सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड हाईकोर्ट के उस फैसले को रद्द कर दिया है, जिसमें चार व्यक्तियों को बरी कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह निर्णय “अस्पष्ट और बिना किसी तर्क के” था। उत्तराखंड राज्य बनाम अनिल और अन्य के मामले में, न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने आपराधिक अपीलों को नए सिरे से सुनवाई के लिए हाईकोर्ट को वापस भेज दिया। पीठ ने इस बात पर जोर दिया कि दोषसिद्धि को पलटने से पहले सबूतों का स्वतंत्र रूप से मूल्यांकन करना एक अपीलीय अदालत का कर्तव्य है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला एक सत्र न्यायालय के फैसले से शुरू हुआ, जिसने एस.टी. संख्या 50/2003 में चार अभियुक्तों – अनिल, इमरान, वासिफ और पप्पू – को दोषी ठहराया और सजा सुनाई थी। अनिल और इमरान को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई, जबकि वासिफ और पप्पू को एक साल की कैद और जुर्माना की सजा मिली।
चारों दोषियों ने अपनी सजा को उत्तराखंड हाईकोर्ट के समक्ष अलग-अलग अपीलों (आपराधिक अपील संख्या 95/2009, 97/2009, और 98/2009) में चुनौती दी। 2 मई 2013 को एक सामान्य फैसले में, हाईकोर्ट की एक खंडपीठ ने अपीलों को स्वीकार करते हुए निचली अदालत के फैसले को रद्द कर दिया। इसके परिणामस्वरूप, अनिल और इमरान को जेल से रिहा करने का आदेश दिया गया, और जमानत पर बाहर चल रहे वासिम और पप्पू को उनके जमानत बांड से मुक्त कर दिया गया।

इसके बाद उत्तराखंड राज्य ने हाईकोर्ट के बरी करने के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की।
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दलीलें
अपीलकर्ता, उत्तराखंड राज्य, की ओर से पेश वकील ने दो-तरफा दलील दी। सबसे पहले, यह तर्क दिया गया कि हाईकोर्ट का फैसला “एक अस्पष्ट तरीके से” दिया गया था और इसने तथ्यों या सबूतों को व्यवस्थित किए बिना सत्र न्यायालय की सुविचारित दोषसिद्धि को पलट दिया। राज्य ने तर्क दिया कि हाईकोर्ट के फैसले में दिए गए निष्कर्ष “तथ्यों और रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों की चर्चा के अभाव में बिना किसी आधार के” थे। केवल इसी आधार पर, राज्य ने अनुरोध किया कि मामले को नए सिरे से विचार के लिए वापस भेजा जाए।
दूसरा, अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि मामले के गुण-दोष के आधार पर भी, हाईकोर्ट का अभियुक्तों को बरी करना उचित नहीं था और सत्र न्यायालय के फैसले को बहाल किया जाना चाहिए।
इसके विपरीत, बरी हुए प्रतिवादियों का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ वकील और अन्य वकीलों ने राज्य की दलीलों का जोरदार विरोध किया। उन्होंने तर्क दिया कि यद्यपि हाईकोर्ट का फैसला “संक्षिप्त” हो सकता है, लेकिन यह “तत्वहीन नहीं” था। उन्होंने कहा कि “सिर्फ इसलिए कि फैसला छोटा है और लंबा नहीं है, इसे गलत नहीं माना जा सकता क्योंकि तर्क स्पष्ट है और निष्कर्षों का एक आधार है।” प्रतिवादियों ने अपनी रिहाई की पुष्टि के लिए सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मामले पर गुण-दोष के आधार पर बहस करने की तत्परता व्यक्त की।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और फैसला
सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने दलीलों पर विचार करने के बाद, अपीलकर्ता की पहली दलील से सहमति व्यक्त की, जो हाईकोर्ट द्वारा अपीलों के निपटारे के तरीके से संबंधित थी। न्यायालय ने कहा कि जब कोई हाईकोर्ट दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 374(2) के तहत दोषसिद्धि के खिलाफ पहली अपील सुनता है, तो वह एक ऐसी अपीलीय अधिकारिता का प्रयोग करता है जिसमें स्वतंत्र विवेक का प्रयोग आवश्यक है।
फैसले में कहा गया, “एक अपीलीय अदालत का यह कर्तव्य है कि वह प्रस्तुत किए गए सबूतों का स्वतंत्र रूप से मूल्यांकन करे और यह निर्धारित करे कि क्या ऐसे सबूत विश्वसनीय हैं। यदि सबूत विश्वसनीय माने भी जाते हैं, तो भी हाईकोर्ट को यह आंकलन करना चाहिए कि क्या अभियोजन पक्ष ने अपना मामला संदेह से परे साबित किया है।”
न्यायालय ने पहली अपीलीय अदालत की भूमिका पर जोर देते हुए कहा कि यह “एक ट्रायल कोर्ट के समान है और इसे सभी उचित संदेहों से परे यह विश्वास होना चाहिए कि अभियोजन का मामला काफी हद तक सच है और अभियुक्त का दोष निर्णायक रूप से साबित हो चुका है।”
इस संबंध में हाईकोर्ट के फैसले को अपर्याप्त पाते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि यह उचित विवेक के प्रयोग को दर्शाने में विफल रहा। फैसले में कहा गया, “हम पाते हैं कि हाईकोर्ट को रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों पर विचार करना चाहिए था और उसके बाद यह पता लगाना चाहिए था कि क्या सत्र न्यायालय दोषसिद्धि और सजा का फैसला सुनाने में न्यायोचित था। चूंकि यह सब फैसले में अनुपस्थित था, इसलिए हम केवल इसी कारण से इसे रद्द करते हैं।”
सुप्रीम कोर्ट ने इस बात की ओर भी इशारा किया कि “हाईकोर्ट ने उस केस नंबर और ट्रायल कोर्ट का भी उल्लेख नहीं किया है जिससे अपीलें उत्पन्न हुई थीं।”
अंतिम निर्णय और निर्देश
सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड राज्य द्वारा दायर अपीलों को इस सीमित आधार पर स्वीकार कर लिया कि हाईकोर्ट का फैसला अस्पष्ट था और उसमें तर्क का अभाव था। न्यायालय ने स्पष्ट किया, “हमने मामले के गुण-दोष पर कोई टिप्पणी नहीं की है,” और सभी दलीलों को हाईकोर्ट के समक्ष रखने के लिए खुला छोड़ दिया।
2 मई 2013 के फैसले को रद्द कर दिया गया, और आपराधिक अपीलों को नए सिरे से सुनवाई के लिए उत्तराखंड हाईकोर्ट की फाइल में बहाल कर दिया गया। हाईकोर्ट से अनुरोध किया गया है कि वह अपीलों का “यथासंभव शीघ्र” निपटारा करे, यह देखते हुए कि घटना 2002 की है।
इसके अलावा, न्यायालय ने निर्देश दिया कि अभियुक्त अनिल और इमरान जमानत पर रहेंगे, लेकिन उन्हें संबंधित प्रधान जिला एवं सत्र न्यायाधीश, हल्द्वानी के समक्ष पेश होकर 15,000 रुपये के नए बांड भरने होंगे, जिसमें प्रत्येक के लिए दो जमानतदार होंगे।