दिल्ली हाईकोर्ट: आपातकालीन स्थिति में गैर-सूचीबद्ध अस्पताल में इलाज का पूरा खर्च देना होगा, तकनीकी आधार पर दावा खारिज नहीं किया जा सकता

दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि आपातकालीन चिकित्सा स्थिति में, निर्धारित दरों (Fixed Rates) की कठोरता या अस्पताल का सरकारी पैनल में न होना, इलाज के पूरे खर्च की प्रतिपूर्ति (Reimbursement) में बाधा नहीं बन सकता।

जस्टिस नवीन चावला और जस्टिस मधु जैन की डिवीजन बेंच ने केंद्र सरकार (Union of India) द्वारा दायर याचिका को खारिज करते हुए सेंट्रल एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल (CAT) के उस आदेश को बरकरार रखा, जिसमें एक सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारी को कोविड-19 के आपातकालीन इलाज पर हुए पूरे खर्च का भुगतान करने का निर्देश दिया गया था।

मामले की पृष्ठभूमि (Case Background)

यह मामला पर्यटन मंत्रालय के सेवानिवृत्त निजी सचिव और केंद्र सरकार स्वास्थ्य योजना (CGHS) के लाभार्थी कमल किशोर से जुड़ा है। कोविड-19 महामारी के दौरान, 11 नवंबर 2020 को उन्हें गंभीर स्थिति में दिल्ली के यू.के. नर्सिंग होम मल्टी-स्पेशलिटी अस्पताल में भर्ती कराया गया था। उस समय CGHS पैनल वाले अस्पतालों में बेड उपलब्ध न होने के कारण उन्हें एक गैर-सूचीबद्ध (Non-Empanelled) अस्पताल में ले जाना पड़ा।

श्री किशोर को “Acute LRTI with Respiratory Distress (COVID-19 positive)” डायग्नोज किया गया और उन्हें आईसीयू में भी रहना पड़ा। 10 दिसंबर 2020 को डिस्चार्ज होने तक उनके इलाज पर कुल 7,20,911 रुपये का खर्च आया। अस्पताल ने इस स्थिति को इमरजेंसी सर्टिफाई किया था।

जब उन्होंने मेडिकल क्लेम प्रस्तुत किया, तो स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने केवल 4,38,800 रुपये स्वीकृत किए और शेष 2,82,111 रुपये यह कहते हुए देने से मना कर दिया कि भुगतान केवल निर्धारित CGHS दरों पर ही किया जा सकता है। इसके खिलाफ उन्होंने सेंट्रल एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल (CAT) का दरवाजा खटखटाया, जिसने 20 दिसंबर 2024 को उनके पक्ष में फैसला सुनाया। इसी आदेश को चुनौती देते हुए केंद्र सरकार ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी।

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पक्षों की दलीलें (Arguments)

याचिकाकर्ता (भारत संघ/Union of India): केंद्र सरकार की ओर से पेश वकील संदीप त्यागी ने तर्क दिया कि रिम्बर्समेंट की राशि दिल्ली सरकार (GNCTD) के 20 जून 2020 के आदेश और CGHS के 10 जुलाई 2020 के ऑफिस मेमोरेंडम द्वारा तय किए गए पैकेज रेट तक ही सीमित होनी चाहिए। उनका कहना था कि ये दरें “ऑल-इंक्लूसिव” (सब कुछ शामिल) थीं, लेकिन गैर-सूचीबद्ध अस्पताल (यू.के. नर्सिंग होम) ने नियमों का उल्लंघन करते हुए कंज्यूमेबल्स और अन्य सेवाओं के लिए अलग से चार्ज किया। उन्होंने यह भी दलील दी कि इस मामले में उक्त अस्पताल और दिल्ली सरकार को भी पक्षकार बनाया जाना चाहिए था।

प्रतिवादी (कमल किशोर): ट्रिब्यूनल की कार्यवाही के अनुसार, प्रतिवादी का मुख्य तर्क यह था कि उन्हें इमरजेंसी में भर्ती होना पड़ा था। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के सुरजीत सिंह बनाम पंजाब राज्य और पंजाब राज्य बनाम राम लुभाया बग्गा जैसे फैसलों का हवाला दिया, जो यह स्थापित करते हैं कि चिकित्सा का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 का अभिन्न अंग है। यह तर्क दिया गया कि “अति-तकनीकी आधारों” (Hyper-technical grounds) पर क्लेम खारिज नहीं किया जा सकता और अगर अस्पताल ने ज्यादा पैसा लिया है, तो यह सरकार और अस्पताल के बीच का मामला है, इसके लिए पेंशनभोगी को दंडित नहीं किया जा सकता।

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कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणी (Court’s Analysis)

डिवीजन बेंच ने केंद्र सरकार की दलीलों को खारिज करते हुए माना कि प्रतिवादी ने “गंभीर चिकित्सा स्थिति और इमरजेंसी” में इलाज कराया था, जैसा कि डॉक्टर द्वारा प्रमाणित किया गया है।

फैसला लिखते हुए जस्टिस मधु जैन ने टिप्पणी की:

“यह स्थापित कानून है कि मेडिकल इमरजेंसी के दौरान, रेट फिक्सेशन की कठोरता या गैर-सूचीबद्ध अस्पताल में भर्ती होना, पूर्ण प्रतिपूर्ति (Full Reimbursement) के रास्ते में बाधा नहीं बन सकता।”

हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के शिव कांत झा बनाम भारत संघ (2018) के फैसले का विस्तार से उल्लेख किया, जिसमें कहा गया था:

“मेडिकल क्लेम के अधिकार को केवल इसलिए नकारा नहीं जा सकता क्योंकि अस्पताल का नाम सरकारी आदेश में शामिल नहीं है। असली कसौटी इलाज की वास्तविकता (Factum of Treatment) होनी चाहिए… एक बार यह स्थापित हो जाने पर, तकनीकी आधार पर क्लेम को नकारा नहीं जा सकता।”

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बेंच ने अपने हालिया फैसलों (भारत संघ बनाम श्री जोगिंदर सिंह और एनडीएमसी बनाम शकुंतला गुप्ता) का भी हवाला दिया और दोहराया कि:

“संबंधित अस्पताल द्वारा अधिक चार्ज की गई राशि को विनियमित करने या वसूलने की जिम्मेदारी सरकार की है। आपात स्थिति में एक मरीज से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह म्युनिसिपल अथॉरिटीज द्वारा अधिसूचित दरों के अनुसार राशि बदलने के लिए अस्पताल प्रशासन से लड़ें।”

फैसला (Decision)

हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि केवल यह तर्क कि अस्पताल का शुल्क निर्धारित पैकेज से अधिक था, याचिकाकर्ताओं को उनकी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं करता, विशेषकर जब इलाज एक निर्विवाद मेडिकल इमरजेंसी में कराया गया हो।

कोर्ट ने याचिका (W.P.(C) 15255/2025) को खारिज करते हुए ट्रिब्यूनल के आदेश में कोई त्रुटि नहीं पाई। केंद्र सरकार को निर्देश दिया गया है कि वह प्रतिवादी को शेष राशि 2,82,111 रुपये का भुगतान करे। इसके साथ ही, क्लेम की तारीख से 6% प्रति वर्ष की दर से ब्याज भी 8 सप्ताह के भीतर देना होगा।

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