कर्नाटक हाईकोर्ट ने गुरुवार को राज्य सरकार द्वारा चलाए जा रहे सामाजिक-आर्थिक और शैक्षिक सर्वे (जिसे आमतौर पर जाति सर्वे कहा जा रहा है) को रोकने से इनकार कर दिया। हालांकि, अदालत ने यह साफ कर दिया कि सर्वे के दौरान जुटाई गई जानकारी पूरी तरह गोपनीय रखी जाएगी और प्रतिभागियों की भागीदारी स्वैच्छिक होगी।
मुख्य न्यायाधीश विवु बखरु और न्यायमूर्ति सी. एम. जोशी की खंडपीठ ने कहा, “हम चल रहे सर्वे में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं पाते। हालांकि, यह स्पष्ट किया जाता है कि जुटाए गए डाटा को किसी व्यक्ति के साथ साझा नहीं किया जाएगा। आयोग यह सुनिश्चित करे कि डाटा सुरक्षित और गोपनीय रहे। हम आगे निर्देश देते हैं कि आयोग सार्वजनिक अधिसूचना जारी कर स्पष्ट करे कि इस सर्वे में भागीदारी स्वैच्छिक है और किसी भी व्यक्ति को जानकारी देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।”
अदालत ने कहा कि यह स्पष्टीकरण सर्वे प्रक्रिया की शुरुआत में ही दिया जाना चाहिए। सर्वे करने वाले कार्मिक किसी भी व्यक्ति को भाग लेने के लिए दबाव नहीं डाल सकते। आयोग को एक कार्य दिवस के भीतर हलफनामा दाखिल कर यह बताने का निर्देश दिया गया है कि डाटा को सुरक्षित रखने और संग्रहित करने के लिए कौन-से कदम उठाए गए हैं।

सप्ताह की शुरुआत में राज्य सरकार ने इस सर्वे का बचाव किया था। वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी, जो राज्य की ओर से पेश हुए, ने दलील दी कि केंद्र सरकार विरोधाभासी रुख अपना रही है। उन्होंने कहा कि केंद्र ने ही 2021 में 105वां संविधान संशोधन पारित किया था, जिससे राज्यों को पिछड़े वर्गों की पहचान और सूची तैयार करने की शक्ति फिर से दी गई।
“यह संशोधन लाने के बाद अब केंद्र सरकार केवल इसलिए याचिकाकर्ताओं का समर्थन कर रही है क्योंकि राज्य में अलग राजनीतिक दल सत्ता में है,” सिंघवी ने तर्क दिया और आरोप लगाया कि आलोचना राजनीतिक रूप से प्रेरित है।
हाईकोर्ट के निर्देश ऐसे समय आए हैं जब जाति आधारित सर्वे को लेकर राजनीतिक और सामाजिक बहस तेज है। समर्थक इसे समान कल्याण योजनाओं के लिए अहम मान रहे हैं, जबकि आलोचकों ने इसके उद्देश्य और तरीके पर सवाल उठाए हैं।