सुप्रीम कोर्ट ने 71 वर्षीय बुजुर्ग महिला को बड़ी राहत देते हुए उसकी गिरफ्तारी पर रोक लगा दी है। यह मामला उत्तर प्रदेश में 1971 के एक जमीन बिक्री विलेख से जुड़े कथित फर्जीवाड़े से संबंधित है। शीर्ष अदालत ने इलाहाबाद हाईकोर्ट की कार्यप्रणाली पर कड़ा रुख अपनाते हुए कहा कि निचली अदालत का आदेश “लापरवाह” और “गंभीर आत्ममंथन योग्य” है।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति उज्जल भुइयाँ और न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंह की पीठ ने कहा कि प्राथमिकी दर्ज करने का तरीका और पुलिस की भूमिका संदेह पैदा करती है। अदालत ने महिला उषा मिश्रा की गिरफ्तारी पर रोक लगाते हुए कहा कि उनके खिलाफ दर्ज मुकदमा न्याय की प्रक्रिया का दुरुपयोग प्रतीत होता है।
शीर्ष अदालत ने शिकायत दर्ज कराने वाले अधिवक्ता दादूराम शुक्ला के खिलाफ 10,000 रुपये के निजी मुचलके पर जमानती वारंट जारी किया और उन्हें अदालत में पेश होकर यह बताने का निर्देश दिया कि उनके खिलाफ उदाहरणात्मक लागत क्यों न लगाई जाए। अदालत ने लखनऊ पुलिस आयुक्त को वारंट तामील कराने का आदेश दिया और चेतावनी दी कि यदि शुक्ला पेश होने से कतराते हैं तो उनके खिलाफ गैर-जमानती वारंट जारी किया जाएगा।

सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस आदेश को गंभीरता से लिया जिसमें 27 मई 2025 को मिश्रा की अग्रिम जमानत रद्द कर दी गई थी। अदालत ने कहा,
“यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक 71 वर्षीय महिला की अग्रिम जमानत याचिका को अव्यावहारिक ढंग से खारिज कर दिया, जबकि वह न तो विक्रेता हैं, न खरीदार, न गवाह और न ही लाभार्थी।”
अदालत ने संबंधित थाना प्रभारी को निर्देश दिया है कि वह एफआईआर दर्ज करने से जुड़े सभी मूल अभिलेख प्रस्तुत करें और यह स्पष्ट करें कि क्यों न इन कार्यवाहियों को “न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग” मानते हुए रद्द कर दिया जाए।
एफआईआर में आरोप लगाया गया है कि मिश्रा 1971 के फर्जी बिक्री विलेख से जुड़ी हैं और वह मुख्य आरोपी बृजेश कुमार अवस्थी की सास हैं, जिसे कई फर्जी दस्तावेज तैयार करने वाले गिरोह का सदस्य बताया गया है।
अब यह मामला 8 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट में फिर से सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया गया है।