छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में, नाबालिग लड़की के अपहरण और बार-बार बलात्कार के दोषी शनि कुमार चौहान की अपील को खारिज कर दिया है और निचली अदालत द्वारा दी गई सजा को बरकरार रखा है। चीफ जस्टिस रमेश सिन्हा और जस्टिस बिभु दत्ता गुरु की खंडपीठ ने कहा कि पीड़िता की गवाही पूरी तरह से सुसंगत और विश्वसनीय है, जो उसे एक “स्टरलिंग गवाह” (Sterling Witness) की श्रेणी में रखती है। साथ ही, मेडिकल और फोरेंसिक सबूतों ने अभियोजन पक्ष के मामले की पुष्टि की है, इसलिए इसे संदेह से परे साबित माना जाता है।
आपको बता दें कि विशेष न्यायाधीश (पॉक्सो अधिनियम, 2012), सारंगढ़, जिला महासमुंद ने 13 मई, 2022 को appellant को दोषी ठहराते हुए विभिन्न धाराओं के तहत सजा सुनाई थी, जिसमें भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 376(3) और पॉक्सो अधिनियम की धारा 6 के तहत 20 साल के कठोर कारावास की सजा भी शामिल है।
क्या था पूरा मामला?

मामले की शुरुआत 10 दिसंबर, 2019 को पीड़िता के पिता द्वारा सारंगढ़ पुलिस स्टेशन में दर्ज कराई गई एक रिपोर्ट से हुई थी। उन्होंने बताया था कि उनकी लगभग 11 वर्षीय बेटी घर के सामने खेलते हुए दोपहर करीब 12 बजे लापता हो गई थी। इस रिपोर्ट के आधार पर, प्राथमिकी (एफआईआर) संख्या 379/2019 दर्ज की गई। जांच के दौरान, पुलिस ने पीड़िता को appellant शनि कुमार चौहान के कब्जे से बरामद किया।
ट्रायल कोर्ट ने चौहान को आईपीसी की धारा 363 (अपहरण), 366-ए (नाबालिग लड़की की खरीद-फरोख्त), 376(3) (सोलह वर्ष से कम उम्र की बच्ची से बलात्कार), और 376(2)(एन) (बार-बार बलात्कार) के साथ-साथ पॉक्सो अधिनियम की धारा 6 के तहत दोषी पाया था।
हाईकोर्ट में दोनों पक्षों की दलीलें
appellant की ओर से पेश वकील श्री अनीश तिवारी ने तर्क दिया कि पीड़िता के बयान में कई विरोधाभास और खामियां थीं, जिससे यह अविश्वसनीय हो जाता है। उन्होंने यह भी दलील दी कि अभियोजन पक्ष पीड़िता की उम्र को निश्चित रूप से साबित करने में विफल रहा, क्योंकि जन्म प्रमाण पत्र और स्कूल के दाखिल-खारिज रजिस्टर में जन्म की अलग-अलग तारीखें थीं। यह भी तर्क दिया गया कि जन्म प्रमाण पत्र जन्म के छह साल बाद जारी किया गया था, इसलिए जन्म और मृत्यु पंजीकरण अधिनियम, 1969 की धारा 13(3) के तहत यह मान्य नहीं है।
वहीं, राज्य की ओर से पेश हुए डिप्टी गवर्नमेंट एडवोकेट श्री एस.एस. बघेल ने अपील का विरोध करते हुए कहा कि अभियोजन पक्ष ने अपने मामले को संदेह से परे साबित किया है। उन्होंने जोर देकर कहा कि पीड़िता के जन्म प्रमाण पत्र सहित सभी दस्तावेजी सबूत यह साबित करने के लिए पर्याप्त थे कि घटना के समय वह नाबालिग थी।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष
