सुप्रीम कोर्ट में बुधवार को राज्यपालों की भूमिका को लेकर महत्वपूर्ण सुनवाई हुई। केंद्र ने दावा किया कि 1970 से अब तक राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित 17,150 विधेयकों में से 90 प्रतिशत को एक माह के भीतर राज्यपाल की मंजूरी मिल गई और मात्र 20 मामलों में ही अनुमोदन रोका गया।
भारत के मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने केंद्र द्वारा आंकड़े पेश करने पर आपत्ति जताई। पीठ में न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति ए.एस. चंदुरकर भी शामिल थे।
पीठ ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से कहा, “जब विपक्षी पक्ष को इस तरह के आंकड़े पेश करने की अनुमति नहीं दी गई थी तो आपके लिए भी यह उचित नहीं है।” वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंघवी ने भी इसका विरोध किया और कहा कि उन्हें भी ऐसे ही डाटा रखने से रोका गया था।

केंद्र की ओर से तर्क रखते हुए मेहता ने कहा कि विपक्षी राज्यों का राज्यपाल को “पोस्टमैन” बताना गलत है। उन्होंने कहा, “राज्यपाल केवल एक पोस्टमैन नहीं हैं, जिनके पास सिर्फ कार पर बत्ती और बड़ा घर है। यह व्याख्या संविधान की मूल भावना के विपरीत है।”
मेहता ने कहा कि राज्यपाल को “रबर स्टांप” तक सीमित करना संविधान का अपमान है। उन्होंने जोड़ा, “राज्यपाल न तो सरकार के कर्मचारी हैं, न ही किसी दल के एजेंट। उनका दायित्व निष्पक्ष बने रहना है, खासकर तब जब राज्य और केंद्र के हित टकरा रहे हों।”
उन्होंने अनुच्छेद 200 का हवाला देते हुए कहा कि राज्यपाल के पास विकल्प है – विधेयक को मंजूरी देना, रोकना, राष्ट्रपति के पास भेजना या वापस विधानसभा को लौटाना। उन्होंने कहा कि “withhold” यानी रोकने का विकल्प अस्थायी नहीं है, इसे गंभीरता से पढ़ा जाना चाहिए।
पीठ ने माना कि उसे दो चरम स्थितियों के बीच संतुलन बनाना है – एक विचार जिसमें राज्यपाल को पूरी तरह मंत्रिपरिषद की सलाह का पालन करना है, और दूसरा जिसमें उन्हें व्यापक विवेकाधिकार प्राप्त है।
न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा ने सवाल उठाया कि संघीय ढांचे में संवाद आवश्यक है, ऐसे में क्या यह मान्य होगा कि राज्यपाल अनिश्चितकाल तक अनुमोदन रोक सकते हैं? उन्होंने कहा, “विधानसभा राज्यपाल के दृष्टिकोण पर विचार करती है, जो कभी-कभी केंद्र का परिप्रेक्ष्य भी दर्शाता है, लेकिन सीधे-सीधे अनुमोदन रोके रखना कठिन व्याख्या है।”
वहीं, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ ने बताया कि केस रिकॉर्ड 25,000 पन्नों तक पहुँच गए हैं।
कांग्रेस शासित तेलंगाना सरकार ने कहा कि सामान्य परिस्थितियों में राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह का पालन करना होता है, यहां तक कि अभियोजन की अनुमति देने के मामलों में भी, सिवाय इसके कि यदि मुख्यमंत्री या कोई मंत्री स्वयं आरोपित हो।
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अनुच्छेद 143(1) के तहत 14 सवाल सुप्रीम कोर्ट को भेजे हैं। इनमें प्रमुख प्रश्न यह है कि क्या राज्यपाल और राष्ट्रपति विधेयकों पर अनिश्चितकाल तक निर्णय टाल सकते हैं और क्या अदालतें इसके लिए समय सीमा तय कर सकती हैं।