एक महत्वपूर्ण फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिले ‘त्वरित सुनवाई के अधिकार’ (Right to Speedy Trial) का दायरा केवल कोर्ट की कार्यवाही तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें जांच (Investigation) की प्रक्रिया भी शामिल है। जस्टिस संजय करोल और जस्टिस नोंगमीकापम कोटेश्वर सिंह की पीठ ने कहा कि यदि जांच एजेंसी बिना किसी ठोस कारण के चार्जशीट दाखिल करने में अत्यधिक देरी करती है, तो यह आरोपी के मौलिक अधिकारों का हनन है।
कोर्ट ने इस आधार पर बिहार कैडर के IAS अधिकारी रॉबर्ट लालचुनलुंगा चोंगथु के खिलाफ चल रहे आपराधिक मुकदमे को रद्द कर दिया, जिसमें जांच पूरी करने में 10 साल से अधिक का समय लगा था। इसके साथ ही कोर्ट ने CrPC की धारा 173(8) के तहत ‘अतिरिक्त जांच’ (Further Investigation) पर अदालतों के नियंत्रण को लेकर भी अहम कानूनी स्थिति स्पष्ट की।
मामले का संक्षिप्त विवरण
यह अपील पटना हाईकोर्ट के 9 मई 2025 के आदेश के खिलाफ दायर की गई थी। हाईकोर्ट ने सहरसा के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (CJM) द्वारा 2022 में लिए गए संज्ञान (Cognizance) को रद्द करने से इनकार कर दिया था। मामला 2005 का है, जब अपीलकर्ता सहरसा के जिलाधिकारी (DM) थे और उन पर शस्त्र लाइसेंस जारी करने में अनियमितता के आरोप लगे थे।
सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए कहा:
“आरोपी को अनिश्चित काल तक जांच और मुकदमे की तलवार के नीचे जीने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।”
केस की पृष्ठभूमि
यह मामला 2002-2005 के दौरान का है जब अपीलकर्ता सहरसा में डीएम-सह-लाइसेंसिंग प्राधिकारी के पद पर तैनात थे। गृह मंत्रालय के एक निर्देश के बाद हुई जांच में यह सामने आया कि 7 शस्त्र लाइसेंस बिना उचित सत्यापन (Verification) के जारी किए गए थे।
- शुरुआती क्लीन चिट: अप्रैल 2006 में पुलिस ने चार्जशीट दाखिल की जिसमें कहा गया कि तत्कालीन डीएम (अपीलकर्ता) के खिलाफ कोई अपराध नहीं बनता और आरोप झूठे हैं।
- दोबारा जांच: 2007 में पुलिस ने यह कहते हुए दोबारा जांच की मांग की कि एक लाइसेंस ‘फर्जी व्यक्ति’ को जारी किया गया था। जून 2009 में CJM ने CrPC की धारा 173(8) के तहत ‘अतिरिक्त जांच’ की अनुमति दे दी।
- विभागीय कार्यवाही: विभागीय जांच में अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि आर्म्स एक्ट की धारा 13(2A) के तहत, यदि पुलिस रिपोर्ट समय पर नहीं आती है, तो लाइसेंसिंग अधिकारी को विवेक के आधार पर लाइसेंस जारी करने का अधिकार है। विभाग ने इस दलील को स्वीकार करते हुए फरवरी 2016 में उन्हें दोषमुक्त कर दिया था।
- 11 साल की देरी: कोर्ट ने नोट किया कि 2009 में जांच की अनुमति मिलने के बावजूद, पुलिस ने नई चार्जशीट 11 साल बाद 31 अगस्त 2020 को दाखिल की।
- अभियोजन की मंजूरी (Sanction): राज्य सरकार ने अप्रैल 2022 में CrPC की धारा 197 के तहत अभियोजन की मंजूरी दी थी।
पक्षकारों की दलीलें
