‘आश्रित’ की परिभाषा में ‘नाबालिग विधवा बहन’ का जिक्र अप्रासंगिक, विधि आयोग समीक्षा करे: सुप्रीम कोर्ट

भारत के सुप्रीम कोर्ट ने कर्मचारी प्रतिकर अधिनियम, 1923 के एक प्रावधान को “उपयुक्त संशोधन” के लिए भारतीय विधि आयोग को भेजा है। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि ‘आश्रित’ की परिभाषा में “नाबालिग होने पर विधवा बहन” का जिक्र अब अप्रासंगिक (outdated) हो चुका है।

जस्टिस राजेश बिंदल और जस्टिस मनमोहन की पीठ ने यह महत्वपूर्ण टिप्पणी एक बीमा कंपनी द्वारा दायर अपील को खारिज करते हुए की। कोर्ट ने अपने आदेश में कहा, “आज के समय में, विशेषकर हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के लागू होने के बाद, सामान्य तौर पर कोई नाबालिग विधवा बहन नहीं मिलेगी।”

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने “मामले में अंतर्ग्रस्त राशि को ध्यान में रखते हुए” वर्तमान अपील को खारिज कर दिया, लेकिन इस संबंध में “कानूनी प्रश्न को खुला रखा”।

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मामले की पृष्ठभूमि

यह अपील (सिविल अपील संख्या 2574/2011), द न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम कोग्गा व अन्य के नाम से, बीमा कंपनी द्वारा कर्नाटक हाईकोर्ट (बेंगलुरु) के 5 अक्टूबर 2009 के एक फैसले के खिलाफ दायर की गई थी।

हाईकोर्ट ने कर्मचारी प्रतिकर अधिनियम, 1923 (1923 अधिनियम) के तहत कमिश्नर द्वारा पारित एक फैसले को बरकरार रखा था। इस फैसले के तहत एक मृतक कर्मचारी के आश्रितों को मुआवजा देने का आदेश दिया गया था। इन आश्रितों में मृतक की दो विधवा बहनें (प्रतिवादी संख्या 3 और 4) भी शामिल थीं। ये बहनें मृतक की मृत्यु के समय नाबालिग नहीं थीं, लेकिन कथित तौर पर वे मृतक पर ही निर्भर थीं।

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अपीलकर्ता की दलीलें

न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड ने हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। 24 अगस्त 2023 के एक पिछले अदालती आदेश में यह दर्ज किया गया था कि, “अपीलकर्ता-बीमा कंपनी का यह पक्ष है कि मृतक कर्मचारी की दोनों विधवा बहनें, कानून के तहत परिकल्पित, मृतक कर्मचारी की आश्रित के रूप में अर्हता प्राप्त नहीं करती हैं।”

बीमा कंपनी का पूरा मामला 1923 अधिनियम की धारा 2(1)(d)(iii)(d) में दी गई “आश्रित” की परिभाषा पर टिका हुआ था।

कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियां

सुप्रीम कोर्ट ने 9 अक्टूबर 2025 के अपने आदेश में, पहले 24 अगस्त 2023 के अपने पिछले आदेश का उल्लेख किया। उस आदेश में, पीठ ने 1923 अधिनियम की सटीक वैधानिक भाषा पर ध्यान दिया था। यह धारा एक आश्रित को इस प्रकार परिभाषित करती है: “एक नाबालिग भाई, या एक अविवाहित बहन या एक विधवा बहन यदि नाबालिग हो”।

पीठ ने कहा कि कर्मचारी प्रतिकर अधिनियम वर्ष 1923 में अधिनियमित किया गया था। इसके बाद, पीठ ने आज के समय में इस प्रावधान की प्रासंगिकता पर विशिष्ट टिप्पणी की।

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कोर्ट ने कहा, “आज के समय में, विशेषकर हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के लागू होने के बाद, सामान्य तौर पर कोई नाबालिग विधवा बहन नहीं मिलेगी।”

कोर्ट ने यह निष्कर्ष निकाला कि 1923 के कानून और वर्तमान सामाजिक परिदृश्य के बीच इस विसंगति पर विधायी समीक्षा की तत्काल आवश्यकता है। पीठ ने अपनी राय व्यक्त करते हुए कहा, “हमारी राय में, इस मामले पर भारतीय विधि आयोग द्वारा उपरोक्त प्रावधान या 1923 अधिनियम में किसी अन्य प्रावधान के उपयुक्त संशोधन के लिए विचार करने की आवश्यकता है।”

अंतिम निर्णय और निर्देश

अपने अंतिम आदेश में, सुप्रीम कोर्ट ने “पक्षों के विद्वान वकीलों को सुनने के बाद और वर्तमान अपील में अंतर्ग्रस्त राशि को ध्यान में रखते हुए” कहा कि, “हम विवादित फैसले में हस्तक्षेप करने के इच्छुक नहीं हैं।”

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कोर्ट ने निम्नलिखित आदेश पारित किए:

  1. “अपील तदनुसार खारिज की जाती है, हालांकि, कानूनी प्रश्न खुला रखा गया है।”
  2. आदेश की एक प्रति सचिव, विधि और न्याय मंत्रालय को भेजी जाए, “जो इसे आगे अध्यक्ष, भारतीय विधि आयोग को संदर्भित कर सकते हैं।”
  3. रजिस्ट्री को अपील खारिज होने की सूचना प्रतिवादियों को भेजने का निर्देश दिया गया, “ताकि वे उस राशि को निकाल सकें, जो कर्नाटक हाईकोर्ट में जमा है।” कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि किसी प्रतिवादी की मृत्यु हो गई हो, तो उनके कानूनी वारिस उस राशि को निकाल सकते हैं।

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