सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में यह निर्धारित किया है कि कोई भी हाईकोर्ट, दंड प्रक्रिया संहिता (Cr.PC) की धारा 482 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए, किसी फर्स्ट इंफॉर्मेशन रिपोर्ट (FIR) को रद्द करने के लिए ‘मिनी-ट्रायल’ (लघु-सुनवाई) नहीं कर सकता।
जस्टिस संजय करोल और जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसने भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 498A (पति या रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता) और दहेज निषेध अधिनियम की धारा 3 व 4 के तहत दर्ज एक एफआईआर को रद्द कर दिया था।
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि हाईकोर्ट ने एफआईआर को केवल इस आधार पर रद्द करके गलती की कि एफआईआर में उल्लिखित कुछ विशिष्ट घटनाएं पिछली शिकायतों में मौजूद नहीं थीं।
यह फैसला क्रिमिनल अपील संख्या 4752 ऑफ 2025 में सुनाया गया।
मामले की पृष्ठभूमि
मामले के तथ्यों के अनुसार, अपीलकर्ता-पत्नी और प्रतिवादी-पति का विवाह 20 नवंबर 2020 को हुआ था और उनका एक बेटा भी है। पत्नी ने आरोप लगाया कि शादी के 5-6 महीने बाद ही उसे पति और उसके परिवार के सदस्यों द्वारा दहेज के लिए प्रताड़ित किया जाने लगा।
28 जनवरी 2024 को, पत्नी ने पति (प्रतिवादी संख्या 1), सास (प्रतिवादी संख्या 2), ससुर (प्रतिवादी संख्या 3), ननद (प्रतिवादी संख्या 4), और नंदोई (प्रतिवादी संख्या 5) के खिलाफ पुलिस स्टेशन आलोट, जिला रतलाम में एफआईआर (संख्या 35/2024) दर्ज कराई।
एफआईआर में दहेज के लिए ताने मारने के अलावा दो विशिष्ट घटनाओं का जिक्र किया गया था:
- 22 जुलाई 2021 को, सभी पांचों प्रतिवादियों ने उसे गालियां दीं और प्रतिवादी संख्या 5 (नंदोई) ने उसे थप्पड़ मारा और दहेज लाने को कहा।
- 27 नवंबर 2022 को, पति ने एमआईसी परीक्षा (MIC examination) देने के लिए 50 लाख रुपये की मांग की और कहा कि पैसे लाने पर ही वह उसे साथ रखेगा। इसके बाद पति ने उसे और उसके बेटे को घर से निकाल दिया।
अपीलकर्ता के अनुसार, उसके पिता द्वारा सुलह के प्रयास विफल रहे क्योंकि प्रतिवादी 50 लाख रुपये की मांग पर “अड़े” हुए थे।
इसके बाद, प्रतिवादियों ने एफआईआर को रद्द करवाने के लिए Cr.PC की धारा 482 के तहत मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में याचिका दायर की। 19 जुलाई 2024 को, हाईकोर्ट ने याचिका स्वीकार करते हुए आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया। इसी आदेश के खिलाफ पत्नी ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की।
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दलीलें
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में प्रतिवादियों का प्रतिनिधित्व करने के लिए एक वरिष्ठ ‘न्याय मित्र’ (Amicus Curiae) नियुक्त किया था।
राज्य सरकार (प्रतिवादी संख्या 6) की दलीलें: राज्य के वकील ने तर्क दिया कि एफआईआर रद्द करने की शक्ति का प्रयोग केवल “दुर्लभतम मामलों” (rarest of rare cases) में ही किया जाना चाहिए। यह प्रस्तुत किया गया कि एक अदालत को एफआईआर की जांच करते समय आरोपों की “विश्वसनीयता या प्रामाणिकता” पर जांच नहीं करनी चाहिए। यह भी तर्क दिया गया कि यदि उत्पीड़न और दहेज की मांग के अन्य विशिष्ट आरोप मौजूद हैं, तो केवल पिछली शिकायतों में दो घटनाओं का उल्लेख न होने को “बाद में जोड़ा गया” (afterthought) नहीं कहा जा सकता।
