटें न मिली हों। जस्टिस मनोज कुमार ओहरी की पीठ ने आरोपी की अपील को खारिज करते हुए कहा कि पीड़िता के बयान में मामूली विसंगतियां अभियोजन पक्ष के मामले को कमजोर नहीं करती हैं।
जस्टिस मनोज कुमार ओहरी ने साकेत कोर्ट के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश द्वारा सुनाई गई सजा के खिलाफ इरफान (अपीलकर्ता) द्वारा दायर अपील को खारिज कर दिया। हाईकोर्ट ने आईपीसी की धारा 376/506 और पोक्सो (POCSO) एक्ट की धारा 4 के तहत दोषसिद्धि को सही ठहराया। बचाव पक्ष ने दलील दी थी कि पीड़िता के शरीर पर बाहरी चोट के निशान नहीं थे और एफएसएल (FSL) रिपोर्ट भी नेगेटिव थी, लेकिन कोर्ट ने इसे अस्वीकार कर दिया। कोर्ट ने कहा कि मेडिकल जांच में देरी के कारण ऐसा संभव है और पीड़िता की गवाही “पूरी तरह से विश्वसनीय” है।
केस की पृष्ठभूमि
अभियोजन पक्ष के अनुसार, घटना के समय पीड़िता की उम्र 17 वर्ष से कम थी और वह संगम विहार स्थित एक बहु-किरायेदार इमारत में रहती थी। आरोपी इरफान (उम्र लगभग 21 वर्ष) भी उसी फ्लोर पर रहता था।
17 जून 2013 की सुबह करीब 4:00 बजे, जब पीड़िता कॉमन नल से पानी भर रही थी, तब आरोपी उसके पास आया। वह उसे जबरन एक खाली कमरे (कमरा नंबर 02) में ले गया, दरवाजा बंद किया और उसकी मर्जी के खिलाफ उसके साथ शारीरिक संबंध बनाए। आरोपी ने धमकी दी कि अगर उसने किसी को बताया तो वह उसके भाई को जान से मार देगा।
डर के कारण पीड़िता कई दिनों तक चुप रही। हालांकि, जब उसकी मां ने उसकी परेशान हालत के बारे में पूछा, तो उसने पूरी घटना बताई। इसके बाद पुलिस को सूचित किया गया और पुलिस थाना संगम विहार में एफआईआर संख्या 270/2013 दर्ज की गई।
निचली अदालत ने 25 नवंबर 2016 को आरोपी को दोषी ठहराया और उसे सात साल के कठोर कारावास और जुर्माने की सजा सुनाई।
पक्षकारों की दलीलें
अपीलकर्ता (बचाव पक्ष) के तर्क: अपीलकर्ता के वकील ने सजा को चुनौती देते हुए कई आधार प्रस्तुत किए:
- मुख्य गवाह की अनुपस्थिति: यह तर्क दिया गया कि पीड़िता की मां, जिसे सबसे पहले घटना के बारे में बताया गया था, से पूछताछ नहीं की गई।
- मेडिकल सबूत: बचाव पक्ष का कहना था कि न तो मेडिको-लीगल केस (MLC) और न ही फॉरेंसिक साइंस लेबोरेटरी (FSL) रिपोर्ट आरोपों का समर्थन करती है।
- बयानों में विरोधाभास: वकील ने कहा कि धारा 161 और 164 सीआरपीसी (Cr.P.C.) के तहत दिए गए बयानों और कोर्ट में दी गई गवाही में घटना के समय को लेकर अंतर था।
- देरी: एफआईआर दर्ज कराने में 4 दिन की देरी को आधार बनाकर अभियोजन की कहानी पर संदेह जताया गया।
- झूठा आरोप: अपीलकर्ता ने दावा किया कि पैसों के विवाद और शादी से इनकार करने के कारण उसे झूठा फंसाया गया है।
राज्य (अभियोजन पक्ष) के तर्क: अतिरिक्त लोक अभियोजक (APP) और एमिकस क्यूरी ने दलील दी:
