कर्नाटक हाईकोर्ट ने बुधवार को राज्य सरकार के अधिकारियों को ट्रांसजेंडर व्यक्तियों की पहचान के लिए चल रहे ‘जेंडर माइनॉरिटी सर्वे’ के दौरान किसी भी तरह के “स्ट्रिप एंड सर्च” (कपड़े उतरवाकर तलाशी) के इस्तेमाल से रोक दिया। अदालत ने कहा कि इस तरह की प्रक्रिया को अनुमति नहीं दी जा सकती जब तक कि याचिका पर अंतिम सुनवाई न हो जाए।
मुख्य न्यायाधीश विभु बाखरु और न्यायमूर्ति सी. एम. पूनाचा की खंडपीठ ने यह भी निर्देश दिया कि 15 सितंबर से अब तक सर्वे के दौरान एकत्र की गई सभी जानकारी गोपनीय रखी जाए और किसी भी तीसरे पक्ष को इसका खुलासा न किया जाए।
अदालत अनीता ह्यूमेनिटेरियन फाउंडेशन द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई कर रही थी। याचिका में सरकार द्वारा जारी अधिसूचनाओं को रद्द करने की मांग की गई है, जिनके तहत यह सर्वे किया जा रहा है।

याचिकाकर्ता का कहना है कि यह सर्वे ट्रांसजेंडर पर्सन्स (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स) एक्ट, 2019 और संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन है।
याचिकाकर्ता की ओर से पेश वकील ने आरोप लगाया कि सर्वे के दौरान ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को अस्पतालों में ऐसे लोगों द्वारा स्ट्रिप एंड सर्च कराया जा रहा है जिनकी लैंगिक पहचान उनसे भिन्न है। यह न केवल अपमानजनक है बल्कि मानसिक आघात भी पहुंचाता है। उन्होंने यह भी बताया कि ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के पास पहले से ही सरकार द्वारा जारी पहचान पत्र हैं, जिससे दोबारा सत्यापन की आवश्यकता नहीं है।
राज्य सरकार को 5 दिसंबर तक अपना जवाब दाखिल करने का निर्देश देते हुए अदालत ने निम्नलिखित अंतरिम आदेश जारी किए:
“इस बीच, कर्नाटक सरकार और सर्वे करने वाले अधिकारियों को ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को यह स्पष्ट रूप से बताना होगा कि सर्वे में भाग लेना स्वैच्छिक है,” खंडपीठ ने कहा।
“हम उत्तरदाताओं को अगली सुनवाई तक किसी भी प्रकार के स्ट्रिप एंड सर्च द्वारा पहचान करने से रोकते हैं। सर्वे के दौरान एकत्र की गई जानकारी को सख्ती से गोपनीय रखा जाएगा और उसका प्रसार नहीं किया जाएगा।”
इसके अलावा अदालत ने सामाजिक कल्याण विभाग को तीन दिनों के भीतर एक शपथपत्र दाखिल करने का निर्देश दिया है, जिसमें बताया जाए कि सर्वे से प्राप्त डाटा की गोपनीयता सुनिश्चित करने के लिए क्या कदम उठाए जाएंगे।
याचिका में मांग की गई है कि ट्रांसजेंडर और जेंडर-डाइवर्स व्यक्तियों को जबरन सत्यापन या अपमानजनक प्रक्रिया से गुजरने पर मुआवजा और पुनर्वास कोष बनाया जाए। इसके साथ ही राज्य सरकार से सार्वजनिक माफी और उन अधिकारियों की जवाबदेही तय करने की भी मांग की गई है जिन्होंने यह “गैरकानूनी, दखलअंदाज और असंवैधानिक” प्रक्रिया तैयार और लागू की।
याचिकाकर्ता ने यह भी आग्रह किया है कि भविष्य में ट्रांसजेंडर समुदाय से जुड़ी कोई भी नीति बनाते समय सरकार को ट्रांसजेंडर और LGBTQIA+ समुदाय के प्रतिनिधियों से परामर्श करना चाहिए। यह मांग सुप्रीम कोर्ट के ‘NALSA बनाम भारत संघ’ फैसले और ट्रांसजेंडर पर्सन्स (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स) एक्ट, 2019 की धारा 4 के अनुरूप की गई है।
मामले की अगली सुनवाई 5 दिसंबर 2025 को होगी, जिसमें राज्य सरकार को अपना जवाब पेश करना है।