हाईकोर्ट ने सबसे पहले पीड़िता की उम्र के सवाल पर विचार किया। पीठ ने पाया कि पीड़िता ने डॉक्टर को अपनी उम्र 11 साल बताई थी, यही उम्र एफआईआर में भी दर्ज थी, और जिरह के दौरान इस तथ्य को कोई चुनौती नहीं दी गई। अदालत ने उसके जन्म प्रमाण पत्र (Ex.P-26) और दाखिल-खारिज (Ex.P-10C) पर भी विचार किया।
अदालत ने यह स्वीकार किया कि जन्म प्रमाण पत्र जन्म के छह साल बाद जारी किया गया था, लेकिन यह भी कहा कि इसे “घटना की तारीख से बहुत पहले” प्राप्त किया गया था। पीठ ने कहा, “किसी जन्म प्रमाण पत्र की वैधता को केवल अधिनियम 1969 की धारा 13(3) का पालन न करने के आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता, खासकर पॉक्सो मामले में जहां पीड़िता की उम्र के अन्य पुख्ता सबूत मौजूद हों।” अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि “यह स्पष्ट रूप से स्थापित है कि घटना के समय वह 16 वर्ष से कम उम्र की थी और इसलिए, कानून के अनुसार नाबालिग थी।”
इसके बाद, अदालत ने अपराध के साक्ष्यों का मूल्यांकन किया। अदालत ने पीड़िता (PW-1) की गवाही का बारीकी से विश्लेषण किया, जिसने बताया था कि कैसे उसे एक चॉकलेट खाने के बाद चक्कर आया और वह बेहोश हो गई। जब उसे होश आया, तो वह बगोदर में एक ईंट-भट्ठे पर appellant के साथ थी। पीड़िता ने गवाही दी कि appellant ने उसे लगभग 15 दिनों तक बंदी बनाकर रखा, उससे जबरन काम करवाया, मारपीट की और बार-बार उसके साथ बलात्कार किया।
अदालत ने पाया कि पीड़िता के बयान सीआरपीसी की धारा 161 और 164 के तहत दर्ज बयानों के अनुरूप थे। उसकी गवाही को मेडिकल और फोरेंसिक सबूतों से और भी बल मिला। डॉक्टर चंद्र किरण (PW-11) ने अपनी गवाही में कहा कि पीड़िता के शरीर पर बाहरी चोट के कोई निशान नहीं थे, लेकिन उसकी हाइमन फटी हुई थी और गुप्तांग पर लालिमा और दर्द था, जो “जबरन यौन संबंध के संकेत” थे। इसके अलावा, एफएसएल रिपोर्ट (Ex.P-27) ने भी योनि स्लाइड पर “मानव वीर्य के धब्बे” पाए जाने की पुष्टि की।
सुप्रीम कोर्ट के राय संदीप उर्फ दीनू बनाम राज्य (एनसीटी दिल्ली) मामले का हवाला देते हुए, हाईकोर्ट ने “स्टरलिंग गवाह” की अवधारणा पर जोर दिया, जिसकी गवाही इतनी उच्च गुणवत्ता की होती है कि उसे बिना किसी हिचकिचाहट के स्वीकार किया जा सकता है। पीठ ने पाया कि इस मामले में पीड़िता उस कसौटी पर खरी उतरती है। फैसले में कहा गया, “इस मामले में, विशेष रूप से पीड़िता की गवाही से यह स्पष्ट है कि वह शुरू से अंत तक अपने रुख पर कायम रही है।”
अंतिम निर्णय
अपने विश्लेषण के अंत में, खंडपीठ ने माना कि अभियोजन पक्ष अपने मामले को सभी संदेहों से परे साबित करने में सफल रहा है। अदालत ने कहा, “पीड़िता के सुसंगत और विश्वसनीय बयान, जिसे मेडिकल और फोरेंसिक सबूतों का समर्थन प्राप्त है, को देखते हुए appellant द्वारा दायर की गई अपील में कोई दम नहीं है और इसलिए इसे खारिज किया जाता है।”
हाईकोर्ट ने निचली अदालत के दोषसिद्धि और सजा के फैसले को बरकरार रखते हुए अपील खारिज कर दी।