सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि अचल संपत्ति (immovable property) के बिक्री समझौते (agreement to sell) के विशिष्ट पालन (specific performance) की डिक्री को असाइन करने वाले विलेख (deed) का पंजीकरण अधिनियम, 1908 की धारा 17 के तहत अनिवार्य पंजीकरण आवश्यक नहीं है।
जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने निर्णय-ऋणी (judgment-debtor) के कानूनी वारिसों द्वारा दायर अपील को खारिज करते हुए यह पुष्टि की कि ऐसी डिक्री अपने आप में अचल संपत्ति में कोई अधिकार, स्वामित्व या हित (right, title, or interest) नहीं बनाती है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला (राजेश्वरी और अन्य बनाम षणमुगम और अन्य, सिविल अपील संख्या 13835/2025) एक निष्पादन कार्यवाही (execution proceeding) से उत्पन्न हुआ था। अपीलकर्ता एक निर्णय-ऋणी के कानूनी वारिस हैं, जिनके खिलाफ 13 सितंबर, 1993 को इरोड, तमिलनाडु की प्रथम अतिरिक्त सब-कोर्ट द्वारा ओ.एस. संख्या 100/1989 में विशिष्ट पालन की एक पक्षीय (ex-parte) डिक्री पारित की गई थी।
पहले प्रतिवादी, षणमुगम ने दावा किया कि वह 17 जुलाई, 1995 के एक असाइनमेंट डीड के माध्यम से इस डिक्री के असाइनी (assignee) हैं। जब षणमुगम ने डिक्री को लागू करने के लिए निष्पादन याचिका (E.P. No. 150/2004) दायर की, तो निष्पादन न्यायालय ने शुरू में 13 मार्च, 2008 को उनके पक्ष में सेल डीड निष्पादित करने का आदेश दिया।
हालांकि, अपीलकर्ताओं ने सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 47 के तहत एक आवेदन दायर कर निष्पादन को चुनौती दी। उन्होंने तर्क दिया कि असाइनमेंट डीड पंजीकृत (registered) नहीं थी और इसलिए कानूनन लागू करने योग्य नहीं है। 8 अप्रैल, 2010 को, निष्पादन न्यायालय ने इस तर्क को स्वीकार किया और आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के के. भास्करम बनाम मोहम्मद मौलाना मामले पर भरोसा करते हुए यह माना कि पंजीकरण अधिनियम की धारा 17(1) के तहत पंजीकरण के अभाव में असाइनमेंट अवैध था।
इसके बाद पहले प्रतिवादी ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जिसने निष्पादन न्यायालय के फैसले को पलट दिया। मद्रास हाईकोर्ट ने माना कि असाइनमेंट केवल डिक्री से लाभ प्राप्त करने के अधिकार का था और इसका अनिवार्य पंजीकरण आवश्यक नहीं था। इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा।
पक्षकारों की दलीलें
अपीलकर्ताओं की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता श्री जयंत मुथ राज ने तर्क दिया कि 1929 में संशोधित पंजीकरण अधिनियम की धारा 17(1)(e) के तहत, किसी भी डिक्री का असाइनमेंट जो सौ रुपये या उससे अधिक मूल्य की अचल संपत्ति में कोई हित बनाता है या असाइन करता है, उसका पंजीकृत होना अनिवार्य है।
ब्लैक लॉ डिक्शनरी से “हित” (interest) की परिभाषा का हवाला देते हुए, उन्होंने तर्क दिया कि विशिष्ट पालन की डिक्री संपत्ति में एक “हित” पैदा करती है। उन्होंने यह भी कहा कि ऐसे असाइनमेंट को पंजीकृत न करने से पक्षकारों को कई बार डिक्री असाइन करके पंजीकरण शुल्क से बचने का मौका मिलेगा, जिससे पंजीकरण अधिनियम का उद्देश्य विफल हो जाएगा।
इसके विपरीत, पहले प्रतिवादी (असाइनी) के वकील श्री आर. गणेश ने तर्क दिया कि विशिष्ट पालन की डिक्री स्वयं संपत्ति में कोई अधिकार स्थानांतरित नहीं करती है। यह केवल कानून की प्रक्रिया के माध्यम से सेल डीड प्राप्त करने का अधिकार प्रदान करती है। उन्होंने बॉम्बे हाईकोर्ट के अमोल बनाम देवराव (2011) के फैसले का हवाला दिया, जिसमें यह माना गया था कि ऐसे असाइनमेंट के लिए पंजीकरण की आवश्यकता नहीं है।
उन्होंने कहा कि डिक्री आगे की प्रक्रियाओं के अधीन है, जिसमें सेल डीड का निष्पादन और पंजीकरण शामिल है, और यह डिक्री-धारक को मालिक का दर्जा नहीं देती है।
कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियां
सुप्रीम कोर्ट ने मुख्य रूप से विशिष्ट पालन डिक्री की प्रकृति और पंजीकरण अधिनियम की धारा 17(1)(e) की व्याख्या पर ध्यान केंद्रित किया।
विशिष्ट पालन डिक्री की प्रकृति फैसला लिखते हुए जस्टिस विश्वनाथन ने बाबू लाल बनाम मेसर्स हजारी लाल किशोरी लाल (1982) और सूरज लैंप एंड इंडस्ट्रीज (प्रा.) लिमिटेड बनाम हरियाणा राज्य (2011) सहित शीर्ष अदालत के पिछले फैसलों का उल्लेख किया। कोर्ट ने दोहराया कि न तो बिक्री का समझौता और न ही विशिष्ट पालन की डिक्री डिक्री-धारक को कोई स्वामित्व (title) देती है।
कोर्ट ने कहा:
“यह देखा जाएगा… कि न तो बिक्री का समझौता और न ही अनुबंध के विशिष्ट पालन के आधार पर पारित डिक्री, डिक्री-धारक को कोई अधिकार या स्वामित्व देती है। अधिकार और स्वामित्व उसे केवल सेल डीड के निष्पादन पर ही प्राप्त होता है, चाहे वह निर्णय-ऋणी द्वारा किया गया हो या स्वयं न्यायालय द्वारा…”
निर्णय में स्पष्ट किया गया कि संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882 की धारा 54 के तहत, बिक्री का अनुबंध (contract for sale) अपने आप में ऐसी संपत्ति पर कोई हित या प्रभार (charge) नहीं बनाता है। कोर्ट ने नोट किया कि डिक्री पारित होने के बाद भी, पक्षकारों के बीच अनुबंध समाप्त नहीं होता है बल्कि बना रहता है, और यह सेल डीड निष्पादित होने तक अदालत के नियंत्रण के अधीन रहता है।
धारा 17(1)(e) की व्याख्या पंजीकरण अधिनियम का विश्लेषण करते हुए, पीठ ने कहा कि धारा 17(1)(e) केवल उन गैर-वसीयती दस्तावेजों (non-testamentary instruments) के लिए पंजीकरण अनिवार्य करती है जो किसी डिक्री को असाइन करते हैं, जब ऐसी डिक्री “अचल संपत्ति में… कोई अधिकार, स्वामित्व या हित… बनाने, घोषित करने, असाइन करने, सीमित करने या समाप्त करने का काम करती है।”
वर्तमान तथ्यों पर इसे लागू करते हुए, कोर्ट ने कहा:
“इस मामले में, जब विशिष्ट पालन की डिक्री स्वयं किसी अचल संपत्ति में कोई अधिकार, स्वामित्व या हित नहीं बनाती है या बनाने का दावा नहीं करती है, तो ऐसी डिक्री को असाइन करने वाले दस्तावेज को पंजीकृत करने का प्रश्न ही नहीं उठता।”
कोर्ट ने अमोल बनाम देवराव मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट के दृष्टिकोण से सहमति व्यक्त की, जिसमें कहा गया था कि विशिष्ट पालन की डिक्री केवल एक दावे को मान्यता देती है और इसके परिणामस्वरूप संपत्ति का हस्तांतरण नहीं होता है।
‘के. भास्करम’ मामले को खारिज किया सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से माना कि आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट का के. भास्करम बनाम मोहम्मद मौलाना (AIR 2005 AP 524) का फैसला, जिस पर निष्पादन न्यायालय ने भरोसा किया था, “सही कानून नहीं है।” पीठ ने नोट किया कि भास्करम मामले में, ऐसा प्रतीत होता है कि पक्षकारों ने इस स्वीकृति पर कार्यवाही की थी कि पंजीकरण आवश्यक था, जो कि सही कानूनी स्थिति नहीं थी।
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि असाइनमेंट डीड (प्रदर्श बी1) को पंजीकरण की आवश्यकता नहीं थी। कोर्ट ने कहा कि निष्पादन न्यायालय द्वारा डिक्री के निष्पादन से इनकार करना “स्पष्ट रूप से गलत” था, और हाईकोर्ट द्वारा उस आदेश को रद्द करना “स्पष्ट रूप से सही” था।
अपील को खारिज करते हुए, कोर्ट ने कहा:
“यदि कोई पक्ष असाइनमेंट डीड प्राप्त करने के बाद डिक्री निष्पादित नहीं करता है, तो अचल संपत्ति में उसे कोई अधिकार प्राप्त नहीं होगा। इसलिए, यह तर्क कि इससे राज्य को राजस्व की हानि होगी, स्वीकार्य नहीं है।”
इस मामले में लागत (costs) के लिए कोई आदेश नहीं दिया गया।




