हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि चेक अनादरण के मामले में, यदि आरोपी दंड प्रक्रिया संहिता (Cr.P.C.) की धारा 313 के तहत अपने बयान में ऋण लेने और बकाया राशि को स्वीकार करता है, तो इसे कानूनी रूप से लागू करने योग्य ऋण के अस्तित्व को स्थापित करने के लिए पर्याप्त सबूत माना जाएगा। न्यायमूर्ति राकेश कैंथला की पीठ ने यह स्पष्ट किया कि ऐसे मामलों में शिकायतकर्ता को खाते के विवरण जैसे अतिरिक्त दस्तावेजी सबूत पेश करने की आवश्यकता नहीं है।
यह निर्णय कृष्णा देवी बनाम हिमाचल प्रदेश ग्रामीण बैंक व अन्य के मामले में आया, जिसमें याचिकाकर्ता ने परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI Act) की धारा 138 के तहत निचली अदालत और अपीलीय अदालत द्वारा दी गई सजा के निष्कर्षों को चुनौती दी थी। हाईकोर्ट ने आपराधिक पुनरीक्षण याचिका को खारिज करते हुए दोषसिद्धि को बरकरार रखा।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला हिमाचल प्रदेश ग्रामीण बैंक द्वारा नाहन में न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी के समक्ष दायर एक शिकायत से शुरू हुआ। बैंक ने दलील दी कि उसने आरोपी कृष्णा देवी को ₹2,50,000 का व्यक्तिगत ऋण दिया था। जब वह किश्तों का भुगतान करने में विफल रहीं, तो 20 अगस्त, 2019 तक उन पर ₹1,58,285 की राशि बकाया हो गई। इस देनदारी को चुकाने के लिए, आरोपी ने ₹1,50,000 का एक चेक जारी किया।

बैंक द्वारा चेक प्रस्तुत करने पर, वह ‘अपर्याप्त धनराशि’ की टिप्पणी के साथ अनादरित हो गया। इसके बाद, बैंक ने आरोपी को एक कानूनी नोटिस भेजकर 15 दिनों के भीतर राशि चुकाने की मांग की। जब आरोपी ने भुगतान नहीं किया, तो बैंक ने एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत आपराधिक कार्यवाही शुरू की।
ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को दोषी ठहराते हुए एक वर्ष के साधारण कारावास की सजा सुनाई और ₹3 लाख का मुआवजा देने का निर्देश दिया, साथ ही मुआवजा न देने पर दो महीने के साधारण कारावास की डिफॉल्ट सजा भी सुनाई। अपील में, सत्र न्यायाधीश, सिरमौर ने दोषसिद्धि को बरकरार रखा लेकिन सजा को संशोधित कर दिया। अपीलीय अदालत ने आदेश दिया कि यदि आरोपी दो महीने के भीतर मुआवजे की राशि जमा करती है, तो उसे केवल अदालत के उठने तक कारावास की सजा काटनी होगी, अन्यथा, उसे दो महीने की डिफॉल्ट सजा भुगतनी होगी। इसी फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी गई थी।
पक्षकारों की दलीलें
हाईकोर्ट के समक्ष, याचिकाकर्ता कृष्णा देवी के वकील ने तर्क दिया कि निचली अदालतों ने निष्कर्ष निकालने में गलती की है। यह दलील दी गई कि शिकायतकर्ता बैंक खाते का विवरण या बही-खाता पेश नहीं कर सका, जिससे यह साबित हो सके कि दावा की गई सीमा तक कोई कानूनी देनदारी मौजूद थी। याचिकाकर्ता ने यह भी कहा कि दिया गया मुआवजा कठोर था और भुगतान के लिए दी गई दो महीने की अवधि बहुत कम थी।
इसके जवाब में, बैंक के वकील ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता ने Cr.P.C. की धारा 313 के तहत दर्ज अपने बयान में स्पष्ट रूप से ऋण लेने और बकाया देनदारी को स्वीकार किया था। इसलिए, यह प्रस्तुत किया गया कि “स्वीकृत तथ्यों को साबित करने की आवश्यकता नहीं है।”
हाईकोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष
न्यायमूर्ति राकेश कैंथला ने रिकॉर्ड की जांच और दलीलों को सुनने के बाद पुनरीक्षण याचिका को खारिज कर दिया।
ऋण की स्वीकृति पर: अदालत ने याचिकाकर्ता की स्वीकृति को मामले का आधार माना। अदालत ने कहा, “आरोपी ने Cr.P.C. की धारा 313 के तहत दर्ज अपने बयान में स्वीकार किया कि शिकायतकर्ता बैंक ने उसके पक्ष में ऋण दिया था और ऋण खाते में ₹1,58,285/- की राशि बकाया थी। इसलिए, आरोपी ने कभी भी अपनी देनदारी पर विवाद नहीं किया… अतः, आरोपी की ओर से दी गई यह दलील कि देनदारी का अस्तित्व स्थापित नहीं हुआ, स्वीकार्य नहीं है।”
एनआई एक्ट के तहत उपधारणा पर: अदालत ने माना कि चूंकि आरोपी ने चेक पर अपने हस्ताक्षर स्वीकार किए थे, इसलिए निचली अदालतों द्वारा एनआई एक्ट की धारा 118(ए) और 139 के तहत वैधानिक उपधारणा करना सही था कि चेक एक ऋण के निर्वहन के लिए प्रतिफल के बदले जारी किया गया था।
‘सुरक्षा चेक’ के बचाव पर: याचिकाकर्ता के इस दावे को भी खारिज कर दिया गया कि चेक एक खाली सुरक्षा चेक के रूप में जारी किया गया था। अदालत ने कहा कि चूंकि ₹1,58,285 की देनदारी स्वीकार कर ली गई थी, इसलिए ₹1,50,000 का चेक एक मौजूदा देनदारी के लिए था। अदालत ने यह भी कहा कि आरोपी इस बचाव के समर्थन में कोई सबूत पेश करने में विफल रही, और धारा 313 के तहत दिया गया एक बयान उपधारणा को खंडित करने के लिए अपर्याप्त है।
मुआवजे का भुगतान न करने पर डिफॉल्ट सज़ा पर: हाईकोर्ट ने अपीलीय अदालत द्वारा सजा में किए गए संशोधन पर भी विचार किया। अदालत ने स्पष्ट किया कि हालांकि आदेश “अच्छी तरह से शब्दों में नहीं” था, यह एक सशर्त आदेश नहीं था, बल्कि मूल सजा में कमी थी। अदालत ने मुआवजे के भुगतान में चूक के लिए सजा देने की वैधता की पुष्टि की।
अंतिम निर्णय
निचली अदालतों के फैसलों में कोई कानूनी खामी न पाते हुए, हाईकोर्ट ने पुनरीक्षण याचिका खारिज कर दी। हालांकि, यह स्वीकार करते हुए कि मुआवजे को जमा करने के लिए अपीलीय अदालत द्वारा दिया गया समय पुनरीक्षण के दौरान समाप्त हो गया था, अदालत ने याचिकाकर्ता को एक अंतिम अवसर प्रदान किया।
अदालत ने याचिकाकर्ता को “आज से एक महीने की अवधि के भीतर मुआवजे की राशि जमा करने का निर्देश दिया, जिसमें विफल रहने पर उसे निचली अदालत द्वारा दी गई और अपीलीय अदालत द्वारा पुष्टि की गई दो महीने की कैद की सजा भुगतनी होगी।”