घायल चश्मदीद की गवाही सत्य मानी जानी चाहिए; जब तक संदेह न हो, नेत्रसाक्ष्य सर्वोत्तम साक्ष्य है: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने 1988 के एक दोहरे हत्याकांड मामले में ओम पाल, नरेंद्र, रणवीर और धरमवीर को मिली आजीवन कारावास की सजा को बरकरार रखते हुए उनकी आपराधिक अपीलों को खारिज कर दिया है।

जस्टिस संजय करोल और जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने ट्रायल कोर्ट और उत्तराखंड हाईकोर्ट के समवर्ती निष्कर्षों की पुष्टि की, जिसमें अपीलकर्ताओं को भारतीय दंड संहिता (IPC), 1860 की धारा 302 (हत्या), 149 (गैरकानूनी सभा), और 307 (हत्या का प्रयास) के तहत दोषी ठहराया गया था।

जस्टिस मिश्रा द्वारा लिखे गए फैसले में, कोर्ट ने माना कि अपीलकर्ता ही इस घटना में आक्रमणकारी थे, जो एक भूमि विवाद से उपजी थी। कोर्ट ने बचाव पक्ष की इस दलील को खारिज कर दिया कि यह मामला “आपसी लड़ाई” का था और हत्या के अपवादों के अंतर्गत आता है। कोर्ट ने इस सिद्धांत को दोहराया कि “प्रत्यक्ष साक्ष्य ही सर्वोत्तम साक्ष्य है, जब तक कि उस पर संदेह करने का कोई कारण न हो” और “एक घायल चश्मदीद गवाह की गवाही को सत्य माना जाना चाहिए।”

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मामले की पृष्ठभूमि

यह घटना 19 मई, 1988 की है, जिसमें एक ही पूर्वज के वंशज दो समूह शामिल थे, जिनके बीच खेत की सीमा (मेड़) को लेकर “लंबे समय से विवाद” चल रहा था।

घटना के संबंध में दो अलग-अलग प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गईं:

  1. FIR नंबर 65: 20 मई, 1988 को अपीलकर्ताओं के पक्ष द्वारा दर्ज की गई, जिसमें आरोप लगाया गया कि शिकायतकर्ता पक्ष (दिले राम, वेद पाल, आदि) ने उन पर हमला किया था। इस मामले (सत्र परीक्षण संख्या 57/1992) में सभी आरोपी बरी हो गए।
  2. FIR नंबर 65A: 23 मई, 1988 को शिकायतकर्ता पक्ष (PW-1, मृतक दिले राम के पुत्र तेजपाल सिंह) द्वारा दर्ज की गई। इस FIR में आरोप लगाया गया कि 19 मई, 1988 को मोल्हर और धरमवीर ने खेत की मेड़ को नुकसान पहुंचाया, और जब दिले राम ने आपत्ति की, तो उन्होंने और अन्य आरोपियों (कांतू, इंछा राम, नरेंद्र, ओम पाल, पहलू और रणवीर) ने दिले राम, ब्रह्म सिंह और बंगाल सिंह पर लाठियों, फावड़ों और कुल्हाड़ियों से हमला किया।
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दिले राम ने 24 मई, 1988 को और ब्रह्म सिंह ने 31 मई, 1988 को दम तोड़ दिया।

FIR नंबर 65A पर आधारित मामले (सत्र परीक्षण संख्या 56/1992) में ट्रायल कोर्ट ने सभी सात आरोपियों को दोषी पाया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई। 29 नवंबर, 2010 को उत्तराखंड हाईकोर्ट ने भी उनकी सजा को बरकरार रखा, जिसके खिलाफ वर्तमान अपीलें सुप्रीम कोर्ट में दायर की गईं।

पक्षों की दलीलें

अपीलकर्ताओं की दलीलें: अपीलकर्ताओं के वकील ने तर्क दिया कि यह घटना “पूर्व नियोजित हत्या नहीं थी, बल्कि दोनों समूहों के बीच हुई आपसी लड़ाई का परिणाम थी।” मुख्य दलीलें थीं:

  • दोनों पक्षों को चोटें आई थीं, जो दर्शाता है कि अपीलकर्ताओं ने आत्मरक्षा में कदम उठाया हो सकता है।
  • उनकी FIR (नंबर 65) पहले दर्ज की गई थी।
  • शिकायतकर्ता पक्ष की FIR तीन दिन की देरी से दर्ज की गई थी।
  • यह तर्क दिया गया कि यह मामला IPC की धारा 304 भाग II (गैर-इरादतन हत्या) के तहत आना चाहिए, न कि 302 (हत्या) के तहत।

राज्य (प्रतिवादी) की दलीलें: राज्य ने तर्क दिया कि अपीलकर्ता “आक्रमणकारी” थे और उनके पास “दिले राम को मारने का मकसद” था, क्योंकि विवादित खेत से संबंधित चकबंदी की कार्यवाही दिले राम के पक्ष में तय हुई थी, जिससे अपीलकर्ता “नाराज” थे।

