बॉम्बे हाई कोर्ट ने एक व्यक्ति को कड़ी फटकार लगाई है, जिसने अपने बुजुर्ग माता-पिता को मुंबई आने पर उसके घर में ठहरने से रोकने के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाया था। अदालत ने कहा कि यह परिवारिक मूल्यों के पतन का चिंताजनक उदाहरण है।
न्यायमूर्ति जितेंद्र जैन ने गुरुवार को पारित आदेश में याचिकाकर्ता को कोई राहत देने से इनकार कर दिया। उसने 2018 में पारित उस सिविल कोर्ट के आदेश को चुनौती दी थी जिसमें माता-पिता को उसके गोरेगांव स्थित घर के उपयोग से रोकने से इंकार कर दिया गया था।
अदालत ने इस मामले को “दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति” बताते हुए कहा कि एक बेटा अपने बीमार और वृद्ध माता-पिता की देखभाल करने के बजाय उन्हें अदालत में घसीट रहा है, जो नैतिक मूल्यों के गिरने को दर्शाता है।
न्यायमूर्ति जैन ने कहा कि समाज “श्रवण कुमार को भूल गया है,” जो रामायण में अपने माता-पिता के प्रति आदर्श भक्ति के लिए जाने जाते हैं। न्यायालय ने टिप्पणी की कि आज के समय में “परवरिश में कुछ बहुत गंभीर रूप से गलत है, जब बच्चे माता-पिता को तीर्थ ले जाने की बजाय अदालत ले जा रहे हैं।”
उन्होंने माता-पिता की सेवा को “पवित्र और नैतिक कर्तव्य” बताया और कहा कि यह केवल कृतज्ञता का भाव नहीं, बल्कि “ईश्वर का सम्मान करने” जैसा है।
अदालत ने कहा, “कभी-कभी सच्चाई बिल्कुल उलट होती है। माता-पिता दस बच्चों की देखभाल कर लेते हैं, लेकिन कभी-कभी दस बच्चे भी अपने माता-पिता की देखभाल नहीं कर पाते।”
अदालत ने माना कि याचिकाकर्ता का यह दायित्व है कि वह अपने बुजुर्ग माता-पिता की देखभाल करे। वर्तमान में माता-पिता कोल्हापुर में अपने तीसरे बेटे के साथ रहते हैं, लेकिन उन्हें इलाज के लिए अक्सर 380 किलोमीटर दूर मुंबई आना पड़ता है।
अदालत ने स्पष्ट निर्देश दिया कि जब भी माता-पिता मुंबई आएंगे, तो याचिकाकर्ता या उसकी पत्नी उन्हें स्टेशन/बिंदु से लेकर घर लाएंगे और इलाज के लिए अस्पताल भी साथ जाएंगे।
अदालत ने चेतावनी दी कि यदि इन निर्देशों का उल्लंघन हुआ या माता-पिता को किसी प्रकार की असुविधा हुई तो बेटे पर अवमानना की कार्यवाही की जाएगी।
अदालत ने याचिका को खारिज करते हुए कहा कि ऐसे मामलों को केवल संपत्ति विवाद की तरह नहीं देखा जा सकता। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि माता-पिता की देखभाल का दायित्व कानून के साथ-साथ एक सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारी भी है।