- पीड़िता की गवाही “ठोस, विश्वसनीय और सुसंगत” है।
- मेडिकल सबूत मामले को कमजोर नहीं करते क्योंकि एमएलसी (MLC) में स्पष्ट रूप से ‘हाइमन’ (hymen) के फटे होने का उल्लेख है।
- बाहरी चोटों का न होना बलात्कार के आरोप को खारिज नहीं करता।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियां
नाबालिग पीड़िता की गवाही पर: हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के मध्य प्रदेश राज्य बनाम बलवीर सिंह (2025) के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि साक्ष्य अधिनियम गवाह के लिए कोई न्यूनतम आयु निर्धारित नहीं करता है। जस्टिस ओहरी ने जोर दिया कि एक बाल गवाह सक्षम है यदि वह गवाही की पवित्रता को समझता है।
एकल गवाही का सिद्धांत: पंजाब राज्य बनाम गुरमीत सिंह (1996) और गणेशन बनाम राज्य (2020) जैसे उदाहरणों का उल्लेख करते हुए, जस्टिस मनोज कुमार ओहरी ने कानूनी स्थिति को दोहराया कि “यदि पीड़िता की गवाही विश्वसनीय और भरोसेमंद पाई जाती है, तो उसे किसी अन्य सबूत (corroboration) की आवश्यकता नहीं है और यह आरोपी को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त है।”
पीड़िता की विश्वसनीयता: कोर्ट ने पीड़िता (PW-1) की गवाही को “पूर्णतः विश्वसनीय” पाया। कोर्ट ने टिप्पणी की:
“एमएलसी में दर्ज इतिहास से लेकर धारा 161 और 164 के बयानों और कोर्ट में दी गई गवाही तक, घटना का उसका वर्णन सुसंगत रहा है। उसका संस्करण स्वाभाविक प्रतीत होता है… घटना की तुरंत रिपोर्ट न करने के उसके आचरण को आरोपी द्वारा दी गई धमकियों के संदर्भ में समझा जा सकता है।”
मेडिकल साक्ष्यों पर: बाहरी चोटों की अनुपस्थिति और नेगेटिव एफएसएल रिपोर्ट पर बचाव पक्ष के तर्क को खारिज करते हुए, जस्टिस ओहरी ने कहा:
“रिकॉर्ड पर मौजूद मेडिकल और फॉरेंसिक सबूत अभियोजन पक्ष के मामले का खंडन नहीं करते… बल्कि, पीड़िता की एमएलसी (Ex. PW-3/A) विशेष रूप से हाइमन के फटे होने को रिकॉर्ड करती है। हालांकि कोई बाहरी चोट नहीं पाई गई, लेकिन ऐसी चोटों की अनुपस्थिति बलात्कार को अपने आप में नकारती नहीं है, खासकर तब जब पीड़िता की जांच हमले के 4 दिन बाद की गई हो।”
कोर्ट ने यह भी कहा कि चूंकि नमूने घटना के चार दिन बाद लिए गए थे, इसलिए एफएसएल रिपोर्ट में वीर्य (semen) का न मिलना अभियोजन के मामले के विपरीत नहीं है।
झूठे आरोप के दावे पर: कोर्ट ने अपीलकर्ता के मौद्रिक विवाद के दावे को “कोरा सुझाव” (bald suggestion) बताते हुए खारिज कर दिया और कहा कि अपीलकर्ता ने धारा 313 सीआरपीसी के तहत अपने बयान में इस बचाव को नहीं उठाया था।
फैसला
दिल्ली हाईकोर्ट ने माना कि अपील में कोई दम नहीं है। जस्टिस मनोज कुमार ओहरी ने ट्रायल कोर्ट द्वारा सुनाई गई सात साल के कठोर कारावास की सजा को बरकरार रखा। अपीलकर्ता को हिरासत में लेने का निर्देश दिया गया है।