  • राज्य ने कहा कि “साझा मकसद” के कारण यह मामला धारा 300 के चौथे अपवाद (आपसी लड़ाई) के अंतर्गत नहीं आता है।
  • FIR में देरी के संबंध में, राज्य ने तर्क दिया कि ट्रायल कोर्ट ने सही पाया था कि “देरी का संतोषजनक स्पष्टीकरण” दिया गया था।
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सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण

सुप्रीम कोर्ट ने अपने विश्लेषण की शुरुआत संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत समवर्ती निष्कर्षों में हस्तक्षेप के सीमित दायरे को नोट करते हुए की। कोर्ट ने कहा कि ऐसा केवल “असाधारण परिस्थितियों” में ही किया जाता है, जैसे कि जब कोई निर्णय “अदालत की अंतरात्मा को झकझोर दे” या जब निष्कर्ष “स्पष्ट रूप से विकृत” हों।

घायल चश्मदीद (PW-2) पर भरोसा: कोर्ट ने PW-2 (बंगाल सिंह) की गवाही पर महत्वपूर्ण भरोसा जताया, जो एक घायल चश्मदीद गवाह थे। फैसले में कहा गया: “यह स्थापित है कि एक घायल चश्मदीद की गवाही को कानून में एक विशेष दर्जा दिया गया है। एक ‘स्टांप विटनेस’ होने के नाते, उसकी उपस्थिति पर संदेह नहीं किया जा सकता।” (पैरा 35)

कोर्ट ने कहा कि एक गवाह को लगी चोट “अपराध स्थल पर उसकी उपस्थिति की अंतर्निहित गारंटी” होती है (पैरा 37)। कोर्ट ने पाया कि “बचाव पक्ष ने PW-2 के बयान को बिल्कुल भी चुनौती नहीं दी थी, बल्कि इसके विपरीत, बचाव पक्ष ने उक्त घटना स्थल पर उसकी उपस्थिति को स्वीकार किया था।” (पैरा 38)

‘आपसी लड़ाई’ की दलील खारिज: कोर्ट ने अपीलकर्ताओं की इस मुख्य दलील को स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया कि यह घटना IPC की धारा 300 के चौथे अपवाद के तहत आने वाली ‘आपसी लड़ाई’ थी। पीठ ने कहा: “हम इस दलील से आश्वस्त नहीं हैं…” (पैरा 44)

पुलिचेरला नागराजू बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामले का हवाला देते हुए, कोर्ट ने इस्तेमाल किए गए हथियार की प्रकृति और शरीर के महत्वपूर्ण हिस्सों पर किए गए वार जैसे कारकों के आधार पर आरोपियों के इरादे की जांच की।

कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला: “मेडिकल साक्ष्यों से… मृतकों के सिर पर फावड़ों के तेज किनारों से घातक वार करना यह दर्शाता है कि हमलावरों ने उन्हें स्थायी रूप से खत्म करने के स्पष्ट मकसद और इरादे से काम किया था। इस प्रकार, मामले को IPC की धारा 300 के चौथे अपवाद के तहत लाने की परिस्थितियां मौजूद नहीं हैं।” (पैरा 45)

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FIR में देरी और हथियारों की बरामदगी न होना: कोर्ट ने प्रक्रियात्मक खामियों से संबंधित अपीलकर्ताओं की दलीलों को भी खारिज कर दिया।

  • देरी: कोर्ट ने माना कि FIR (नंबर 65A) में देरी का “संतोषजनक स्पष्टीकरण” दिया गया था। PW-1 (शिकायतकर्ता) ने पहले अपने घायल पिता (दिले राम) और रिश्तेदारों को चंडीगढ़ के अस्पताल पहुंचाया और वापस आने के बाद FIR दर्ज कराई। कोर्ट ने इस स्पष्टीकरण को “संभावित और स्वाभाविक” पाया। (पैरा 48)
  • हथियारों की बरामदगी न होना: कोर्ट ने माना कि जब सुसंगत मेडिकल और प्रत्यक्ष (ocular) साक्ष्य मौजूद हों, तो हथियारों की बरामदगी न होना अभियोजन के मामले के लिए घातक नहीं हो सकता। (पैरा 49-50)

अंतिम निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि इसमें “कोई संदेह नहीं है” कि अपीलकर्ताओं ने “अपने साझा इरादे को आगे बढ़ाने में, एक गैरकानूनी सभा का गठन किया” और “ब्रह्म सिंह और दिले राम की हत्या की।” (पैरा 51)

अपीलों को “मेरिट रहित” पाते हुए, कोर्ट ने उन्हें खारिज कर दिया। अपीलकर्ताओं को “तत्काल हिरासत में आत्मसमर्पण” करने का आदेश दिया गया और उनके जमानत बांड रद्द कर दिए गए। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि अपीलकर्ता राज्य सरकार की लागू नीति के अनुसार “छूट के लिए आवेदन” करने के लिए स्वतंत्र हैं।

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