अपीलकर्ता का पक्ष: अपीलकर्ता की ओर से तर्क दिया गया कि चार्जशीट दाखिल करने में 15 साल की देरी उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। उन्होंने कहा कि आर्म्स एक्ट की धारा 13(2A) के तहत उन्होंने अपने विवेक का प्रयोग सद्भावना (Bona fide) में किया था। इसके अलावा, जब विभागीय जांच में उन्हें क्लीन चिट मिल चुकी है, तो उन्हीं तथ्यों पर आपराधिक मुकदमा नहीं चलना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि सरकार द्वारा दी गई ‘सैंक्शन’ (Sanction) बिना दिमाग लगाए (Non-speaking order) जारी की गई थी।
राज्य सरकार का पक्ष: बिहार सरकार ने तर्क दिया कि तत्कालीन डीएम ने अपने पद का दुरुपयोग किया और पुलिस रिपोर्ट का इंतजार किए बिना ‘फर्जी’ और ‘अयोग्य’ लोगों को लाइसेंस जारी किए। राज्य का कहना था कि विभागीय कार्यवाही से बरी होना आपराधिक दायित्व से मुक्ति की गारंटी नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और अहम टिप्पणियां
1. त्वरित जांच का अधिकार (अनुच्छेद 21): सुप्रीम कोर्ट ने अब्दुल रहमान अंतुले और पी. रामचंद्र राव जैसे पुराने फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि ‘त्वरित सुनवाई’ में जांच का चरण भी शामिल है। पीठ ने 2009 से 2020 के बीच हुई 11 साल की देरी पर सख्त रुख अपनाते हुए कहा:
“इस मामले में जांच पूरी करने में एक दशक से अधिक का समय क्यों लगा, यह हमारी समझ से परे है… इस लंबी अवधि के लिए कोई भी उचित कारण रिकॉर्ड पर नहीं है।”
2. सैंक्शन का आदेश अवैध: कोर्ट ने अभियोजन की मंजूरी (Sanction) देने वाले आदेश को भी खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि आदेश में केवल यह लिखा था कि “दस्तावेजों और साक्ष्यों के अवलोकन से संतुष्टि हुई है”, जो कि बहुत अस्पष्ट है। कोर्ट ने टिप्पणी की:
“अपीलकर्ता के खिलाफ दिया गया सैंक्शन आदेश अधिकारियों द्वारा ‘दिमाग का इस्तेमाल’ (Application of mind) नहीं दर्शाता है। अगर मंजूरी केवल अस्पष्ट बयानों पर आधारित होगी, तो धारा 197 का सुरक्षा कवच ही खत्म हो जाएगा।”
3. अदालतों का नियंत्रण (Judicial Control): सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण कानूनी बिंदु स्पष्ट किया। कोर्ट ने कहा कि जब कोई अदालत CrPC की धारा 173(8) के तहत अतिरिक्त जांच की अनुमति देती है, तो वह मामला अदालत के नियंत्रण से बाहर नहीं होता।
“चूंकि अतिरिक्त जांच अदालत की अनुमति से की जा रही है, इसलिए उस पर ‘न्यायिक निगरानी/नियंत्रण’ (Judicial Stewardship) रखना अदालत का कर्तव्य है।”
निर्देश:
- यदि FIR और चार्जशीट के बीच लंबा अंतराल है, तो कोर्ट को जांच एजेंसी से स्पष्टीकरण मांगना चाहिए।
- यदि बिना वजह जांच लंबी खिंचती है, तो आरोपी या शिकायतकर्ता BNSS की धारा 528 (या CrPC की धारा 482) के तहत हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटा सकते हैं।
फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए रॉबर्ट लालचुनलुंगा चोंगथु के खिलाफ जारी संज्ञान आदेश और संपूर्ण आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया।
केस का विवरण:
- केस टाइटल: रॉबर्ट लालचुनलुंगा चोंगथु @ आर.एल. चोंगथु बनाम बिहार राज्य
- बेंच: जस्टिस संजय करोल और जस्टिस नोंगमीकापम कोटेश्वर सिंह
- साइटेशन: 2025 INSC 1339




