केरल हाईकोर्ट ने एक आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने की याचिका पर सुनवाई करते हुए यह माना है कि किसी व्यावसायिक निवेश के लिए पहले से भारग्रस्त (encumbered) संपत्ति को सुरक्षा (security) के तौर पर देना और इस तथ्य को छुपाना, प्रथम दृष्टया आईपीसी की धारा 420 के तहत “धोखा देने का इरादा” दर्शाता है।
न्यायमूर्ति जी. गिरीश ने दंड प्रक्रिया संहिता (Cr.P.C) की धारा 482 के तहत दायर एक याचिका पर फैसला सुनाते हुए, इसे आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया। न्यायालय ने दूसरे आरोपी (जैसन थॉमस) के खिलाफ आरोपों को रद्द कर दिया, लेकिन पहले आरोपी (बिज्जू बालकृष्णन) की याचिका को खारिज कर दिया।
याचिकाकर्ताओं ने न्यायिक प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट कोर्ट-III, नेय्यात्तिनकारा के समक्ष लंबित सी.सी संख्या 811/2019 की कार्यवाही को रद्द करने की मांग की थी। उन पर भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 406 (आपराधिक विश्वासघात) और 420 (धोखाधड़ी) सहपठित धारा 34 के तहत आरोप तय किए गए थे।
मामले की पृष्ठभूमि (अभियोजन पक्ष का मामला)
अभियोजन पक्ष का मामला, जो बालरामपुरम पुलिस स्टेशन में दर्ज अपराध संख्या 1348/2018 से उत्पन्न हुआ, यह आरोप लगाता है कि याचिकाकर्ताओं ने धोखाधड़ी और बेईमानी से शिकायतकर्ता (अनिल मारंगोली थॉमस) को थूथुक्कुडी से चेन्नई तक रेत, चट्टानों और बोल्डर के परिवहन के व्यवसाय में वित्तपोषण (financing) के लिए प्रेरित किया।
आरोप है कि याचिकाकर्ताओं ने शिकायतकर्ता को प्रति माह 1.5 लाख रुपये के लाभ हिस्से का आश्वासन दिया था। इस आश्वासन पर विश्वास करते हुए, शिकायतकर्ता ने व्यापार के लिए कुल 79,63,000/- रुपये की राशि दी।
अभियोजन पक्ष के अनुसार, याचिकाकर्ताओं ने लाभ साझा करने का अपना आश्वासन पूरा नहीं किया। इसके अतिरिक्त, यह पाया गया कि पहले याचिकाकर्ता के नाम पर मौजूद भू-संपत्ति, जिसे शिकायतकर्ता द्वारा दी गई राशि के लिए सुरक्षा (security) के तौर पर पेश किया गया था, वह पहले से ही केएसएफई (KSFE) कुडप्पानक्कुन्नू शाखा के पास चिट्टी लेनदेन और ऋण के संबंध में भारग्रस्त (encumbered) थी।
अंतिम रिपोर्ट में यह भी आरोप लगाया गया कि याचिकाकर्ताओं ने शिकायतकर्ता से 5-5 लाख रुपये के चार चेक यह वचन देकर प्राप्त किए कि वे उक्त मूल्य की धातु (metals) की आपूर्ति करेंगे, लेकिन इस वादे को भी पूरा नहीं किया।
याचिकाकर्ताओं की दलीलें
याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि शिकायतकर्ता के साथ उनका लेन-देन “पूरी तरह से दीवानी (civil) प्रकृति” का था। उन्होंने दलील दी कि मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में उन पर लगाए गए कोई भी आपराधिक आरोप आकर्षित नहीं होते हैं और इसलिए उनके खिलाफ आपराधिक कार्यवाही नहीं की जानी चाहिए।
न्यायालय का विश्लेषण और टिप्पणियां
हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ताओं, शिकायतकर्ता (दूसरे प्रतिवादी) और लोक अभियोजक के वकीलों को सुनने के बाद, 10.08.2017 को पहले याचिकाकर्ता और शिकायतकर्ता के बीच निष्पादित साझेदारी विलेख (partnership deed) (अनुलग्नक-III) का अवलोकन किया।
