राजस्थान हाईकोर्ट ने 23 सितंबर, 2025 को एक महत्वपूर्ण फैसले में उस आपराधिक याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA), 2019 के संबंध में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, तत्कालीन कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद और अन्य के खिलाफ FIR दर्ज करने के निर्देश देने की मांग की गई थी। न्यायमूर्ति सुदेश बंसल की पीठ ने याचिका को “बेतुकी, तुच्छ और परेशान करने वाली” तथा “कानूनी प्रक्रिया का सरासर दुरुपयोग” करार देते हुए याचिकाकर्ता अधिवक्ता पूरन चंदर सेन पर ₹50,000 का जुर्माना लगाया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला अधिवक्ता पूरन चंदर सेन द्वारा 12 अक्टूबर, 2020 को पुलिस थाना, गोविंदगढ़, जिला अलवर के थाना प्रभारी (SHO) के समक्ष दायर एक लिखित आवेदन से शुरू हुआ था। अपने आवेदन में सेन ने प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, कानून मंत्री और विभिन्न मीडिया चैनलों एवं सामाजिक संगठनों के खिलाफ FIR दर्ज करने की मांग की थी।
याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया था कि नागरिकता संशोधन विधेयक, 2019 “मुसलमानों और धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के लोगों पर अत्याचार करने के इरादे से” पेश किया गया था। उन्होंने दावा किया कि विधेयक के कानून बनने के बाद, देश भर में विरोध प्रदर्शन हुए, जिससे मौतें, चोटें और गिरफ्तारियां हुईं, और इस प्रकार “घृणा, दुश्मनी और सार्वजनिक अव्यवस्था का माहौल” बना। उन्होंने भारतीय दंड संहिता की धारा 302 (हत्या), 323 (जानबूझकर चोट पहुंचाना), 153-ए (शत्रुता को बढ़ावा देना) और अन्य प्रावधानों के तहत FIR दर्ज करने का अनुरोध किया था।

जब पुलिस ने FIR दर्ज नहीं की, तो सेन ने दंड प्रक्रिया संहिता (Cr.P.C.) की धारा 156(3) के तहत निर्देश देने की मांग करते हुए न्यायिक मजिस्ट्रेट, लक्ष्मणगढ़ का दरवाजा खटखटाया। मजिस्ट्रेट ने 21 अक्टूबर, 2020 को क्षेत्राधिकार की कमी के आधार पर शिकायत खारिज कर दी। इसके बाद, एक आपराधिक पुनरीक्षण याचिका भी 20 फरवरी, 2025 को अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, लक्ष्मणगढ़ द्वारा खारिज कर दी गई। इन आदेशों से व्यथित होकर, याचिकाकर्ता ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 की धारा 528 के तहत राजस्थान हाईकोर्ट का रुख किया।
पक्षों की दलीलें
याचिकाकर्ता, जो व्यक्तिगत रूप से पेश हुए, ने मुख्य रूप से ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार और अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया। उन्होंने तर्क दिया कि उनके आवेदन में संज्ञेय अपराधों का खुलासा होता है, जिससे पुलिस के लिए FIR दर्ज करना अनिवार्य हो जाता है।
राज्य और केंद्र सरकारों ने इस याचिका का पुरजोर विरोध किया। राजस्थान के महाधिवक्ता ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता के आवेदन से किसी भी संज्ञेय अपराध का पता नहीं चलता है और इसके अलावा, गोविंदगढ़ पुलिस स्टेशन का इस मामले में कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है।
भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता और अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल आर.डी. रस्तोगी ने अदालत की सहायता करते हुए तर्क दिया कि याचिका “प्रथम दृष्टया बेतुकी, तुच्छ और परेशान करने वाली” थी और इसे “सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए” दायर किया गया था। उन्होंने कहा कि क्षेत्राधिकार का कोई भी हिस्सा गोविंदगढ़ के इलाके में नहीं आता, क्योंकि विधायी प्रक्रिया नई दिल्ली में हुई थी। अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि मंत्रियों को एक संवैधानिक विधायी प्रक्रिया के लिए व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता और आरोप “मनमाने, निराधार और दुर्भावनापूर्ण” हैं।
न्यायालय का विश्लेषण और निष्कर्ष
न्यायमूर्ति सुदेश बंसल ने याचिकाकर्ता के आवेदन और निचली अदालतों के आदेशों की जांच के बाद याचिका को पूरी तरह से निराधार पाया।
क्षेत्राधिकार और संज्ञेय अपराध पर: अदालत ने पाया कि याचिकाकर्ता के आवेदन में “गोविंदगढ़ के क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र के भीतर किसी भी घटना… या किसी व्यक्ति की हत्या या चोट पहुंचाने की किसी भी घटना का कोई उल्लेख नहीं है।” अदालत ने माना कि आरोप सामान्य और अस्पष्ट थे, और “ऐसी घटनाओं को संशोधन विधेयक 2019 को पेश करने और पारित करने से जोड़ने का कोई आधार नहीं था।”
अदालत ने कहा, “याचिकाकर्ता द्वारा प्रतिवादियों के खिलाफ लगाए गए आरोप कुछ भी नहीं, बल्कि उनके पक्षपाती और दूषित दिमाग की अपनी गलत धारणा और रचनात्मक विचार हैं। कोई भी विवेकशील व्यक्ति इस तरह के मनमाने, बेतुके और फर्जी आरोप नहीं लगा सकता और फिर उस पर जांच के लिए FIR दर्ज करने की प्रार्थना नहीं कर सकता।”
याचिकाकर्ता के आचरण पर: अदालत ने एक वकील के रूप में गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार के लिए याचिकाकर्ता की कड़ी निंदा की। फैसले में कहा गया है, “याचिकाकर्ता द्वारा प्रतिवादियों के खिलाफ इस तरह के व्यापक आरोप लगाना उनकी छवि और प्रतिष्ठा को धूमिल करने का एक प्रयास है और साथ ही सांप्रदायिक घृणा फैलाने का भी एक प्रयास है, और एक वकील के कहने पर ऐसी कार्रवाई की सराहना नहीं की जा सकती, बल्कि इसकी निंदा की जानी चाहिए।”
तुच्छ मुकदमेबाजी पर: अदालत ने न्यायिक प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के अपने कर्तव्य का उल्लेख करते हुए निष्कर्ष निकाला। “न्याय तक आसान पहुंच को गलत और तुच्छ याचिका दायर करने के लाइसेंस के रूप में इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं दी जा सकती,” अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि भविष्य में इस तरह की प्रथा को रोकने के लिए ऐसी याचिकाओं को शुरुआत में ही जुर्माने के साथ खारिज करना उसकी जिम्मेदारी है।
अंतिम निर्णय
हाईकोर्ट ने याचिका खारिज करते हुए याचिकाकर्ता पर ₹50,000 का जुर्माना लगाया, जिसे चार सप्ताह के भीतर ‘लिटिगेंट्स वेलफेयर फंड’ में जमा करने का निर्देश दिया गया है। अदालत ने प्रतिवादियों को यह भी स्वतंत्रता दी कि यदि वे चाहें तो कानून के तहत उपलब्ध दीवानी या आपराधिक उपाय अपनाकर याचिकाकर्ता पर मुकदमा चला सकते हैं।