पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने एक 80 वर्षीय विधवा को राहत देते हुए हरियाणा सरकार के बिजली विभाग को आदेश दिया है कि वह उसके पति की पारिवारिक पेंशन और अन्य सेवानिवृत्ति लाभों की सत्यता दो महीने के भीतर जांचकर सभी वैध लाभ जारी करे। यह मामला लगभग पाँच दशक से लंबित था।
न्यायमूर्ति हरप्रीत सिंह बराड़ ने अपने 14 नवंबर के आदेश में दर्ज किया कि याचिकाकर्ता लक्ष्मी देवी, एक निरक्षर और असहाय वृद्धा, 1974 में पति की मृत्यु के बाद से पेंशन और सेवा लाभ पाने के लिए “लगभग पाँच दशकों से pillar to post” भटकने को मजबूर रही।
लक्ष्मी देवी के पति, स्व. महा सिंह, वर्ष 1955 में लाइनमैन-II के पद पर नियुक्त हुए थे और 5 जनवरी 1974 को ड्यूटी के दौरान उनकी मृत्यु हो गई। याचिका के अनुसार, उन्हें केवल ₹6,026 की अनुग्रह राशि मिली, परंतु पारिवारिक पेंशन, ग्रेच्युटी और लीव सैलरी जैसे अन्य लाभ कभी जारी नहीं किए गए।
वर्षों तक कई प्रार्थना पत्र, 2005 में दायर एक रिट याचिका और हाल में दायर एक आरटीआई के बावजूद, विभागों ने केवल आंतरिक पत्राचार किया और कई बार रिकॉर्ड “बहुत पुराना होने” का हवाला देकर कोई ठोस राहत नहीं दी।
अदालत ने इस मामले को “दिल दहला देने वाली और दुखद प्रशासनिक उदासीनता” बताया। न्यायालय ने कहा कि पहले से ही आर्थिक और भावनात्मक कठिनाइयों से जूझ रही विधवा को “प्रणालीगत उदासीनता और प्रक्रिया-गत लापरवाही” के कारण और अधिक कष्ट झेलने पड़े।
न्यायमूर्ति बराड़ ने कहा कि यह वास्तविकता बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि समाज के सबसे ज़रूरतमंद लोग अक्सर न्याय पाने में सबसे असहाय साबित होते हैं।
लक्ष्मी देवी की परिस्थिति समय के साथ और बिगड़ी। 2007 में उनका बेटा उनसे अलग हो गया। उन्हें पड़ोसियों और फिर विवाहित बेटी पर निर्भर होना पड़ा। 2015 में वे गंभीर रूप से बीमार हुईं और पक्षाघात का शिकार हो गईं।
अदालत ने संवैधानिक न्यायालयों की जिम्मेदारी पर ज़ोर देते हुए कहा कि संविधान न्याय, समानता और मानव गरिमा के मूल्यों को समाज के सबसे कमजोर वर्गों तक पहुँचाने का आदेश देता है।
न्यायमूर्ति बराड़ ने कहा कि संवैधानिक करुणा—जो गरिमा, सहानुभूति और शोषित वर्गों के उत्थान पर आधारित है—ऐसे मामलों में न्यायालयों को सक्रिय हस्तक्षेप का मार्ग दिखाती है।
उन्होंने लिखा, “एक 80 वर्षीय असहाय विधवा को राहत देना किसी न्यायिक विवेक या दया का विषय नहीं, बल्कि प्रस्तावना और संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 में निहित संवैधानिक अनिवार्यता है।”
अदालत ने यह भी कहा, “जब भी न्यायालय सबसे कमजोर लोगों की रक्षा करने में असफल होते हैं, संविधान का वादा कमज़ोर पड़ जाता है। लेकिन जब वे उनकी रक्षा के लिए खड़े होते हैं, तब संविधान की रूपांतरकारी भावना अपने सर्वोत्तम रूप में चमकती है।”
हाईकोर्ट ने हरियाणा बिजली विभाग के प्रमुख सचिव या संबंधित प्रशासनिक अधिकारी को निर्देश दिया है कि वे स्वयं इस मामले की पूरी जांच करें और दो महीने के भीतर सभी वैध लाभ जारी करना सुनिश्चित करें।
याचिका का निस्तारण करते हुए अदालत ने साफ कहा कि ऐसे मामलों में सहानुभूति और तत्परता जरूरी है, न कि नौकरशाही टालमटोल।