न्यायालय ने पाया कि विलेख (deed) में स्पष्ट था कि शिकायतकर्ता की भूमिका “केवल एक फाइनेंसर” की थी और पहले याचिकाकर्ता की भूमिका “व्यावसायिक संचालन को अंजाम देने” की थी। विलेख में 1,50,000/- रुपये के पारिश्रमिक का प्रावधान भी था और यह कहा गया था कि पहले याचिकाकर्ता की भूमि को “गिरवी (pledged) रखा गया था ताकि शिकायतकर्ता किसी भी अवैतनिक बकाया की वसूली कर सके।”
न्यायमूर्ति गिरीश ने टिप्पणी की कि यद्यपि यह समझौता और व्यापारिक लेन-देन “दीवानी प्रकृति के संविदात्मक दायित्वों (contractual obligations) का चरित्र” रखते हैं, “लेकिन यहां स्थिति अलग है।”
न्यायालय ने इस तथ्य को उजागर किया कि पहले याचिकाकर्ता द्वारा सुरक्षा के तौर पर दी गई संपत्ति “केएसएफई के पास भारग्रस्त पाई गई… जिससे शिकायतकर्ता के लिए अवैतनिक बकाया की वसूली के लिए उक्त संपत्ति के खिलाफ कार्यवाही करना असंभव हो गया।”
इस पहलू को, लाभ का हिस्सा प्रदान करने में विफलता और 20,00,000/- रुपये के चेक प्राप्त करने के बाद धातु की आपूर्ति करने में विफलता के साथ “जोड़कर” देखने पर, यह लेन-देन “संदिग्ध प्रकृति का” बन गया।
पहले याचिकाकर्ता के अपराध-दायित्व का विश्लेषण करते हुए, न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की: “यह ध्यान रखना उचित है कि पहले याचिकाकर्ता का आचरण, अपनी उस भू-संपत्ति को सुरक्षा के रूप में पेश करना जो पहले से ही देनदारी और भार के अधीन थी, और उक्त देनदारी का खुलासा न करना, यह स्वयं प्रकट करता है कि पहले याचिकाकर्ता का इरादा शुरू से ही दूसरे प्रतिवादी (शिकायतकर्ता) को धोखा देने का था।”
न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि पहले याचिकाकर्ता ने “शिकायतकर्ता से प्राप्त भारी राशि का बेईमानी से दुरुपयोग किया” और आईपीसी की धारा 420 और 406 के तहत अपराध “पहले याचिकाकर्ता के खिलाफ स्पष्ट रूप से बनते हैं।”
हालांकि, न्यायालय ने दूसरे याचिकाकर्ता (जैसन थॉमस) के खिलाफ कोई मामला नहीं पाया। फैसले में कहा गया, “इस तथ्य के अलावा कि दूसरा याचिकाकर्ता अनुलग्नक-III साझेदारी समझौते में एक गवाह के रूप में हस्ताक्षरकर्ता है, रिकॉर्ड पर ऐसा कुछ भी नहीं है जो धोखाधड़ी और आपराधिक विश्वासघात के कथित कृत्यों में उसकी संलिप्तता (involvement) को दर्शाता हो।”
न्यायालय ने आगे कहा: “यह कहना संभव नहीं है कि दूसरे याचिकाकर्ता द्वारा एक गवाह के रूप में साझेदारी समझौते पर हस्ताक्षर करने का कार्य इस मामले में कथित अपराधों में उसकी मिलीभगत (complicity) को प्रकट करेगा।” न्यायालय ने दूसरे याचिकाकर्ता के खिलाफ शिकायतकर्ता के “महज बयानों” को आपराधिक दायित्व तय करने के लिए अपर्याप्त माना।
अंतिम निर्णय
हाईकोर्ट ने याचिका को आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया। दूसरे याचिकाकर्ता (जैसन थॉमस) के खिलाफ सी.सी संख्या 811/2019 में लंबित कार्यवाही को रद्द कर दिया गया।
पहले याचिकाकर्ता (बिज्जू बालकृष्णन) की कार्यवाही को रद्द करने की प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया गया। न्यायालय ने विद्वान मजिस्ट्रेट को “पहले याचिकाकर्ता/पहले आरोपी के खिलाफ मामले को आगे बढ़ाने” का निर्देश दिया।