न्याय मित्र (प्रतिवादियों की ओर से) की दलीलें: न्याय मित्र ने प्रस्तुत किया कि पत्नी द्वारा पहले महिला सेल में दर्ज की गई शिकायतें “सामान्य प्रकृति” (generic in nature) की थीं और उनमें 22.07.2021 और 27.11.2022 की विशिष्ट तारीखों या “50 लाख की तयशुदा रकम” (crystallized amount) का कोई जिक्र नहीं था। यह भी तर्क दिया गया कि एफआईआर दर्ज करने में एक साल की देरी हुई और अन्य रिश्तेदारों के खिलाफ आरोप “अस्पष्ट और सामान्य” (vague and omnibus) थे।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में मुख्य कानूनी सवाल यह माना कि क्या हाईकोर्ट एफआईआर को मुख्य रूप से इस आधार पर रद्द कर सकता है कि पिछली शिकायतों में दो विशिष्ट घटनाओं का उल्लेख नहीं था, और क्या ऐसा करना एक ‘मिनी-ट्रायल’ के समान नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने, जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा द्वारा लिखे गए फैसले में, पाया कि हाईकोर्ट का निर्णय मुख्य रूप से इसी चूक से प्रभावित था। हाईकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला था कि ये घटनाएं “बाद में सोची गईं” (afterthought) और पति द्वारा भेजे गए नोटिस की “जवाबी कार्रवाई” (counterblast) थीं।
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने 22.01.2023 और 23.01.2023 की पिछली शिकायतों के अंशों का अवलोकन करने के बाद पाया कि उनमें भी “उत्पीड़न और दहेज की मांग के प्रथम दृष्टया आरोप” (prime facie allegations of harassment and demand of dowry) मौजूद थे। इनमें कार और ए.सी. की मांग, भोजन पर पाबंदी और धमकियों के आरोप शामिल थे।
शीर्ष अदालत ने धारा 482 Cr.PC के तहत शक्तियों की सीमित प्रकृति पर स्थापित कानून को दोहराया। स्टेट ऑफ ओडिशा बनाम प्रतिमा मोहंती और सीबीआई बनाम आर्यन सिंह जैसे मामलों का हवाला देते हुए, पीठ ने इस बात पर जोर दिया कि एफआईआर रद्द करने के स्तर पर “अदालत को मिनी-ट्रायल करने की आवश्यकता नहीं है।”
नीहारिका इंफ्रास्ट्रक्चर (2021) मामले के फैसले का जिक्र करते हुए कोर्ट ने कहा: “33.5. एफआईआर/शिकायत, जिसे रद्द करने की मांग की गई है, की जांच करते समय, अदालत एफआईआर/शिकायत में लगाए गए आरोपों की ‘विश्वसनीयता या प्रामाणिकता’ (reliability or genuineness) या अन्यथा के बारे में पूछताछ नहीं कर सकती है।”
सुप्रीम कोर्ट ने माना कि हाईकोर्ट ने इस दृष्टिकोण को अपनाकर “कानूनी गलती” (erred in law) की है। कोर्ट ने कहा, “हमारा विचार है कि हाईकोर्ट ने शिकायतों और एफआईआर में लगे आरोपों की विश्वसनीयता या अन्यथा के संबंध में जांच करके कानूनन त्रुटि की है।”
अदालत ने माना कि “शिकायतों और एफआईआर को एक साथ पढ़ने (conjoint reading) से” उत्पीड़न और दहेज की मांग के प्रथम दृष्टया आरोप स्पष्ट रूप से बनते हैं।
यह निष्कर्ष निकालते हुए कि हाईकोर्ट का दृष्टिकोण “मिनी-ट्रायल करने के समान है,” सुप्रीम कोर्ट ने अपील को स्वीकार कर लिया और हाईकोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया।
अदालत ने निर्देश दिया, “तदनुसार, हमारे विचार में, यह मामला इस न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप की मांग करता है… हम एतद्द्वारा हाईकोर्ट द्वारा विविध आपराधिक प्रकरण संख्या 10695 ऑफ 2024 में पारित आक्षेपित आदेश को रद्द करते हैं।”
एफआईआर संख्या 35/2024 से उत्पन्न होने वाली आपराधिक कार्यवाही को बहाल कर दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि सभी पक्षों के लिए उपलब्ध सभी दलीलें और बचाव ट्रायल कोर्ट के समक्ष विचार के लिए खुले रहेंगे, जिस पर कानून के अनुसार और गुण-दोष के आधार पर निर्णय लिया जाएगा।




